संत का वास्तविक चमत्कार क्या है? What is the real miracle of a Saint?

यह केवल ईश्वर की कृपा से ही होता है कि कोई व्यक्ति  भगवद्ग-प्राप्त संत से जुड़ता है, जो शिष्य के अहंकार और आसक्तियों को मिटाना है, जिन्हें अन्यथा व्यक्तिगत रूप से जड़ से उखाड़ना असंभव है। जैसे-जैसे शिष्य स्वयं को समर्पित करता है, वैसे-वैसे संत उसमें ईश्वर के प्रेम का संचार करता है! यह एक अनुभवगम्य विषय है, इसका शब्दों में वर्णन नहीं हो सकता!

It is only by the grace of God that an individual associate with a God-realized Saint, who is to eradicate the disciple’s ego and attachments, which are otherwise impossible to root out individually. As the disciple surrenders himself, so does the Saint radiate the love of God in him. This is an experiential subject, it cannot be described in words!

Importance of Bhakti!

The scriptures declare that only through “Bhakti” one can realize God, there is no other Way!

न साधयति मां योगो न साङ्ख्यं धर्म उद्धव।
न स्वाध्यायस्तपस्त्यागो यथा भक्तिर्ममोर्जिता॥
~ श्रीमद्भागवद्  11.14.20

Shri Krishna says I cannot be realized by Yoga, Sāṅkhya Knowledge, Pious Work, Vedic Study, Austerity or Renunciation. I am known only by Unalloyed Devotion (भक्तिर्ममोर्जिता).

अथात आनन्ददुघं पदाम्बुजं
हंसा: श्रयेरन्नरविन्दलोचन।
सुखं नु विश्वेश्वर योगकर्मभि-
स्त्वन्माययामी विहता न मानिन:॥
~ श्रीमद्भागवद्  11.29.3

Uddhav is saying to Lord Krishna, “Therefore O lotus-eyed Lord of the universe, in the end even elevated souls like हंस, परमहंस (स्वरूप में स्थित योगी, ज्ञानी आदि) happily takes shelter (being unable to overcome maya) of your lotus feet, which are the source of all divine bliss. But those who are proud of the achievements of their yoga and work, they do not take shelter of you and are defeated by your illusionary power maya.

भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वत:।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्॥
~  श्रीमद्भगवद्गीता 18.55

Only by loving devotion to Me does one come to know who I am in Truth. Then, having come to know Me, My devotee enters into full consciousness of Me.

पुरुष: स पर: पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया।
यस्यान्त:स्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम्॥
~  श्रीमद्भगवद्गीता 8.22

The Supreme Divine Personality is greater than all that exists. Although He is all-pervading and all living beings are situated in Him, yet He can be known only through Devotion.

भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन।
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप॥
~  श्रीमद्भगवद्गीता 11.54

O Arjun, by unalloyed devotion alone can I be known as I am, standing before you. Thereby, on receiving My divine vision, O scorcher of foes, one can know Me and see Me and enter into union with Me.

Every where it is repeated again & again that Only by loving Devotion can any one know God.

श्री रामचरितमानस Says

रामहि केवल प्रेम प्यारा, जान लेऊ जो जानन हारा।

Lord Shri Ram is only realized by Love. Reveal this truth to all those who really want to know.

Guru Nanak Dev Ji Says

हरि सम जग महान वस्तु नहीं, प्रेम पंथ सौ पंथ, सद्गुरु सम सज्जन नहीं, गीता सम नहीं ग्रंथ।

All different paths are difficult and take you only that far, it is only Bhakti which takes you all the way to God. It is simple and easy, God like a mother, herself nurse and nourish the devotee and take him in her lap. All one has to do is to have unflinching faith in God and surrender to him in love. His grace does the rest.

Bhagavad Gita Says

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिन:॥
~ श्रीमद्भगवद्गीता 4.34

Learn the Truth by approaching a spiritual master. Inquire from him with reverence and render service unto him. Such an enlightened Saint can impart knowledge unto you because he has seen the Truth.

In Bhakti, it is most essential that we take shelter of a Guru who is well versed in the Scriptures (श्रोत्रिय) and God-Realized (ब्रह्मनिष्ठ), serve him, understand the correct principles and subtleties of Bhakti from him, and do practice under his guidance. Then welfare is certain, there is no doubt about it!

Jagadguru Shri Kripalu Ji Maharaj Says

मन मनमोहन भजन कर, सजन स्नेही मान।
बिनुहिन बुलाय अहै, जग विराग अरु ज्ञान॥

हम पापी हैं! We are Sinners!

सब हैं भगवान के, संसार है भगवान का। अपने को बढ़ाना है लोगों को दबाना, आसक्ति बढ़ाना है चीजों को चुराना।

दूसरे को दुख देना है सबसे बड़ा पाप, बिना पश्चाताप है हर जीवन अभिशाप। कृपा से ही हैं कटते सारे पाप, अकृपा से हैं होते सब संताप।

प्रभु प्रेम में ही है पूर्णता फिर भी ऐ मूढ़ मन इधर उधर क्या ढूँढता?

Everything belongs to God, the world belongs to God. To enhance oneself is to suppress othes, to greed is to steal.

To give pain to others is the biggest sin, without repentance, no life is a win. All sins are forgiven by grace, all sufferings happen due to lack of grace.

Perfection is only in God’s love, still oh foolish mind, what are you looking for here and there?

Are we not even a bigger cheater? क्या हम उससे भी बड़े धोखेबाज नहीं?

We would call him a cheat who has abandoned his parents. Are we not a bigger cheater who has rejected God?

हम उसे धोखेबाज़ कहेंगे जिसने अपने माता-पिता को त्याग दिया हो। क्या हम उससे भी बड़े धोखेबाज़ नहीं जिसने ईश्वर को अस्वीकार कर दिया है?

मो सम कौन कुटिल खल कामी।
जेहिं तनु दियौ ताहिं बिसरायौ,
ऐसौ नमकहरामी॥
~संत सूरदास जी

A God is No God who can be known. वो ईश्वर ईश्वर नहीं जिसे जाना जा सके।

A God that can be known by effort is no God. He can be known only by His Grace.

जिस ईश्वर को प्रयास से जाना जा सके, वह ईश्वर नहीं है। उसे केवल उसकी कृपा से ही जाना जा सकता है।

यह गुन साधन तें नहिं होई।
तुम्हरी कृपा पाव कोइ कोई॥ 
~ रामायण

तेरी लीला सबसे न्यारी न्यारी हरि हरि..

भगवान और संत अन्तर्यामी होते हैं, उन्हीं को पता है कि किसके हृदय में क्या है, प्यार या खार, किसका कल्याण कैसे करना है। हम अपने दोष नहीं जान पाते।

भगवान परम लीला धारी हैं, जब वे अपने स्वांश नारद जी आदि के साथ लीला करने में नहीं चूकते तो हमारा कल्याण तो करेंगे ही..

