भगवान से सही-सही प्राथना कैसे करें, उनका नाम कैसे लें, भाव कैसे बने?

भगवान के “होकर”, उनको “अपना” मान कर, “निर्बल” होकर “आश्रित” होकर उनसे प्राथना करें,  उनको पुकारें, उनका नाम लें, उनका ध्यान करें, फिर भगवान मीठे लगने लगेंगे, रोम रोम में समाने लगेंगे, जब उनके बिना फिर रहा नहीं जाएगा, तब वो आ जाएंगे।

बिगड़ी जन्म अनेक की अभी सुधरे आज,
“होए” राम को नाम भजु, तुलसी तजु कुसमाज।

रोम रोम जब रग रग बोले तब कुछ स्वाद नाम को पावे।

हम भगवान के कैसे “हों”, उन्हें “अपना” कैसे माने, अपनें में “दीनता निर्बलता आश्रय” आदि गुण कैसे लाएं? यह सब श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ गुरु से “गहराई” से समझें, उनका संग करें, उनकी सेवा करें, फिर उनकी कृपा से ज्ञान होगा, चिंतन दृढ़ होगा, तब “भाव” बनेगा और गाड़ी चलेगी!

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया |
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिन: ||
श्रीमद् भगवद्गीता 4.34

श्री कृष्ण कह्ते हैं कि श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ तत्वदर्शी गुरु के पास जाकर सत्य को जानो। विनम्र होकर उनसे ज्ञान प्राप्त करने की जिज्ञासा प्रकट करते हुए ज्ञान प्राप्त करो और उनकी सेवा करो। ऐसा सिद्ध सन्त ही तुम्हें दिव्य ज्ञान प्रदान कर सकता है क्योंकि वह परम सत्य की अनुभूति कर चुका है।

गुरु सेवा बिन भक्ति ना होई, अनेक जतन करै जे कोई।

“रे मन रसिकन संत संग बिनु रंच न उपजै प्रेम”