Why fear when you have Hari Har. कैसा डर जब हैं हरि हर।

Worry is an evil in itself and other evils come from it. So, first of all, keep your mind calm and composed by centered on God. Pursue God’s love with faith, peace and ease. Don’t worry, just love Hari.

चिंता अपने आप में एक बुराई है और इससे दूसरी बुराइयाँ भी जन्म लेती हैं। इसलिए सबसे पहले भगवान पर केंद्रित कर मन को शांत और संयमित रखें। भगवद्ग प्रेम का अनुसरण विश्वास, शांति और सहजता से करें। चिंता नहीं, हरि चिंतन करें।

~ Saints Sayings संत वचन
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Introspect to improve. आत्मनिरीक्षण से आत्मकल्याण।

Take some time before bed to quietly reflect on the good things you’ve done during the day and the wrongdoing you’ve done. Express gratitude to God for the positive things, and request forgiveness for the negative ones. Make a request for a peaceful morning so that good things can be multiplied and sins can be rectified.

सोने से पहले कुछ समय निकालकर शांति से उन अच्छी चीजों पर विचार करें जो आपने दिन भर में की हैं और जो गलतियां की हैं। सकारात्मक चीजों के लिए भगवान का आभार व्यक्त करें और नकारात्मक चीजों के लिए क्षमा मांगें। शांतिपूर्ण सुबह के लिए प्रार्थना करें ताकि अच्छी चीजें बढ़ सकें और पापों को सुधारा जा सके।

~ Saints Sayings संत वचन
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God is good, no matter what! भगवान अच्छे हैं, चाहे कुछ भी हो!

Almighty God never does anything that is not beneficial to us. No matter what happens to us, whether it’s illness, loss or some weakness, He does it for our advantage. We tend to grumble, get angry, and do many negative things at times. He cares about our eternal welfare because of His immense love. Because He knows that we are here temporarily and everything will pass soon. After the journey is complete and we are perfected, we will express our gratitude to Him for everything.

सर्वशक्तिमान भगवान कभी भी ऐसा कुछ नहीं करते जो हमारे लिए हितकारी न हो। चाहे हमारे साथ कुछ भी हो, चाहे वह बीमारी हो, क्षति या कोई दोष, वह हमारे भले के लिए ही करते हैं। हम कभी-कभी बड़बड़ाते हैं, क्रोधित होते हैं और कई नकारात्मक चीजें करते हैं। वह अपने असीम प्रेम के कारण हमारे शाश्वत कल्याण का ध्यान रखते हैं। क्योंकि वह जानते हैं कि हम यहाँ अस्थायी रूप से हैं और सब कुछ जल्द ही बीत जाएगा। यह यात्रा पूरी होने पर आत्म कल्याण के बाद, हम हर चीज के लिए उनका आभार व्यक्त करेंगे।

~ Saints Sayings
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You are unworthy yet God loves you. आप अयोग्य हैं फिर भी प्रभु आप से प्रेम करते हैं।

Spirituality is like climbing stairs. You go down when you think ‘I am loved because I am worthy’ or ‘I am not loved because I am unworthy.’ Going up is thinking: ‘I am unworthy, yet I am loved’… This is the truth.

आध्यात्म सीढ़ी चढ़ने जैसा है। आप नीचे ज़ाते हैं जब आप सोचते हैं कि ‘मुझे प्रेम मिलता हैं क्योंकि मैं योग्य हूँ’ या ‘मुझे प्रेम नहीं मिलता क्योंकि मैं अयोग्य हूँ।’ ऊपर जाना सोचना है कि: ‘मैं अयोग्य हूँ फिर भी मुझे प्रेम मिलता है’… यह ही सत्य है।

~ Saint Saying
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The Hammer of God. भगवान का हथौड़ा।

The hard hearted man is softened by suffering, like a hammer from God.

Suffering detaches us from possession, position, people, the things of this world, and so it frees us to attach ourselves to the Spiritual things.

कठोर हृदय मनुष्य दुःख से कोमल हो जाता है, जब भगवान का हथौड़े पड़ता है।

दुःख हमें वस्तु, व्यक्ति, पद/ प्रतिष्ठा, इस संसार की चीज़ों से विरक्त करता है, और इस प्रकार यह हमें आध्यात्मिक चीज़ों से जुड़ने के लिए स्वतंत्र करता है।

~ Saints Sayings
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What is the solution for worries of modern life? आधुनिक जीवन की चिंताओं का समाधान क्या है?

The solution to our unrest is not drugs, alcohol or psychiatric treatment. It will not be cured by scientific pursuit, study of atheistic philosophy or some technical meditation practice.

The problem is that we have lost God as the center of our lives. Once we make our love for God the primary focus of our lives and allow His grace to work through us, no matter what we face in life, we will feel at peace and be happy in His love. All worries will disappear.

This is the purpose of the religious life–to put the God first. The worries of modern life are merely symptoms of our separation from God.

हमारी अशांति का समाधान दवा, शराब या मनोचिकित्सकीय उपचार नहीं है। यह वैज्ञानिक खोज, नास्तिक दर्शन के अध्यन या किसी तकनीकी ध्यान अभ्यास से ठीक नहीं होगा।

समस्या यह है कि हमने अपने जीवन के केंद्र के रूप में ईश्वर को खो दिया है। एक बार जब हम ईश्वर के प्रति अपने प्रेम को अपने जीवन का प्राथमिक केंद्र बना लेते हैं और उनकी कृपा को हमारे माध्यम से काम करने देते हैं, तो चाहे हम जीवन में किसी भी परिस्थिति का सामना करें, हम शांति अनुभव करेंगे और उनके प्रेम में प्रसन्न रहेंगे। सारी चिंताएं गायब हो जायगी।

धार्मिक जीवन का यही उद्देश्य है – ईश्वर को पहले स्थान पर रखना। आधुनिक जीवन की चिंताएँ ईश्वर से हमारे अलगाव के लक्षण मात्र हैं।

~ Saints Sayings
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God is unjust! ईश्वर अन्यायी है!