नारद ने मांगा हरिरूप, मिला हरी(वानर) रूपः स्वयं को महादेव जैसा साधक समझने वाले नारद का मान भंग

नारदजी एक बार घूमते-घूमते हिमालय की पहाड़ियों में बने एक आश्रम पहुंच गए. गंगा किनारे बसा यह स्थान नारदजी को इतना भाया कि उन्होंने वहां तप करने की ठाऩी.

यह वही क्षेत्र था जहां शिवजी ने समाधि लगाई थी और समाधि भंग करने की चेष्टा में कामदेव स्वयं भंग हो गए थे. नारदजी ने समाधि लगाई और करीब हजार वर्ष समाधि में लीन रहे.

देवराज इंद्र को बड़ा भय हुआ कि कहीं नारद तप से भगवान शंकर को प्रसन्न कर उनका पद तो नहीं छीन लेना चाहते. इंद्र ने नारदजी का तप भंग करने के लिए कामदेव को भेजा.

कामदेव ने अपनी सारी कलाओं का प्रयोग किया लेकिन शिवजी ने जिस स्थान पर कामदेव को एक बार भंग किया था वहां काम को सफलता कैसे मिलती! ऊपर से नारद शिवजी का ध्यान कर रहे थे.

कामदेव हारकर अमरावती लौट गए और नारदजी गुणगान करने लगे. इधर नारदजी की तपस्या पूरी हो गई. इंद्र नारद के पास आए और सारी बात बताकर कहा कि आप साक्षात शिवजी के समान कामविजयी हो चुके हैं. सुनकर नारद फूल गए.

वह भगवान शंकर के पास पहुंचे, उन्हें प्रणाम किया और सारी बात कह सुनाई. भोलेनाथ मुस्काते रहे और नारद को आशीर्वाद देकर विदा किया. वहां से नारद अपने पिता ब्रह्माजी के पास पहुंचे और सारी बात उन्हें भी सुना डाली.

ब्रह्मा समझ गए कि नारद स्वयं को शिवजी जैसा तपस्वी समझने लगा है. वह बोले− पुत्र! अपने तप और कामदेव के असफल प्रयासों के बारे में किसी से चर्चा न करना. खासतौर से यदि श्रीविष्णुजी पूछें तो भी इसे छिपा लेना.

नारदजी को यह अच्छा नहीं लगा कि भगवान स्वयं पिता ही पुत्र को घोर तप और काम के प्रभाव से बेअसर रहने जैसे गुणों का बखान करने से रोक रहे हैं. दुखी मन से वह भगवान विष्णु से मिलने बैकुण्ठ को चल दिए.

शिवजी की सलाह की अनदेखी करते हुए उन्होंने वहां अपना बखान गाया. विष्णु भगवान समझ गए कि नारद के मन में अहंकार पैदा हो गया है. मुनि के मन में ऐसे भाव नहीं आने चाहिए वरना उसका तेज समाप्त हो सकता है.

प्रभु बोले− देवर्षि आप तो ज्ञान और वैराग्य की साक्षात मूर्ति ठहरे. भला आपको काम, मद और मोह जैसे अवगुण कैसे घेर सकते हैं. प्रशंसा से फूले नारदजी ने अभिमान से भरकर कहा− प्रभु यह तो आपकी कृपा है.

श्रीहरि ने नारद के मन का अहंकार मिटाने की सोची. भगवान ने अपनी माया से बैकुंठ से भी सुंदर एक नगर की पृथ्वी पर रचना कर दी. नारद ने पहले यह नगर कभी देखा नहीं था. इसलिए वह नगर घूमने चले गए.

नगर को दुल्हन की तरह सजाया गया था. लोगों से पूछने पर नारद को पता चला कि यहां का राजा शीलनिधि अपनी बेटी का स्वयंवर करा रहा है. देश विदेश के राजा आ रहे हैं.

नारदजी राजा के पास गए तो राजा ने उनसे विनती कि वह राजकुमारी को आशीर्वाद दें. नारदजी ने कन्या की कुंडली देखी. वह उसके लक्षणों को देखकर चकित रह गए. इस विलक्षण कल्याण से विवाह करने वाला अजर अमर हो जाएगा.

युद्ध में अजेय रहेगा. सारा संसार उसकी सेवा करेगा. नारदजी कन्या पर रीझ गए थे. उसे प्राप्त करने के विचारों में खोए वहां से चले. उन्होंने भगवान विष्णु का ध्यान किया. प्रभु प्रकट हुए.

नारदजी ने प्रार्थना की− प्रभु! अपने भक्त का कल्याण करिए. मैं राजकुमारी से विवाह करना चाहता हूं परंतु मेरे रूप को वह पसंद नहीं करेगी. इसके लिए मुझे हरिरूप चाहिए. आपकी कृपा के बिना मेरा कल्याण संभव नहीं है.

प्रभु ने कहा− नारद, जिस प्रकार वैद्य औषधि देकर रोगी का कल्याण करता है, उसी प्रकार मैं तुम्हारा कल्याण अवश्य करूंगा. भगवान की बातें स्पष्ट थीं. नारदजी पर काम और मोह सवार था. साधु के लिए यही रोग है.

नारदजी मोह तथा काम में अंधे हो गए थे. वह यह भूल गए कि अभी-अभी कामरहित होने की डींग मारकर गए थे. वह स्वयंवर में पहुंचने के लिए इतने उतावले थे कि आइने में शक्ल भी नहीं देखी कि आखिर प्रभु ने उन्हें रूप दिया कैसा है?

उन्हें तो विश्वास था कि वह स्वयं श्रीहरि की छाया बन चुके हैं. हरि का एक अर्थ वानर भी होता है. नारद ने हरि रूप मांगा तो प्रभु ने उन्हें वानर वाला हरि रूप दे दिया. वानर की शक्ल में नारद स्वयंवर में पहुंचे.

स्वयंवर में आए देवों और राजाओं ने नारद को वानर रूप में देखा तो उन्हें हंसी तो आई लेकिन शाप के डर से हंसी रोके रखी. राजकुमारी जयमाला लेकर स्वयंवर सभा में आई. जैसे ही नारद पर उसकी नजर पड़ी वह हंसने लगी.

स्वयं भगवान विष्णु भी राजा के रूप में उस सभा में बैठे थे. श्रीमती ने माला भगवान के गले में डाल दी. प्रभु उसे लेकर चल दिए. नारदजी बड़े दुखी होकर चले. नारदजी को ब्राह्मणवेश में शिवजी के दो सेवक मिले.

उन्होंने नारदजी से पूछा कि आपने वानर वेश क्यों धारण कर रखा है. नारदजी ने गणों को शाप दिया- मेरे जैसे सिद्ध का उपहास करने वाले तुम दोनों राक्षस कुल में जन्म लोगे. दोनों ने इसे होनी समझकर स्वीकारा और चले गए.

नारद ने तालाब के जल में झांका तो बंदर की शक्ल देखकर आग-बबूले हो गए. तिलमिलाए बैकुंठ लोक की ओर दौड़े. रास्ते में श्रीहरि और श्रीमती मिल गए.

नारदजी ने श्रीहरि को खरी-खोटी सुनानी शुरू कर दी- आपने समुद्र मंथन के दौरान मोहिनी रूप में असुरों से छल किया. शिवजी को हलाहल पिला दिया जबकि मंथन से निकलीं लक्ष्मी देवी को अपने लिए मांग लिया.

आज छल से मेरी प्रिय कन्या छीन ली. मैं स्त्री विरह में जिस प्रकार व्याकुल हूं, आपको भी ऐसा स्त्री विरह भोगना पड़ेगा. मुझे वानर रूप देकर स्त्री से अपमानित कराया. स्त्री प्राप्त करने के लिए वानरों से सहायता की याचना करनी पड़ेगी.

नारद क्रोध में बोलते जा रहे थे तभी शिवजी ने अपनी माया समेट ली. श्रीहरि ने सहज भाव से शाप स्वीकार लिया. अब नारदजी को घोर पछतावा हुआ. वह श्रीहरि के चरणों में सिर रखकर फूट-फूटकर रोने लगे.

कभी छाती पीटते तो कभी अपने मुख पर थप्पड़ लगाते जिससे ये वचन निकले. श्रीहरि ने कहा- नारद इसमें तुम्हारा दोष नहीं. शिवजी की माया के वश में यह सब हुआ. शिवजी के सहस्त्रनाम स्तोत्र को जपते उनका ध्यानकर पश्चाताप करो.

नारदजी वहां से शिवजी का ध्यान करने काशी चले गए. (शिव पुराण)

Humble ourselves or life will do it for us. खुद झुक जाये नहीं तो जिंदगी झुका देगी।

Until we are tired, broken by our faults and sorrows, we do not understand our pitiable condition and do not feel humble before God. God love us immensely, His shelter is the only solution.

जब तक हम थक नहीं जाते, अपने दोषों और दुखों से टूट नहीं जाते, तब तक अपनी दयनीय स्थिति समझ में नहीं आती और ईश्वर के आगे दीनता नहीं आती। ईश्वर हमें बेहद प्रेम करता है, उसका आश्रय ही एक मात्र उपाय है।

इतना सरल है भगवान को जानना, पाना!

माता-पिता की आत्मीयता बालक से स्वाभाविक होती है। जब बालक कुछ समझ नहीं पाता या कर नहीं पाता तो उनसे कहता है, उनकी शरण हो जाता है। तब वात्सल्य भाव से वह समझा देते हैं, कर देते हैं। ऐसे ही भगवान को जानने पाने के लिए भोले बालक की तरह, सरलता-दीनता-अपनेपन के भाव से, उनको बस सच्चे ह्रदय से कहना है। वह मिल जाएंगे।

भगवान से सही-सही प्राथना कैसे करें, उनका नाम कैसे लें, भाव कैसे बने?

भगवान के “होकर”, उनको “अपना” मान कर, “निर्बल” होकर “आश्रित” होकर उनसे प्राथना करें,  उनको पुकारें, उनका नाम लें, उनका ध्यान करें, फिर भगवान मीठे लगने लगेंगे, रोम रोम में समाने लगेंगे, जब उनके बिना फिर रहा नहीं जाएगा, तब वो आ जाएंगे।

बिगड़ी जन्म अनेक की अभी सुधरे आज,
“होए” राम को नाम भजु, तुलसी तजु कुसमाज।

रोम रोम जब रग रग बोले तब कुछ स्वाद नाम को पावे।

हम भगवान के कैसे “हों”, उन्हें “अपना” कैसे माने, अपनें में “दीनता निर्बलता आश्रय” आदि गुण कैसे लाएं? यह सब श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ गुरु से “गहराई” से समझें, उनका संग करें, उनकी सेवा करें, फिर उनकी कृपा से ज्ञान होगा, चिंतन दृढ़ होगा, तब “भाव” बनेगा और गाड़ी चलेगी!

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया |
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिन: ||
श्रीमद् भगवद्गीता 4.34

श्री कृष्ण कह्ते हैं कि श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ तत्वदर्शी गुरु के पास जाकर सत्य को जानो। विनम्र होकर उनसे ज्ञान प्राप्त करने की जिज्ञासा प्रकट करते हुए ज्ञान प्राप्त करो और उनकी सेवा करो। ऐसा सिद्ध सन्त ही तुम्हें दिव्य ज्ञान प्रदान कर सकता है क्योंकि वह परम सत्य की अनुभूति कर चुका है।

गुरु सेवा बिन भक्ति ना होई, अनेक जतन करै जे कोई।

“रे मन रसिकन संत संग बिनु रंच न उपजै प्रेम”

दो बातन को भूल मत जो चाहत कल्याण, नारायण एक मौत को दूजो श्री भगवान।

कोई कभी भी मर सकता है, किसी क्षण मर सकता हैं, अब वो क्या करेगा ध्यान, क्या करेगा ज्ञान, क्या करेगा साधना और क्या करेगा अराधना?

समय नहीं हैं, सब बल त्याग कर भगवान को पुकारने का अवसर बस इसी क्षण है, अगला क्षण मिले ना मिले, अभी शरणागत हो सकता है जीव, तुरंत, अभी भगवान को पा सकता है, तुरंत, कुछ करने का भी अवसर नहीं है यह मन में बैठा कर फिलिंग करो, करुण क्रंदन करो, पुकारो भगवान को, जो भगवान कभी नहीं मिले, अभी मिल जाएंगे, वो बहुत दयालू हैं, हम अहंकार से भरे हैं इसलिए नहीं मिलते वो…

अनंत पाप हैं हमारे। हम अनंत जन्म में अनंत दुख पा चुके, पा रहें हैं और पाते रहेंगे। हमें समझना है कि हम कितने लाचार हैं, कल्याण कभी अपने बल से, साधना कर के नहीं होता, शरणागति की “मनों स्थिति” लाने से होता है, भगवान के आश्रय से होता है, जो कभी नहीं हुआ वो एक क्षण में होता है, कृपा से होता है।

मनुष्य जन्म अमूल्य है, जन्म-मरण चक्र से निकलने का दुर्लभ अवसर ना चुकें! हर पल भगवान को पुकारें, पता नहीं कब मृत्यु आ जाए, चौरासी लाख में फिर फंस जाएं, कौन सी योनि मिलें, फिर यह मौका मिले ना मिले..

Love wants Nothing but to give Everything.. जो तुम तोड़ो पिया, मैं नाही तोडू रे।

Meera Ji’s bhajan तुम भये तरुवर, मैं भयी पंखिया*.. beautifully illustrate how both soul and God are one in love as the existence is one ( ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्मम्’ – “सब ब्रह्म ही है”  छान्दोग्य उपनिषद ३/१४/१- सामवेद ), yet both have their own distinct eternal personalities ( ‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।’. . “किसी नित्य सत्ता का अभाव नहीं हो सकता.. जो आज है, वो कल भी था और कल भी रहेगा।” भगवद्गीता 2.16). One exist for the pleasure of other and this giving of happiness to Other is True Love.