Don’t make the mistake of stating that God is just. If He were just, you would be in hell. His injustice, which is mercy, love, and forgiveness, is the only thing you can rely on.

यह कहने की गलती मत करो कि ईश्वर न्यायकारी है। यदि वह न्यायकारी होता, तो आप नरक में होते। उसका अन्याय, जो दया, प्रेम और क्षमा है, एकमात्र ऐसी चीज़ है जिस पर आप भरोसा कर सकते हैं।

~ Saint Saying संत वचन

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महापुरुष महात्म्य

भगवान को वेद के द्वारा जानो। यानी उन्हीं की वाणी से उनको जानो।

ना वेद विन्मनुते तं बृहन्तम्।
(शाठ्यायनी उपनिषद् – ४)

वेद उसकी वाणी है-

निःश्वसितमस्य वेदाः। (वेद)

जाकी सहज श्वॉस श्रुति चारी।

तो वेदों से पूछो। हाँ वेद महाराज ! बताओ। तो वेद ने कहा देखो भई मुझको पढ़ कर तुम नहीं समझ सकते-

वेदा ब्रह्मात्मविषयास्त्रिकांडविषया इमे।
(भाग. ११-२१-३५)

वेदव्यास ने भागवत में कहा कि ये ब्रह्म के समान है वेद। जैसे ब्रह्म है ऐसे वेद है। और ब्रह्म क्या है-

इन्द्रियेभ्यः परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान् परः।।

महत: परमव्यक्तमव्यक्तात् पुरुषः परः।
पुरुषान्न परं किञ्चित् सा काष्ठा सा परा गतिः।।
(कठोप. १-३-१०, ११)

यानी इन्द्रियों से परे इन्द्रियों के विषय, उससे परे मन, उससे परे बुद्धि, उससे परे भगवान्। बुद्धि से परे है-

इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः।।
(गीता ३-४२)

राम अतर्क्य बुद्धि मन बानी।

इन्द्रिय मन बुद्धि से परे है-

राम स्वरूप तुम्हार वचन अगोचर बुद्धि पर।
(रा. मा.)

वह बुद्धि से परे है। इसलिये वेद भी बुद्धि से परे है। अलौकिक वाणी है। इस का अर्थ अलौकिक पुरुष ही समझ सकता है। यानी महापुरुष और भगवान्। तो फिर? भगवान् तो मिलेंगे नहीं। किससे पूछें वेद का अर्थ? तो महापुरुषों से पूछो-

उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।।
(कठोप. १-३-१४)

वेद कह रहा है। उठो, जागो मनुष्यो! तुमको मानव-देह मिला है। और “प्राप्य वरान्” महापुरुष के पास जाओ प्रैक्टिकल मैन श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष के पास जिसने भगवान् का साक्षात्कार किया हो, ऐसे महापुरुष के पास जाओ। कान फूंकने वाले के पास नहीं। फिर उनसे समझो वेद का अर्थ। यानी वेद वेद्य भगवान् क्या है? महापुरुष के पास जाओ। ऐसे तत्त्वज्ञान नहीं होगा। और वह महापुरुष दो योग्यताओं से युक्त हो, ऐसा महापुरुष चाहिये।

परीक्ष्य लोकान् कर्मचितान् ब्राह्मणो निर्वेदमायान्नास्त्यकृतः कृतेन।
तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम्।।
(मुण्डको. १-२-१२)

श्रोत्रिय यानी थियोरिटिकल मैन, शास्त्र वेद का पूरा ज्ञान हो और दूसरे को करा सके। इतनी नॉलेज हो और फिर भगवान् को प्राप्त कर चुका हो। ये ब्रह्मनिष्ठ है। श्रोत्रिय भी हो, ब्रह्मनिष्ठ भी हो- ऐसे महापुरुष के पास जाओ फिर समझो वो क्या है ? भगवान् क्या है। ये वेद कह रहा है। अरे गीता तो पढ़ी होगी आपने-

तद्वद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया। उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः।।
(गीता ४-३४)

अर्थात् वो श्रोत्रिय भी हो और ब्रह्मनिष्ठ भी हो ऐसे गुरु के पास जाओ। फिर उनकी सेवा करो, फिर उनके शरणागत हो, फिर उनसे पूछो। “तद्विद्धि प्रणिपातेन” शरणागत हो और परिप्रश्नेन- जिज्ञासु भाव से प्रश्न करो और सेवया- सेवा करके उनको प्रसन्न करो। ये तीन शर्ते हैं। गीता कह रही है। भागवत से समझ लीजिए-

तस्माद् गुरुं प्रपद्येत जिज्ञासुः श्रेय उत्तमम्।
शाब्दे परे च निष्णातं, ब्रह्मण्युपशमाश्रयम्।।
(भा. ११-३-२१)

शाब्दे- ये थ्योरी में। परे ये प्रैक्टिकल भी हो। “निष्णातं ब्रह्मण्युपशमाश्रयम्।” अर्थात शाब्दिक ज्ञानी प्लस अनुभव ज्ञानी दोनों प्रकार का जिसको अनुभव प्राप्त हो ऐसे महापुरुष के पास जाओ। क्यों?