One can love God in moods (भाव) of one’s master, friend, child, beloved..like हनुमान जी, श्रीदामा/सुदामा (गोप, ग्वाल-बाल), नंद/यशोदा, राधा जी/गोपी respectively .. the later contain all the preceding moods and leads to highest devotional divine bliss.. ( मन तेरो साचों यार ब्रजराज कुमार, तेरो सोई स्वामी, सोई सखा, सूत, भरतार ~ प्रेम रस मदिरा).

The beauty and influence of Divine Love (आह्लादिनी शक्ति) is such that it makes even God forgets his authoritative position in reality (so much so that He does not remember that ‘he’ is God any more) and He seeks to love you and be loved like nobody.

A True Beloved (प्रेमास्पद) is one who doesn’t want anything from you and only want your happiness, one who is all complete and selfless, only God qualifies on that criteria. *When one starts to love him, one also starts to become like him, selfless, complete and divine, wanting only others happiness (निष्काम प्रेम).

* जो तुम तोड़ो पिया, मैं नाही तोडू रे।
तोरी प्रीत तोड़ी कृष्णा, कौन संग जोडू॥

तुम भये तरुवर, मैं भयी पंखिया।
तुम भये सरोवर, मैं भयी मछिया॥

तुम भये गिरिवर, मैं भयी चारा।
तुम भये चंदा मैं भयी चकोरा॥

तुम भये मोती प्रभु जी, हम भये धागा।
तुम भये सोना, हम भये सुहागा॥

बाई मीरा के प्रभु बृज के बासी।
तुम मेरे ठाकुर, मई तेरी दासी॥

भगवान कैसे मिलें? क्या भगवान हमें प्रेम करते हैं? हमेशा के लिय दुख कैसे जाए? क्या भगवान साकार हैं? क्या उनका लोक है? इस संसार का क्या स्वरूप है?

भगवान केवल रोने से मिलते हैं.. प्रेम से मिलते हैं.. भक्ति से मिलते हैं.. केवल आँसू ही एक माध्यम हैं उन्हें बताने के लिए हम उनके बिना कुछ भी नहीं.. हम असहाय हैं.. अनाथ हैं.. अपराधी हैँ.. अनंत पाप किए बैठे हैं..  उनको ना जाना ना माना.. उनके प्रेम का अनादर किया..

“मो सम कौन कुटिल खल कामी। जेहिं तनु दियौ ताहिं बिसरायौ, ऐसौ नमकहरामी॥” ( सूर सागर ~ संत सूरदास)

भगवान के लिय सच्चे आँसुओं में अनन्त बल है जो केवल निर्बल को प्राप्त है..आश्रित को प्राप्त है..प्रेमी को प्राप्त है.. व्याकुलता से भरा एक एक आँसू एटॉमिक बम है..

भगवान की कृपा के बिना ना मन शुद्ध होगा. ना ही दुख निवृत्ति होगी.. भगवद्ग प्राप्ति, परमानंद प्राप्ति, माया निवृत्ति की तो छोड़िए.. कोई लाख ध्यान कर ले ज्ञान कर ले.. बड़े बड़े ज्ञानी योगी हुए, हैं, होंगे.. हज़ारों वर्ष तपस्या की.. बड़ी बड़ी योगिक सिद्धियां मिल गई.. पर माया नहीं गई.. आत्मिक आनंद (मायीक सात्विक आनंद) को ही दिव्यानंद, परमानंद समझ लिया.. भगवान के शरणागत नहीं हुए.. भक्ति नहीं की.. फिर पतन हो गया… जीवन-मुक्त जड़भरत की यहि कहानी है .. फिर जब भक्ति की अगले जन्म में तो भगवान की कृपा से उद्धार हुआ.. इतिहास गवाह है.. शास्त्र प्रमाण हैं.. भरा पड़ा है… 

कलिजुग जोग न जग्य न ग्याना। एक अधार राम गुन गाना॥ सब भरोस तजि जो भज रामहि। प्रेम समेत गाव गुन ग्रामहि॥ (रामायण)

हम संसार में भोग के लिए नहीं आए.. अगर हमने भगवान को ना जाना तो बहुत बड़ी हानि हो जाएगी.. चौरासी लाख योनि में जाने की तैयारी है.. जहां महा दुख है.. यह परिवार, धन दौलत, मान सम्मान कुछ साथ नहीं जाएगा.. मनुष्य जन्म अनमोल है..

“अवसर चुकीं फिरी चौरासी कर मींजत पछतात.. अरे मन अवसर बीतो जात”.. (प्रेम रस मदिरा ~ जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज)

भगवान हमसे अनंत प्रेम करते हैं, हम अनन्त काल से अंधकार में हैं, पर हमेशा रहें ऐसा जरूरी नहीं, हम भगवान को भूले हुए हैं, पर वो हमे नहीं भूले, वो हमे उनका सब कुछ देना चाहते हैं दिव्य-दिव्य, इस दुखमय मायीक संसार से निकालना चाहते हैं.. क्या नहीं करते भगवान हमारे लिए, निराकार रूप से सर्वव्यापक हैं, यह संसार बनाया, शरीर बनाया, हमारे हृदय में.. आत्मा में बैठें हैं, हमारे सारे कर्म नोट करते हैं, अच्छे बुरे कर्मों का फल देते हैं, सब व्यवस्था रखतें हैं, परमाणु परमाणु में बैठकर.. संसार का ऐसा स्वरूप बनाया कि हम दुख पाने पर जागें और सोचें कि क्या हम शरीर हैं? क्या इस संसार में सच्चा सुख है? हमारा दुख कैसे जाए? .. असली में हम कौन हैं, हमारा कौन हैं? आदि ..पर हम इतने संसार आसक्त हो गए कि लाख दुख पाने पर भी वहीं नाक रगड़तें हैं.. आनंद की भूख इतनी प्रबल है कि दुख पाने पर भी अनित्य, क्षणिक सुख में बार बार गिरते हैं..

भगवान असली में हैं, वो साकार हैं और निराकार भी, उनका शरीर दिव्य है, सच्चिदानंद विग्रह है, मैटीरियल नहीं.. तर्क से भी सर्वशक्तिमान भगवान क्या साकार नहीं हो सकते? साकार ही नहीं वो “नित्य” साकार हैं और निराकार का आधार हैं..

द्वे वाव ब्रह्मणो रूपे मूर्तं चैव अमूर्तं च । (बृहदारण्यकोपनिषत् २-३-१)

अर्थात्‌ साकार एवं निराकार भगवान के दो स्वरूप होते हैं।

चिदानन्दमय देह तुम्हारी, विगत विकार जान अधिकारी। (रामायण )

आपका देह दिव्यातिदिव्य है, चिन्मय-अविनाशी है, जिसके दर्शन दिव्य दृष्टि मिलने पर होते हैं।

उनके दिव्य लोक हैं उनका सब कुछ दिव्य है.. उनको प्राप्त करने पर जीव को भी दिव्य देह मिलती है (दिव्य भाव देह) और उनका लोक भी दिव्य है अपितु स्वयं बन गए हैं..