सो बिनु संत न काहू पाई।

बिना गुरु के किसी को भी वो भगवान् नहीं मिले न उनकी भक्ति मिली है। किसी को भी नहीं। वो ब्रह्मा हो, विष्णु हो, शंकर हो, इन्द्र हो, कुबेर हो। कोई हों-

गुरु बिनु होई कि ज्ञान।

ज्ञान नहीं हो सकता। अरे ये तो बड़ी-बड़ी बातें हैं। आप लोगों ने पढ़ा होगा ए.बी.सी.डी.? हाँ पढ़ा है। क ख ग घ? हाँ पढ़ा है। कैसे पढ़ा है? क्या पैदा होते ही आप पढ़ लिये, बोल लिये? नहीं जी वो टीचर आया था एक, उसने पढ़ाया था। क्या पढ़ाया था? उसने कहा देखो ऐसे लिखो ‘क’ हमने लिखा। उन्होंने कहा इसका नाम है ‘क’। क्यों? क्यों इसका नाम ‘क’ है। अरे पागल है ये लड़का। ये क्या पड़ेगा? ऐसे बोल रहा है। क्यों इसका नाम है ‘क’? अरे ! मैं जो कह रहा हूँ उसको याद करो। ऐसी शक्ल होती है क की। और ये नाम होता है इसका क। चुपचाप मान लो। अन्धे बन कर मान लो। और इंग्लिश भाषा वाले तो जानते ही है कितने साइलैन्ट होते हैं। चुपचाप मान लो बोलो मत। लिखो। ये शरणागत हैं आप उस टीचर के। अपनी बद्धि जरा भी नहीं लगाते। नहीं तो नम्बर समाप्त हो जाएंगे फेल हो जायेंगे आप अपनी बुद्धि लगायेंगे तो। बिना गुरु के आप क का ज्ञान नहीं कर सकते, उसके शरणागत होते हैं। डाक्टर के पास आप गये। डाक्टर साहब! हाँ हमारे सिर में बहुत दर्द होता है। और क्या होता है ? लो ये दवा लो। ये दो बूंद दवा एक चम्मच पानी में डालकर पी लेना। डॉक्टर साहब! इतने बड़े शरीर में दो बूंद दवा? आपका दिमाग तो ठीक है? अरे। ये पागल आदमी है। ये दवा नहीं करा सकता। निकालो बाहर इसको। अरे! मैं जो कहता हूँ चुपचाप मान लो। सरैण्डर करो। अपनी बुद्धि का प्रयोग न करो। तो गुरु के बिना महापुरुष के बिना तत्त्वज्ञान नहीं हो सकता। कोई हो-

गुरु बिनु भवनिधि तरे न कोई।
ज्यों बिरंचि शंकर सम होई।।

ब्रह्मा, शंकर कोई हो। अब ये बड़ी प्रॉब्लम आ गई कहाँ ढूँढ़, कैसे ढूँढे?

गुरु का ज्ञान होना कोई साधारण बात तो नहीं है। जैसे कोई एम.ए.का टीचर हो, सर्टिफिकेट वगैरह न दिखावे और कहे मैं एम.ए. हूँ। तुमको कौन सा क्लास पढ़ना है? हाई स्कूल। बैठो मैं पढ़ा दूँ। तो वो एम.ए. वाला ही पढ़ा सकता है हाई स्कूल, इन्टर, बी.ए., एम. ए., ए.बी.सी.डी. न जानने वाला एम.ए. कैसे पढ़ायेगा? असम्भव। तो वो गुरु जिसके शरणागत होकर हम जानना चाहते हैं ब्रह्म को, भगवान् को, पाना चाहते हैं वो सैन्ट परसैन्ट महापुरुष हो। पर हम नहीं जान सकते, हम नहीं तौल सकते, हम नहीं नाप सकते। जैसे भगवान् बुद्धि से परे हैं ऐसे ही महापुरुष भी बुद्धि से परे हैं क्योंकि दोनों एक हैं-

तस्मिंस्तज्जने भेदाभावात्।
(ना. भ. सू. ४१)

नारद जी ने अपने भक्ति-सूत्र में लिखा कि भगवान् और महापुरुष में भेद नहीं होता। वैसे तो महापुरुष को भगवान् से बड़ा माना गया है। लेकिन बड़ा वड़ा कुछ नहीं है वो। जितनी पावर भगवान् के पास है नित्य सत्ता, सर्वज्ञता, अनन्त आनन्द, वो महापुरुष के पास भी है। इसलिये बराबर है। इसीलिये वेद कहता है-

यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ।
तस्यैते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः।।
(श्वेता. ६-२३)

ऐ मनुष्यो! जैसी भक्ति भगवान् के प्रति हो वैसी ही भक्ति सैन्ट परसैन्ट गुरु के प्रति हो।

तो फिर हम जानें कैसे? गुरु को, महापुरुष को । पहिचानें कैसे? और बिना पहिचाने कहीं गलत पाखण्डी महापुरुष क शरण में चले गये तो फिर तो फिर तो-

अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः।
(मुण्डको. १-२-८)

जैसे अन्धे का हाथ अन्धा पकड़ करके चले तो गर्त में गिरेगा। यही हो रहा है अनादिकाल से। देखिये बहुत सावधानी से समझिये। ज्ञान में दो रीज़न बताया तुलसीदास जी ने-

गुरु बिनु होइ कि ज्ञान, ज्ञान कि होई विराग बिनु।

गुरु के बिना ज्ञान नहीं हो सकता प्लस वैराग्य के बिना ज्ञान नहीं हो सकता। क्यों? मान लो आपको सही गुरु मिल गया। हाँ आप शरणागत नहीं हैं। अपनी बुद्धि को गुरु की बुद्धि से जोड़ा नहीं, अपनी बुद्धि प्राइवेट रख रहे हो। अपनी बुद्धि लगा रहे हो बीच बीच में, सैन्ट परसैन्ट सरैण्डर नहीं किया। तो क्या करेगा गुरु?

मूरख हृदय न चेत यदि गुरु मिलहिं विरञ्चि सम।

ब्रह्मा भी गुरु मिले तो उस व्यक्ति का कल्याण नहीं हो सकता जो शरणागत नहीं है, सैन्ट परसैन्ट। बिजली घर में आप चले जायें और सब तारों का हाल न जानें और एक तार जो नंगा है उसको पकड़ लें तो जीरो बटे सौ हो जायेंगे। सैन्ट परसैन्ट शरणागति करनी पड़ेगी। थोड़ी मोड़ी नहीं। तो फिर हम कैसे पहिचानें? और बिना पहिचाने हमारा काम बनेगा नहीं और पहिचानने का मतलब, मानना हृदय से- उसको श्रद्धा कहते हैं- श्रद्धा। सबसे पहली चीज़ श्रद्धा है। उसके बाद महापुरुष का मिलन, उसके बाद सत्संग। सत् माने महापुरुष, संग माने मन का सरैण्डर, मन, बुद्धि उसको दे दिया। अब वह जैसा कहेगा वैसा ही करेंगे।

कितना बड़ा पापी था वाल्मीकि, कि राम नहीं कह सका। क्यों जी मरा कहा? हाँ। तो क्यों मरा में भी तो वही म और र दो अक्षर हैं। अगर कोई ‘म’ और रा कह सकता है तो राम क्यों नहीं कह सकता? सोचा, सोचा कभी आप लोगों ने बुद्धि से? ये कैसे पॉसिबिल है? या तो गूँगा हो या तो ‘म’ बोल ही न सके। ‘रा’ बोल ही न सके। मरा मरा मरा तो खूब बोल रहा है और राम राम क्यों नहीं बोल सकता? इतने अधिक उसके पाप थे कि राम नहीं बोल सका। (ध्यान दो।) लेकिन गुरु की शरणागति कितनी थी? आप सोच नहीं सकते। मरा मरा कहते रहना जब तक हम लौट कर न आवें। चुप। आप लोगों से कोई गुरु ऐसा कहे, ‘आप कब लौट कर आयेंगे?’ तुरन्त क्वेश्चन करेंगे। आप कहते हैं जब तक लौट कर न आवे तो कब लौट कर आयेंगे आप बताइये तो हमको। हम ऐसे ही पागल की तरह मरा मरा करते रहें? बाल्मीकि ने कुछ नहीं पूछा। कम्पलीट सरैण्डर। और अपना साधना करता रहा। गुरु हैल्प करते रहे। और महापुरुष बन कर निकला बल्मीक से- ये शरणागति है। हम लोग संसार के छल कपट वाले एटमॉसफियर में छल कपट से ऐसे भर गये हैं, हमारी बुद्धि में वह भर गया है कि भगवान् आवें तो, महापुरुष मिलें तो, ऐसा है कि हम भी तो कुछ समझते हैं। अरे! तुम अपने आप को तो समझ नहीं सके । महापुरुष और भगवान् को क्या समझोगे?

आप किसी से पूछो- आपका परिचय? जी मैं इलाहाबाद का कलैक्टर हूँ। मैं उपाधि नहीं पूछ रहा हूँ, मैं आपको पूछ रहा हूँ। जी जी मेरा नाम नन्दकिशोर है। नाम? अरे नाम नहीं, आपको पूछ रहा हूँ। अरे ! मैं मनुष्य हूँ। मनुष्य? ये तो आपकी बॉडी है, शरीर है। मैं आपको पूछ रहा हूँ। क्या अजीब आदमी है। और क्या हैं आप? आप अपने आप को नहीं जानते तो आपको पागलखाने में रहना चाहिये। बाहर कैसे हैं? जो अपने को न पहिचाने उसको लोग पागलखाने में रख देते हैं। बन्द कर देते हैं, तुम अपने आप को नहीं जानते और बहुत कुछ जानने का दावा करते हो, महापुरुषों को पहिचान लेते हैं हम। अरे महापुरुषों को केवल भगवान् और महापुरुष पहिचान सकता है-

भगवद रसिक रसिक की बातें रसिक बिना कोउ समुझि सकै न।

कृष्ण प्रेम जार चित्ते करे उदय। तार वाक्य क्रिया मुद्रा विज्ञे न बुझय।।

गौरांग महाप्रभु कहते हैं कि जिसके हृदय में श्री कृष्ण प्रेम प्रकट हो जाय, महापुरुष हो जाय जो, उसके वाक्य, उसकी क्रिया, उसके एक्शन कोई नहीं समझ सकता। विज्ञे न बुझय।

अन्तर्वाणीभिरप्यस्य मुद्रा सुश्रु सुदुर्गम।

जो भीतर से ज्ञान का भण्डार भरे हैं वह भी नहीं जान सकते रसिकों को। तुम क्या जानोगे?

देखो! तुम अपने आप को पहले समझो। तुम क्या करते हो संसार में? अन्दर गड़बड़ बाहर ठीक। अन्दर से आप नहीं चाहते ये आदमी आवे हमारे घर में रात को १२ बजे, हमारी नींद खराब करे। लेकिन जैसे ही वह आदमी आता है हैलो! श्रीवास्तव जी! अरे! अरे! भई तुमको तो हम कब से परख रहे हैं। ये क्या है? धोखा। ४२०, छल कपट। और ऊपर से बड़े सुन्दर शब्द। बड़ा मीठा स्वर। ये आप लोग करते हैं न? हाँ करते हैं। इसी को उल्टा करते हैं संत लोग। अन्दर बिल्कुल ठीक और बाहर उल्टा। अन्दर मायातीत, और बाहर माया का कार्य करते हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह, भयंकर करोड़ों मर्डर १, २, ४ मर्डर नहीं। ये हनुमान जी महापुरुषों के दादा। ये अर्जुन जी महापुरुषों के दादा। क्यों जी हम किसी को गाली देते हैं तो पहले गुस्सा आता है। पहले गुस्सा आएगा मन में तब तो गाली निकलेगी। और झापड़ लगाते हैं और गुस्सा आता है। और मर्डर कर देने में तो गुस्से में पागल हो जायेंगे तभी तो मर्डर करेंगे। और हजारों मर्डर किया है अर्जुन ने। हनुमान जी ने लंका ही जला दिया। लेकिन महापुरुष है। उनका कहीं द्वैत भाव है ही नहीं। वो तो सर्वत्र श्रीकृष्ण को देख रहे हैं अर्जुन जी-