साकार भगवान के प्रेमानंद की एक बूंद पर अनंत ब्रह्मानंद (निराकार भगवान का आनंद) न्यौछावर हैं.. इतना बड़ा और रसमय हैं भगवान के साकार स्वरूप का आनंद.. इसलिए भगवान ने साकार संसार बनाया हैं (जो दिव्य लोक का विकृत प्रतिबिंब है) कि हम इस रहस्य को जाने.. यहा अपूर्णता है वहां पूर्णता है.. यहां का आनंद मायीक है, अनित्य है, क्षणिक है, दुख मिश्रित है.. भगवद्ग प्रेमानंद दिव्य है, अनंत है, नित्य है, प्रति पल वर्धमान है, नवीन है.. यह वेद सम्मत सिद्धांत है.. वेदों के मन्त्रों में इसके प्रमाण हैं.. 

भगवान ही हमारे सर्वस्व हैं ..यह संसार माया का बना है.. दुखालय है.. हम परमानंद चाहते हैं जो भगवान स्वयम हैं.. वो आनंद सिंधु हैं.. हम आनंद के अंश हैं भगवान के अंश हैं ..

रसो वै सः। रसं ह्येवायं लब्ध्वा आनन्दी भवति। ( तैत्तिरीयोपनिषत् २-७-२ )

भगवान रस स्वरूप हैं, सच्चिदानंद विग्रह हैं। जब हम इस रस को, इस आनंद को प्राप्त कर लेते हैं तो स्वयं आनन्दमय हो जाते हैं. ।

चिन्मात्रं श्रीहरेरंशं सूक्ष्ममक्षरमव्ययम् ।  कृष्णाधीनमिति प्राहुर्जीवं ज्ञानगुणाश्रयम् ॥ ( वेद )

ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन:। ( गीता 15-7 )

ईश्वर अंश जीव अविनाशी चेतन अमल सहज सुख राशी। ( रामायण )

हम ईश्वर के अनादि अंश है.. शास्त्र प्रमाण हैं.. ‘मैं’ शरीर, इन्द्रिय, मन आदि नहीं है । अतएव हमारा असली सुख ईश्वरीय है।

इस अंधकार रूपी संसार  में वस्तु, व्यक्ति, मान सम्मान की चाह बनाकर भटकते भटकते हमें अनंत जन्म बीत गए.. किस योनि में नहीं गए? .. कौन सा दुख नहीं पाया? .. संसार के सुख दुख मिश्रित हैं..सब स्वार्थ से जुड़े हैं, अपूर्ण हैं, स्वार्थ खत्म, प्यार खत्म.. हमारा असली स्वार्थ.. दिव्य स्वार्थ.. पूर्णतम पुरुषोत्तम भगवान से है..उनको किसी से कुछ नहीं चाहिए.. वो अनंत हैं.. उनका सब कुछ अनन्त है..दिव्य है.. वो केवल देना देना जानते हैं.. वो हमारे अपने से भी अपने हैं.. आत्मा की आत्मा हैं.. सबका श्रोत हैं.. वात्सल्य सागर हैं, कृपा सिंधु हैं, दीन बन्धु हैं, पतित पावन हैं, निर्बल के बल हैं!

सच्चे आंसुओ को वो सह नहीं पाते.. पिघल जाते हैं.. वो हमसे कोई साधना की अपेक्षा नहीं रखते.. बस हम उनको अपना मानकर पुकारें, अपनी दयनीय स्थिति को जानकर, अपने को पतित मानकर, निर्बल होकर.. जैसे एक तुरंत का पैदा हुआ बच्चा रो देता है.. वो तो माँ को भी नहीं जानता.. पहचानता.. फिर माँ उसका सब कुछ करती है.. और हमारी असली माँ सर्वज्ञ है, वो हमे एक टक देखती रहती है पर हम उसे भूले हुए हैं.. बस हमारे पुकारने भर की देर है.. ।

हमारी दुर्दशा असहनीय है, जन्म मरण का दुख.. बीमारी का दुख.. बुढ़ापे का दुख.. शरीर रखने का दुख.. संसार में संघर्ष का दुख.. घोर मानसिक दुखों से हम घिरे हैं.. काम की जलन, क्रोध की जलन, गलतियों की जलन.. अनंत जन्मों की तो छोड़िए, इसी जन्म में ही हमने कितने दुख पाएं, जिसने कुछ भी संघर्ष किया है उसने अपनी कमियों को जाना है, हम कितने असहाय हैं, अपूर्ण है.. देखा जाए तो हम कुछ भी नहीं.. एक पल के जीवन का भरोसा नहीं..कब क्या आपदा आ जाए.. कब मृत्यु आ जाये.. पर हमारा अहंकार इतना बड़ा है कि हम अपनी स्थिति पर विचार ही नहीं करते.. हमें करने का बल है.. कर कर के अनन्त जन्म बीत गए.. क्या मिला? और कर्म बंधन में फंसते गए!

यह संसार बड़ी युक्ति से बनाया गया है.. जिससे हम यह जाने की ये हमारा नहीं हैं.. यहा कुछ हमारा नहीं है.. कोई हमारा नहीं है.. हमारा असली घर भगवान का लोक है..हमारे असली ज़न भगवान के ज़न हैं.. हमारे सारे नाते भगवान से हैं.. वो अनन्त जन्मों से हमारी राह देख रहे हैं कि हम कब यह जाने, कब यह माने और उनको पुकारें.. बस फिर देरी नहीं.. भगवान को पाने के लिय सच्चे आँसुओं से बढ़कर कोई साधन नहीं.. अपनेपन के आंसू, दीनता के आँसू कह्ते हैं कि आपके बिना “मैं” कुछ भी नहीं.. और प्रेम का असली स्वरूप भी यही है.. प्रेमी बिना प्रेमास्पद के कुछ भी नहीं.. भगवान हमसे अनंत प्रेम करते हैं, यह संसार चला रहे हैं हमारे लिए सृष्टि की कभी हम जागे, कभी हम जाने, उनको अपना माने, और अपना कल्याण करें.. पर हम भी इतने ढीठ हैं कि अन्त जन्म हो गए.. अपनी बुद्धि का बल.. अपनी शक्ति का बल का मिथ्या अभिमान लेकर चौरासी लाख योनियों में जुते चप्पल खा रहें हैं.. सर कटा सकते हैं लेकिन सर झुका सकते नहीं.. प्रेम में हारकर ही जीत है.. भगवान अपने को कुछ नहीं मानते.. भक्त के आगे हारने को तैयार रहते हैं.. पर अभिमान उनको स्वीकार नहीं क्यों कि वो हमें यह समझाना चाहते हैं कि हम अपने से कुछ नहीं पर प्रेम में.. दूसरे के साथ सब कुछ हैं.. यहि प्रेम है, शरणागति है, आश्रय है, दीनता है और बिना आसुओं के यह परिपक्व नहीं होता।