तस्मात् सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युद्धय च।
(गीता ८-७)

निरन्तर मेरा स्मरण करना अर्जुन। सर्वेषु कालेषु। एक बटे सौ सैकेण्ड को भी मन मुझसे पृथक् न हो।

त्रिभुवनविभव हेतवेऽप्य कुण्ठस्मृतिरजितात्म सुरादिभिर्विमृग्यात्।
न चलति भगवत्पदारविन्दाल्लवनिमिषार्धमपि यः स वैष्णवाग्र्यः।।
(भागवत ११-२-५३)

एक सैकेण्ड को भी भगवान् से मन न हटे वो महापुरुष है। तो निरन्तर भगवान् में मन है अर्जुन का “सर्वेषु कालेषु” और युद्ध कर रहा है। मर्डर हो रहा है।

उमा जे राम चरन रत विगत काम मद क्रोध।
निज प्रभुमय देखहिं जगत का सन करहिं विरोध।

क्रोध-माया का विकार है। माया तो समाप्त हो गई हनुमान जी की। भगवान् के वो तो पार्षद हैं कभी उनके ऊपर माया नहीं आई थी। लेकिन ये सर्वत्र सीता राम को देखते हुये भी इतने मर्डर किये, ब्राह्मणों के, रावण के खानदान के। भगवान् ने अपनी डायरी में लिखा ही नहीं। क्यों? भगवान् कहते हैं- कर्म उसे कहते हैं जिसमें मन का अटैचमैन्ट हो। राग हो, द्वेष हो। ये दो में एक हो। या तो राग हो या तो द्वेष हो। उसका मन तो मेरे पास था। इसलिये मारने में शत्रुओं के प्रति न राग था, न द्वेष था। इसलिये वह कर्म नहीं है। वह जीरो में गुणा करो एक करोड़ से तो भी जीरो आयेगा।

अरे! देखो, अब होली आई है, कितने मजाक होते हैं होली पर और कितनी डिग्रियाँ मिलती हैं बड़े-बड़े काबिलों को- मूर्ख शिरोमणि वगैरह, वगैरह। और सब विभोर हो के हँसते रहते हैं। क्योंकि मंशा खराब नहीं है। अन्दर गड़बड़ नहीं है। इसलिये सब हँस देते हैं। ससुराल में कितनी गालियाँ (दूल्हे को) पहले मिला करती थीं बाकायदा ढोल बजा के और वो बैठ के धीरे-धीरे खा रहा है, चटनी चाट रहा और गाओ। क्योंकि दुर्भावना नहीं है। अन्दर भी ठीक बाहर भी ठीक। तो महापुरुषों का जो अन्दर गड़बड़ नहीं है और बाहर गड़बड़ दीखता है तो हम लोग तो बाहर वाले को देखकर ही निर्णय करते हैं। हमारी आदत है। अभ्यास है। अन्तर्यामी तो नहीं हैं हम लोग, अन्दर घुस कर देखें। ये हनुमान महापुरुष है कि नहीं है। ये अर्जुन महापुरुष है कि नहीं है। तो महापुरुषों को पहचानना ये असम्भव है जैसे भगवान् को जानना असम्भव है।

मां तु वेद न कश्चन।। (गीता ७-२६)

न च तस्यास्ति वेत्ता तमाहुरग्र्यं पुरुषं महान्तम्।।
(श्वेता. ३-१९)

वेद में भगवान् स्वयं कहते हैं- मुझे कोई नहीं जान सकता। और वही महापुरुष भगवान् एक ही शक्ति से युक्त हैं उसका नाम है योगमाया। वह “कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्तुं समर्थ” है। जो चाहे करे, जो चाहे न करे, जो चाहे उल्टा कर दे। ये योगमाया की शक्ति है। भगवान् की भगवत्ता भुला देती है। और तो क्या कहा जाए। भगवान् भूल जाता है-

प्रभु तरुतर कपि डार पर।

भगवान् भूल गये कि मैं स्वामी हूँ और ये बन्दर वन्दर जितने हैं ये हमारे नौकर हैं, दास हैं। वे ऊपर बैठे हैं पेड़ पर। भगवान् नीचे बैठे हैं। अब भगवान् को यह पता हो कि मैं भगवान् हूँ तभी तो डांटें उनको। और महापुरुषों को भी भुला दिया योगमाया ने कि मैं महापुरुष हूँ। हनुमान जी भी बैठे हैं डाल के ऊपर । उनको भी नहीं दिमाग में आ रहा है। जो “ज्ञानिनां अग्रगण्यम्” हैं। तो महापुरुषों को पहचानना समझना, असम्भव है। तो फिर क्या करें? क्या इलाज है? बस रोकर भगवान् से प्रार्थना करें कि हमको किसी महापुरुष से मिला दीजिए-

बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता।

जब द्रवइ दीन दयाल राघव। साधु संगति पाइये।

जब भगवान् कृपा करेंगे तो वो किसी महापुरुष को किसी बहाने मिला देंगे। लेकिन महापुरुष के मिलने पर भी शर्त वही है कि श्रद्धा हो आपकी पूर्ण।

गुरु वेदान्त वाक्येषु दृढ़ो विश्वासः श्रद्धा। (शंकराचार्य)

श्रृद्धा की परिभाषा है कि गुरु और वेद शास्त्र के ऊपर पूर्ण विश्वास उनकी आज्ञा का पालन हो सैन्ट परसेंट।