तो फिर कैसे रोयें? आँसू कैसे आयें?  हम जब यह समझें कि बिना प्रभु कृपा के हम माया से, इस अंधकार से कभी नहीं उबर सकते.. हमारे अनन्त पाप हैं अनन्त जन्मों के.. हम अपने में सीमित हैं अगर हम अनंत काल तक भी साधना करें तब भी अशुद्ध ही रहेंगे.. केवल जो अनंत है, नित्य शुद्ध तत्त्व है.. परम पवित्र है.. वो ही अपनी कृपा से हमे उबार सकता है और कोई रास्ता नहीं। यह आँसू ही एक माध्यम हैं उन्हें बताने के लिए हम उनके भरोसे हैं जैसे एक बालक माँ के भरोसे होता है..अहम ही अहंकार है.. जहाँ अहम वहां अपनापन कहाँ? प्रेम में अपना बल रखना दाग है.. प्रेम ही प्रेरणा है.. प्रेम ही बल है.. उनका ही सहारा हो वही प्रेम है .. उनके प्रेम पर हमें पूर्ण विश्वास हो .. किरण सूर्य से प्रथक कुछ भी नहीं, अंधकार में खोई एक लाचार बेचार अस्तित्व है.. सूर्य का संबन्ध ज्ञान, उसका प्रेम, उसका आश्रय अंधकार मिटा सकता है और जो अपना है उससे मदद मांगने में क्या शर्म.. ये तो हमारा हक है.. वास्तविकता तो यह है कि भगवान का जब हम आश्रय नहीं लेना चाहते तो भगवान सोचते हैं यह मुझे अपना नहीं मानता मैं सर्व शक्तिमान हूँ.. मेरे इशारे मात से इसका अंधकार मीट जाएगा.. मुझे पा लेगा मेरा सब कुछ इसका हो जाएगा.. अनन्त कोट ब्रह्मांडो के राजा का बेटा भिखारियों की तरह जी रा है.. और उनकी शक्ति माया से हम पार नहीं पा सकते.. इस माया में भगवान के बराबर शक्ति है.. भगवान का आश्रय लिय बिना, उनसे अपनेपन के बिना, उनकी भक्ति के बिना त्रिकाल में किसी योगी, ज्ञानी, तपस्वी का कल्याण असंभव है, वही भक्ति से भक्त सहज ही भगवान को पा लेता है..

शुद्धयति हि नान्तरात्मा कृष्णपदाम्भोज भक्तिमृते।
(प्रबोध सुधाकर ~ आदि जगद्गुरु शंकराचार्य)

“भगवान श्रीकृष्ण के चरण कमलों की भक्ति में लीन हुए बिना मन शुद्ध नहीं होगा”

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया। मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते॥ ( भगवद्गीता 7-14॥)

प्रकति के तीन गुणों (सात्विक, राजस, तमस) से युक्त मेरी दैवीय शक्ति माया से पार पाना अत्यंत कठिन है किन्तु जो मेरे शरणागत हो जाते हैं, वे इसे सरलता से पार कर जाते हैं।

यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्व, यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै । तं ह देवमात्मबुद्धिप्रकाशं, मुमुक्षुर्वै शरणमहं प्रपद्ये ॥ ( यजुर्वेद श्वेताश्वतरोपनिषत् ६-१८ )

जो सृष्टि के पूर्व ‘सृष्टिकर्ता ब्रह्मा’ का विधान करता है तथा जो वेदों को उन्हें (ब्रह्मा को) प्रदान करता है, वो भगवान (देव) जो ‘आत्मा’ तथा ‘बुद्धि’ प्रकाशित कर रहा है, मैं कल्याण की कामना से उसकी शरण को जाता हूँ।

सो दासी रघुबीर कै समुझें मिथ्या सोपि। छूट न राम कृपा बिनु नाथ कहउँ पद रोपि ॥ (रामायण 71 ख)

वह माया श्री रघुवीर की शक्ति है, उसको मिथ्या ना समझो, उसमे भगवान के बराबर बल है, वह श्री रामजी की कृपा के बिना छूटती नहीं। हे नाथ! यह मैं प्रतिज्ञा करके कहता हूँ॥

हम असहाय हैं.. अनंत जन्मों से माया के आधीन होने के कारण हम अनंत पाप कर के बैठे हैं.. हर तरह का पाप हमने किया है.. अनन्त मर्डर किए हैं.. हमें याद नहीं.. हम अनन्त काल तक भी अगर साधना करे तब भी मन शुद्ध नहीं कर सकते.. और कल युग के जीव क्या साधना करेंगे.. जब मन ही बस में नहीं तो क्या ध्यान क्या ज्ञान.. वैसे भी भगवान कोई साधन से नहीं मिलते.. शरणागति से मिलते हैं.. शरणागत होना मतलब अपने बल का कोई आसरा ना हो केबल प्रभु की कृपा का आसरा हो तब बिना किए ही कृपा होती है.. जो साधना सेवा उन्हें करानी है.. भगवान अपनी कृपा से करा लेते हैं हमारा मन शुद्ध कराने के लिए और फिर भगवद्ग दर्शन, प्रेम सब मिल जाता है.. जब तक जीव कर कर के हार नहीं जाता है.. तब तक उसका अहम नहीं टूटता..तब तक वो शरणागत नहीं होता..

जब संसार आसक्त पत्थर दिल इंसान का हृदय भी आँसू देखकर भारी हो जाता है.. पिघल जाता है तो क्या करुणा वरुणालय अनन्त माताओं का वात्सल्य लिए हमारे प्रभु अपने आप को रोक पाएंगे? .. हरगिज नहीं.. हमारे बस रोने की देर हैं..रोने की आदत डाल लो.. जिद्द कर लो रोने की.. लाखँ आँसू बहाने की.. कि जब तो वो नहीं आयेंगे हम रोते जाएंगे.. प्राणों में और आंसुओं में होड़ लग जाएं.. अभी नहीं तो कभी नहिं.. बस अब बहुत हो चुका अब यह जीवन बिना जीवन धन को पाए व्यर्थ है.. मैं अधम, पापी, अहंकारी पापात्मा बेशर्मी में जिए जाँ रहा
हूँ! पाप पे पाप किए जाँ रहा हुं.. जिस पल भी हम भगवान के अलावा कुछ भी सोचते हैं तो राग द्वेष के अलावा क्या सोचेंगे.. क्या करेंगे.. कर्म बंधन में फंसते जाएंगे.. केवल ईश्वर प्रेम ही एक उपाय है.. जिसे आसुओं का सहारा है उसको भगवान अवश्य मिलेंगे, यही वेदों का सार है।

बिन रोये किन पाईया प्रेम पीयारो मीत..

मन कैसे शांत हो? क्या परमानन्द पाना कठिन है? भगवान जल्दी कैसे मिलें?