श्रद्धा शब्द कहे विश्वास सुदृढ़ निश्चय।
(गौरांग महाप्रभु)

गौरांग महाप्रभु भी उसकी यही परिभाषा कर रहे हैं और यह पूर्ण विश्वास कब होगा? जब वैराग्य होगा- माने संसार में सुख नहीं है- यह डिसीजन सैन्ट परसैन्ट हो जाए तब फिर उनमें ही सुख है। दो ही चीज तो हैं, दो ही दिशा तो हैं, एक भगवान्, एक माया- एक तरफ तो जाएगा और तीसरा तो जीव ही है। वह दो तरफ में एक तरफ तो जाएगा-

द्विविधो भूत सर्गोऽयं दैव आसुर एव च।
विष्णु भक्ति परो दैव आसुरस्तद्विपर्ययः।।
(अग्नि पु.)

एक भगवान् का एरिया, एक माया का एरिया और जाने वाला जीव का मन। आप लोग कभी कभी ये भी बोल देते हैं कि हमारा तो मन न भगवान् में लगता है न संसार में लगता है। कहाँ है? पैंडिंग में है? उसको लॉक कर दिया है कहीं? बकवास करते हो। अगर भगवान् में नहीं है तो संसार में है, है, है। पक्का प्रमाण। दो ही क्षेत्र तो हैं।

~ जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज

Do you want peace or you want drama? आप शांति चाहते हैं या नाटक?

When you are situated in the self and connected to God, you stay calm & collected, in love & grace. When you lose touch with yourself and forgetful of God, you lose yourself in the situations of the world, restless & disoriented, empty & disconnected. Do you want peace or do you want drama? Do you want God or do you want the world? Choice is yours!

जब आत्मा में स्थिति होती है और परमात्मा की स्मृति होती है, तो आप शांत और संयमित रहते हैं, प्रेम और कृपा में रहते हैं। जब आप की स्व में स्थिति नहीं होती और ईश्वर की विस्मृति हो जाती है, तो आप संसार की परिस्थितियों में खुद को खो देते हैं, बेचैन और भ्रमित, अपूर्ण और अशांत। आप शांति चाहते हैं या नाटक? ईश्वर चाहते हैं या संसार? निर्णय आपका!

~ राधाकृष्ण दास

भगवान सर्वव्यापक हैं

आपको बताया गया कि भगवान जड़ चेतन सर्वत्र व्यापक हैं और जीवात्मा खाली एक शरीर में व्यापक है। सृष्टि स्रजन, संरक्षण के लिये भगवान् परमाणु परमाणु में व्याप्त हैं। भगवान हर एक जीवात्मा के अंतः करण में भी रहते हैं, परमात्मा स्वरूप में, उसके सब कर्मों का हिसाब करता हैं, फल देते हैं।

हरि ब्यापक सर्बत्र समाना।
प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना॥
~ रामायण

भगवान् संसार की रचना करते हैं, उसका पालन करते हैं और अंत में उसका प्रलय कर देते हैं अर्थात् यह सम्पूर्ण संसार ईश्वर से प्रकट हुआ है, भगवान द्वारा इसका पालन किया जाता है और अंत में फिर यह सम्पूर्ण संसार ईश्वर में समा जाता है। संसार का नियामक भगवान है। इस संसार के प्रत्येक परमाणु में भगवान व्याप्त है, अतः भगवान सर्वव्यापक है। सृष्टि का पालन एवं उसकी रक्षा करने के लिये भगवान् संसार के प्रत्येक परमाणु में व्याप्त होते हैं।

कुछ लोग कहते हैं कि घड़ी अपने आप चलती है ऐसे ही सृष्टि भी अपने आप है, किन्तु उन्हें सोचना चाहिये कि घड़ी पूर्व में नहीं चलती थी जब किसी ने उसे बनाया तब चलने लगी एवं पश्चात् भी नहीं चलेगी अर्थात् नष्ट हो जायगी, तब फिर बनानी पड़ेगी। इसके अतिरिक्त यह भी विचारणीय है कि घड़ी बनाने वाले ने घड़ी तो बनायी है किन्तु उस घड़ी के लौह परमाणुओं की क्रिया को घड़ीसाज नहीं जानता अर्थात् उस पर कन्ट्रोल नहीं कर सकता। उसे कन्ट्रोल करने वाला ईश्वर है। अतएव भगवान को सर्वव्यापक होना पड़ता है अन्यथा वे परमाणु ठीक रूप से काम नहीं कर सकते।

यहाँ पर एक प्रश्न यह भी उत्पन्न होता है कि यदि भगवान् सर्वव्यापक है तो फिर उसका हमें अनुभव क्यों नहीं होता। रसगुल्ला खाते हैं, चीनी खाते हैं तो हमें उसकी मिठास का अनुभव होता है फिर प्रत्येक परमाणु में व्याप्त आनन्दमय भगवान् के आनन्द का हमें अनुभव क्यों नहीं होता? दूध पीने में दूध का अनुभव होता है, विष खाने में विष का अनुभव होता है, उसी प्रकार भगवान् का भी अनुभव हमें होना चाहिये। आप लोगों का दावा है कि अनुभव में आने वाली वस्तु ही आप मान सकते हैं। अनुभव प्रमाण ही आपको मान्य है। किन्तु अनुभव प्रमाण सबसे निर्बल प्रमाण है। पीलिया रोग के रोगी को सर्वत्र पीला ही पीला दीखता है किन्तु उसका अनुभव भ्रामक है। साँप के काटे हुए व्यक्ति को नीम मीठा लगता है। इसी प्रकार भव-रोग से ग्रस्त जीव को किसी भी वस्तु का अनुभव भ्रामक ही होता है। एक चींटी चीनी के पहाड़ पर चक्कर काटकर लौटी और उससे पूछा गया तो उसने अनुभव यह बताया कि यह पर्वत नमकीन था। बड़ा आश्चर्य हुआ किन्तु जब जाँच हुई तो पता चला कि चींटी के मुख में नमक की डली रखी हुई थी। अस्तु, सर्वत्र शक्कर के ढेर पर भ्रमण करते हुए भी उसे अपने मुख में रखे हुए नमक का ही स्वाद अनुभव में आया। उसी प्रकार जिस इन्द्रिय, मन, बुद्धि से हम संसार को ग्रहण करते हैं वे सब प्राकृत, मायिक, त्रिगुणात्मक एवं सदोष हैं और भगवान् प्रकृत्यतीत, दिव्य, गुणातीत एवं दोषरहित है, फिर हम इनसे उसके ठीक स्वरूप को किस प्रकार से पहचान सकते हैं? जब तक ये दिव्य न हो जायें, इनका अनुभव सही कदापि नहीं हो सकता।