सबसे सुगम, सरल और सर्वोत्तम साधन – भगवद्ग ज्ञान, प्रेम और शरणागति।

संसार का सुख मायीक है, जड़, नश्वर, क्षणिक, घटमान, दुख मिश्रित एवं अशांति का मूल है। परम सुख परमात्मिक है, दिव्य, शास्वत, प्रति क्षण वर्धमान, नित्य नवीन एवं अनंत है।

संसार का सुख पाना कठिन है, अगर कोई अरबपति बनना चाहे, प्रधानमन्त्री बनना चाहे, हर कोई नहीं कर पाता और पा भी ले तो रख नहीं पाता परंतु परम सुख पाना सरल है, हर कोई पा सकता है और सदा के लिय।

कैसे? जैसे हम जब बीमार होते हैं, बुखार में, दुख में होते हैं तो स्वाभाविक रूप से अपनी माँ को याद करते हैं, अनायास ही मुख से माँ की पुकार होती है, माँ के प्यार की, दुलार की चाह होती है।

वैसे ही जब हम अपनी असली माँ को सच्चे हृदय से “शरणागत” होके पुकारते हैं तो भगवान की कृपा हमें अपने आचल में भर लेती है, अशांत चित में शांति, मन में निर्भयता, निर्लिप्तता और निशोकता आ जाती है, बिना किय ज्ञान, वैराग्य और प्रेम प्रस्फुटित होने लगाता है, मन आनंद में डूबने लगता है।

असली आनंद पाने के लिए केवल चाह चाहिये, प्रबल चाह, भगवान चाह से मिलते हैं, भाव से मिलते हैं, बिना किए मिलते हैं, निर्बल को मिलते हैं, शरणागत को मिलते हैं, प्रेम से मिलते हैं, और प्रेम करना सब कोई जानता है।

किरन का संबंध सूर्य से है, संसार और शरीर के मोह रूपी अंधकार से नहीं। हम पुकारे कि “हे प्रभु, हम आपके हैं पर करने पर भी आपसे प्रेम नहीं होता, ध्यान नहीं होता, मन अज्ञान से भरा है, अशांत हैं, अनंत जन्मों की बिगड़ी मेरे बनाय नहीं बनेगी, अब बस आपका ही सहारा है!

केवल संसार में ड्यूटी करके भगवान की कृपा चाहने से सबकुछ मिल जाता है। इससे सरल कुछ नहीं, केवल भगवान की कृपा पर विश्वास हो, उनसे अपनापन हो, ना हो तो उनसे प्राथना करें, आप केवल उनके हो यह समझ बैठ जाएगी। तब अनन्त जन्मों की बिगड़ी कुछ समय में बन जाएगी।

और अगर हम सोचे यह बहुत कठिन है तो हमको अपना बल है, सर्व समर्थ भगवान को हम अपना नहीं मानते, हम को लगता है करने से कृपा मिलती है, तो फिर जब हम कर कर के थक जाएगें, मर मर के मर जाएगें, तब कभी किसी जन्म में निर्बल होके भगवान को पुकारेंगे।

तो हम अभी क्यों ना पुकारें, उन्हें अपना मान के? बच्चा माँ की गोदी के लिए सदा अधिकारी है, माँ उसके गुण अवगुण नहीं देखती, बस उसे माँ की प्रबल चाह हो तो भगवान तुरंत गोदी में उठा लेंगे, अपना सब कुछ दे देंगे।

बिगरी जन्म अनेक की अबहीं सुधरे आज। होहि राम कौ नाम भजु तुलसी तजि कुसमाज ।। (तुलसीदास, दोहावली २२)

Indulgence & Repentance

An unchecked desire leads to indulgence. The Loss of self awareness, judgement and self control follows sure. The Anger, hopelessness and repentance are its inevitable consequences.

A miserable existence caught in cycles of Indulgence and repentance. Practice detachment from the world and attachment to God, this is the only solution.

एक अनियंत्रित इच्छा भोग की ओर ले जाती है। आत्म शक्ति, निर्णय और आत्म नियंत्रण की हानि निश्चित रूप से होती है। क्रोध, निराशा और पश्चाताप इसके अनिवार्य परिणाम हैं।

भोग और पश्चाताप के चक्र में फंसा, एक दयनीय अस्तित्व. संसार से बचो और मन ईश्वर से जोड़े रहो, यह ही एक उपचार है ।

An intemperate desire depletes one’s self awareness and distorts mind’s attention, ability and peace. The discretion is lost with memory and intelligence leaving little confidence and control, a loss of self image.

The degradation follows sure with anger, guilt and selfishness, with its tricks of self justifications, leading to immoral and unjust behaviour. A significant spiritual loss.

When the act is over, the mind plays victim with series of repentance. It laments with self criticism, loathing and pity ready to be buried in guilt and shame.

The damage is done and despair sets forth leaving anxiety, worry and depression. A painful existence trying for relief but lost in repeated cycles indulgence and repentance, it cry out in its unbearable misery to the throne of compassion for help and rescue.

The answer comes with right acts of reason, resolution and responsibility. Desire is darkness and God is light. Practice detachment from the world and attachment to God, this is the only solution.

आसक्ति आत्म शक्ति को कम करती है, ध्यान, क्षमता और शांति को विकृत करती है। व्यक्ती विवेक, आत्मविश्वास और आत्मनियंत्रण खो देता है, जिससे आत्म छवि गिर जाती है।

क्रोध, हीनता और स्वार्थ के कारण हानि निश्चित होती है, व्यक्ती बचने के लिए अनैतिक और अन्यायपूर्ण व्यवहार कर जाता है। एक गम्भीर आध्यात्मिक नुकसान होता है। जब कृत्य समाप्त हो जाता है, तो मन पश्चाताप करता है। आत्म आलोचना, आत्म घृणा के साथ अपराधबोध और शर्म में डूब जाता है। बड़ी क्षति होती है और निराशा, चिंता और अवसाद से घिर जाता है। राहत के लिए व्याकुल, एक दर्दनाक अस्तित्व, भोग और पश्चाताप के चक्र में फंसा, मदद और बचाव के लिए करुणा सागर प्रभु से अपने असहनीय दुख में रोता है।

उत्तर सही सोच, संकल्प और जिम्मेदारी के साथ आता है। इच्छा अंधकार है और ईश्वर प्रकाश है। संसार से बचो और मन ईश्वर से जोड़े रहो, यह ही एक उपचार है ।

Be in love to love others.

Be in Love to love others, Happy to give happiness. Love for God is the secret of Life.

प्रेम मगन रहो प्रेम करने के लिए, आनंदित रहो आनंद देने के लिए। परमात्मा के प्रति प्रेम जीवन का रहस्य है।

Love is the secret of secrets – All joy and beauty, power and perfection, order and intelligence, wonder and mystery, all which is good and great is it’s expression.

Love is answer to all the questions. All reasons are completed in love. It’s the cause of causes, the cause less and eternal. It’s your very being.

Love is your beloved happiness. Love is when you don’t want to be big but small, seeks service and not attention.

Love brings all virtue to it’s holder – peace and patience, joy and happiness, care and compassion, goodness and gentleness are it’s offspring.

Love is the greatest force in the universe, it makes you to know the unknowable, God – the source of all existence, knowledge and bliss .