हम लोग छोटी सी चीज को पाने के लिये पहले सोचते हैं, फिर प्लानिंग किया, फिर प्रैक्टिस किया, फिर भी वो काम पूरा हो न हो, डाउट है। लेकिन भगवान् के एरिया में ये बात नहीं। भगवान् ने सोचा कि ये संसार बन गया और उन्होंने ऐसी शक्ति हमको दी है अपने आपसे मिलने के लिये कि बच्चों! तुम भी सोचो, हम मिल जायेंगे। ऐं सोचने से मिल जाओगे? हाँ।

   मामनुस्मरतश्र्चित्तं मय्येव प्रविलीयते।
          ( भाग.११-१४-२७ )

केवल सोचो मन से कि वो मेरे हैं, वो मेरे हैं, वो मेरे हैं, वो मेरे अन्दर में हैं, सर्वव्यापक भी हैं, वे गोलोक में भी हैं। ये फेथ(Faith), विश्वास, इसका रिवीजन(Revision)। इसी का नाम साधना। बस सोचो।

भगवान् की इतनी बड़ी कृपा है कि वे कहते हैं कि मैं सर्वव्यापक हूँ, तू इसको मानता नहीं है, मैं गोलोक में रहता हूँ, वहां तुम आ नहीं सकते, मैं तुम्हारे अंतःकरण में तुम्हारे साथ बैठा हूँ इसका तुम्हे ज्ञान नहीं है, इसलिए लो, ‘ मैं ‘ अपने नाम में अपने आप को बैठा देता हूँ। ” अपने नाम में ‘मैं’ मूर्तिमान बैठा हुआ हूँ।”

जिस दिन यह बात तुम्हारे मन में बैठ जाएगी, तुम्हें यह दृढ विश्वास हो जाएगा कि भगवान् और भगवान् का नाम एक है। दोनों में एक जैसी शक्तियाँ हैं, एक से गुण हैं, उस दिन फिर एक नाम भी जब लोगे, एक बार भी ‘राधे’ कहोगे तो कहा नहीं जायेगा, वाणी रुक जाएगी, मन डूब जायेगा, कंठ गद्गद हो जायेगा, फिर भगवत्प्राप्ति में क्या देर होगी। उसी क्षण गुरुकृपा एवं भगवत्प्राप्ति हो जाएगी। मेरे केवल इसी वचन पर विश्वास कर लो, स्वर्ण अक्षरों में लिख लो।

~ जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज

सर्वान्तर्यामी और अन्तर्यामी दोनों के बीच में क्या अंतर होता है ?

अन्तर्यामी जो होता है वो हर एक महापुरुष होता है। जिसने भगवत्प्राप्ति की हो वो सब अन्तर्यामी हो जाते हैं और सर्वान्तर्यामी केवल भगवान् है। वो इसलिये कि सभी जीवों के अंतः करण में वह एक – एक रूप से रहता है। ऐसा नहीं कि अलग गोलोक में बैठकर सर्वान्तर्यामी है, ऐसा नहीं। हर एक जीव के अंतः करण में एक भगवान् का रूप सदा रहता है। स्वर्ग जाय, नरक जाय, मृत्यु लोक में जाय चाहे जहाँ रहे वो साथ रहता है हमेशा और वो सबके आइडियाज, पुराने जन्मों के कार्य का हिसाब सब करता है। धन्धा उसका यही है। वो सर्वान्तर्यामी है और सर्वव्यापक है और महापुरुष अन्तर्यामी है जिसके मन की बात जब जानना चाहे जान सकता है। लेकिन सदा नहीं जानता रहता। यह काम भगवान् का है क्योंकि वो कर्म फल देना है उनको, तो उनको हमेशा जानना पड़ेगा।

भगवान् सर्वव्यापक हैं और आत्मा शरीर व्यापक। ये जीवात्मा खाली एक शरीर में है और भगवान् जड़ चेतन सर्वत्र व्यापक है।

~ जगद्गुरू श्री कृपालु जी महाराज

राम कौन हैं?

राम तत्व पर विचार करना है। राम कौन हैं? पहले वेदों में चलिये। राम शब्द का अर्थ स्वयं वेद कर रहा है।

रमंते योगिनोनन्ते नित्यानंद चिदात्मनि।
इति राम पदेनाऽसौ परब्रह्मभिधीयते॥
[राम तापनी.]

जिसमें योगी लोग आत्माराम पूर्णकाम परमनिष्काम परमहंस लोग रमण करते हैं, वे परब्रह्म श्री राम हैं। फिर वेद कहता है।

भद्रो भद्रया सचमान आगात्। स्वसारं जारो अभ्येति पश्चात् सुप्रेकेतैर्द्युभिरग्निर्वितिष्ठन् रुशद्भिर्वर्णैरभिराम- मस्थात्। अर्वाची सुभगे भवसीते। वंदामहे त्वा यथानः सुभगा-ससि यथानः सुफलाससि।
[ऋग्वेद]

ऋग्वेद कह रहा है। फिर वेद कहता है।

यो ह वै श्री राम चन्द्रः स भगवान्।
[ राम तापनी.]