प्रेम रहस्यों का रहस्य है – सभी आनंद और सौंदर्य, शक्ति और पूर्णता, व्यवस्था और बुद्धिमत्ता, आश्चर्य और रहस्य, यह सब जो अच्छा और महान है वह प्रेम की अभिव्यक्ति है।

प्रेम सभी प्रश्नों का उत्तर है। प्रेम में सभी कारण पूर्ण होते हैं। प्रेम कारणों का कारण है, अकारण और शाश्वत है। यह आपका मूल अस्तित्व है।

प्रेम आपके प्रिय का सुख है। प्रेम मे आप बड़े नहीं बल्कि छोटे होना चाहते हैं, सेवा करना चाहते हैं, अपनी बड़ाई नहीं।

प्रेम सभी सद्गुणों क धारक है – शांति और धैर्य, आनंद और खुशी, दया और करुणा, अच्छाई और सौम्यता, यह सब उसकी संतान हैं।

ब्रह्मांड में प्रेम सबसे बड़ी शक्ति है, यह आपको ना जान सकने वाले परमात्मा की प्राप्ति कराता है, वह परमात्मा जो की समस्त सत, चित और आनंद का स्रोत है।

Pleasure is Pain, Indulgence is Ignorance.

Indulgence, Repentance, God, Grace.
भोग, पश्चाताप, कृष्ण, कृपा।

Pleasure is Pain, Indulgence is Ignorance, Lord is Love, Love is Light.
सुख दुख है, भोग अज्ञान है, प्रभु प्रेम हैं , प्रेम प्रकाश है।

Man seek pleasures to alleviate pain not knowing in his ignorance how one leads to another in endless cycles of indulgence and repentance.

When the knowledge dawns after repeated troubles and untold suffering, he understand how all attachments plagues ones peace of mind. That the mind is inherently dysfunctional in forgetfulness of God and it can find rest only when it turn towards him.

मनुष्य अपनी अज्ञानता में दुख को कम करने के लिए सुख की तलाश करता हैं और भोग और पश्चाताप के चक्र में फस जाता हैं। जब अनेक परेशानियों और अनकही पीड़ाओं के बाद उसे ज्ञान होता है, तो वे समझता हैं कि कैसे सभी कामनाएं मानसिक अशांति देती हैं। यह कि ईश्वर की विस्मृति में मन स्वाभाविक रूप से अशांत और अतृप्त रेहता है और केवल तभी आनंद पाता है जब वह ईश्वर के सन्मुख होता है।

Pursuit of Happiness

God is the highest happiness. God is the origin of everything good and great. God is the goal.

ईश्वर सर्वोच्च सुख है। भगवान सबका मूल है जो अच्छा और महान है। ईश्वर ही लक्ष्य है।

Pursuit of Happiness – Why do we move? Why can’t we sit still? What makes us experience repeated pleasures intermingled with pain? Why are we not satisfied for long with possessions, positions and people? What are we after?

Why do we imitate qualities exhibited in nature, of perfection, power, intelligence, beauty, creativity, peace, love, art and music? Are we not searching to be all complete, an eternal companion, are we not seeking God?

आनंद का उद्देश्य – हम क्यों चलते हैं? हम क्यों नहीं बैठ रेहते? हम क्यो विचलित है? दुख रूपी सुखों का हम बार-बार क्यो भोगना चाहते हैं? हम वस्तु, व्यक्ति, पद, प्रतिष्ठा से क्यों संतुष्ट नहीं रहते? आखिर हम क्या चाहते हैं?

हम प्रकृति में प्रदर्शित पूर्णता, बल, बुद्धि, सिद्धि, सौंदर्य, शक्ति, शांति, प्रेम, क्रिया, कला और संगीत के गुणों का अनुकरण क्यों करते हैं? क्या हमे एक सम्पूर्ण और शाश्वत साथी की खोज है, क्या हम भगवान को नहीं ढूंढ रहे?

God is your true beloved and his abode is your true home.

The supreme divine couple Radha Krishna are two toys of love. Their divine abode is made of love and so are their associates and everything else. God is your true beloved and his abode is your true home.

सर्वोच्च दिव्य युगल वर राधा कृष्ण प्रेम के दो खिलौने हैं। उनका दिव्य धाम प्रेम से बना है, उनके दिव्य परिकर और बाकी सब कुछ प्रेम मय है। ईश्वर तुम्हारा सच्चा प्रियतम है और उसका दिव्य धाम ही तुम्हारा सच्चा घर है।

The supreme divine couple Radha Krishna are two toys of love & bliss. They are two for love and one in bliss, for love is bliss.

God is Love, Radha Krishna are all about love and giving, to each other and one another.

Their divine abode is made of love and so are their Angels and everything else, always giving and loving.

Their beauty and being is for God, when they see Radha Krishna coming, flowers change colors, trees ripes with fruits, birds sings and peacocks dance and Angels flock around to serve and love. To love is to be loved. God is your true beloved and his divine abode is your true home.

सर्वोच्च दिव्य युगल वर, राधा कृष्ण प्रेम और आनंद के दो खिलौने हैं। वे प्रेम के लिए दो हैं और आनंद में एक हैं, क्योंकि प्रेम ही आनंद है।

ईश्वर प्रेम है, राधा कृष्ण का स्वरूप प्रेम है, देना देना है, एक दूसरे को और सब को। उनका दिव्य धाम प्रेम से बना है और इसलिए उनके दिव्य परिकर और बाकी सब कुछ, हमेशा देने देने और प्यार करने वाले हैं। उनकी सुंदरता और अस्तित्व भगवान के लिए है, जब वे राधा कृष्ण को आते हुए देखते हैं, फूल रंग बदल ने लगते हैं, पेड़ फलों से लद जाते हैं, पक्षी गीत गाते हैं और मोर नाचते हैं। परिकर सेवा और प्यार करने के लिए चारों ओर से घेर लेते हैं। प्यार करना ही प्यार पाना है।

ईश्वर तुम्हारा सच्चा प्रियतम है और उसका दिव्य धाम ही तुम्हारा सच्चा घर है।

The Soul (I am) doesn’t change.

Your body, mind and intellect changes but not you, the soul (I am), nor does God, the source of the soul. Only God is yours nothing else.

आपका शरीर, मन और बुद्धि बदल जाते है लेकिन आप, आत्मा (मैं हूँ) ,नहीं बदलता और न ही परमात्मा, आत्मा का स्रोत। केवल ईश्वर तुम्हारा है और कुछ नहीं।

World is always in change, so is the body, mind and intellect but the soul (I am) does not change. Nor does God, the source of the soul. You and God are eternal, ever present together in sacred silence, always together, here and now. Only God is yours nothing else.

संसार हमेशा परिवर्तन में है, वैसे ही आपका शरीर, मन और बुद्धि, लेकिन आप, आत्मा (मैं हूँ ), नहीं बदलता, न ही परमात्मा, आत्मा का स्रोत। आप और भगवान शाश्वत हैं, एक साथ हमेशा, असीम शांत स्वरूप, हमेशा एक साथ, यहाँ, यहीं और अभी। केवल ईश्वर तुम्हारा है और कुछ नहीं।