ये जो अयोध्या के श्री राम चन्द्र हैं ये भगवान् हैं। भगवान्। ये भगवान् क्या होता है।

ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यश: श्रियः।
ज्ञानवैराग्य योश्चैव षण्णां भग इतीरणा॥

अनंत मात्रा के षडैश्वर्य जिसमें हों उसको भगवान् कहते हैं। उस भगवान् के तीन स्वरूप होते हैं। भगवान् तीन नहीं होते। भगवान् का अभिन्न तीन स्वरूप।

वदंति तत्तत्वविदस्तत्त्वं यज्ज्ञानमद्वयम्।
ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते॥
[भागवत्]

वेदव्यास कह रहे हैं कि भगवान् का एक रूप होता है परमात्मा, एक रूप होता है ब्रह्म। ये तीन रूप होते हैं, जिसमें ब्रह्म सबसे नीचे है। निराकार, निर्गुण निर्विशेष ब्रह्म। जिसके उपासक ज्ञानी लोग होते हैं। उस ब्रह्म में शक्तियाँ तो सब हैं, लेकिन प्रकट नहीं होती। सत्ता मात्र है वो। शंकराचार्य आदि ने उसका डिटेल में निरूपण किया है कि-

उदासीन स्तब्धः सततमगुणः संग रहितः।

वो उदासीन है ब्रह्म, कुछ नहीं करता।

अदृष्टमव्यवहार्यमग्राह्यमलक्षणमचिन्त्यमव्यपदेश्यमेकात्म प्रत्यय सारं।

ब्रह्म है। सब जगह ‘आ’ लगा दो। अदृष्ट है वह दिखायी नहीं पड़ता, सुनाई नहीं पड़ता, सूंघने में नहीं आता, रस लेने में नहीं आता, स्पर्श करने में नहीं आता, सोचने में नहीं आता, निश्चय करने में नहीं आता, ऐसा ब्रह्म बेकार है। बिचारा, हमारे किस काम का। इसके आगे दूसरा स्वरूप है परमात्मा का। इसमें आकार है और ‘भग’ का सब ऐश्वर्य है। शक्तियां भी प्रकट होती हैं, लेकिन पूरी-पूरी नहीं। और तीसरा है भगवान् शब्द, जिसके ये दोनों रूप हैं वह भगवान्। सगुण साकार भगवान् राम कृष्ण। इनमें सम्पूर्ण शक्तियों का प्राकट्य होता है, विकास होता है। ये सर्वदृष्टा, सर्वनियन्ता, सर्वसाक्षी, सर्वसुहृत, सर्वेश्वर, सर्वशक्तिमान हैं। अनंत गुण हैं। भले ही कोई पृथ्वी के रज कणों को गिन ले किन्तु राघवेन्द्र सरकार के गुणों को नहीं गिन सकता, अनंत।

यो वा अनंतस्य गुणानन्तान्।
[भागवत्]

अगर कोई कहे मैं गिन लूंगा, तो उसका ढीला है, आगरा भेज दो। नहीं गिन सकता। भगवान् राम की कोई चीज सीमित नहीं। उनके नाम अनंत, रूप अनंत, गुण अनंत, लीला अनंत, धाम अनंत, जन अनंत, गुण अनंत, सब अनंत-अनंत मात्रा का है, और ऐसा अनंत कि अनंत माइनस अनंत बराबर अनंत।

पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।

पूर्ण से पूर्ण निकालो फिर भी पूर्ण बचे, ऐसे पूर्णतम पुरुषोत्तम ब्रह्म राम हैं। तो वेद कहता है- स भगवान्। फिर कहता है वेद-

रामत्वं परमात्मासि सच्चिदानंद विग्रहः।

हे राम तुम परमात्मा हो। यानी भगवान् जो है वो परमात्मा भी है, ब्रह्म भी है। उसी के दोनों रूप हैं। जैसे-

चयस्त्विषामित्यवधारितं पुरा, ततः शरीरीतिविभा विताकृतिम्।
विभुर्विभक्तावयवं पुमानिति- क्रमादमुन्नारद इत्यबोधि सः॥

जब नारद जी भगवान् श्री कृष्ण के सामने आ रहे थे बैकुंठ से, तो पहले जनता ने देखा कोई लाइट आ रही है नीचे को, प्रकाश पुंज, और समीप में आये तो लोगों ने देखा कि इसमें कोई शक्ल भी मनुष्य की प्रकाश के साथ- साथ, और जब नीचे पृथ्वी के पास आ गये, अरे ये तो नारद जी हैं, अच्छा अच्छा-अच्छा। ऐसे ही ब्रह्म का स्वरूप लाइट का, परमात्मा का स्वरूप बीच वाला और भगवान् जो नारद पृथ्वी पर आ गये वो। जिसमें सब कुछ प्रत्यक्ष है, जैसे हम आपके सामने बैठे हैं। ऐसे हमारे राम कृष्ण हमारे सामने बैठते हैं, बोलते हैं, सब इन्द्रियों से हम उनको ग्रहण करते हैं। जैसे संसार को ग्रहण कर रहे हैं, इस प्रकार। तो वेद कहता है।

राम त्वं परमात्मासि सच्चिदानंद विग्रहः।

और एक वैलक्षण्य है भगवान् राम के शरीर में, कि वो स्वयं सच्चिदानन्द ब्रह्म हैं, और उनका शरीर भी वही है सच्चिदानन्द ब्रह्म। देखिये हम लोगों के एक तो शरीर है, एक हम हैं आत्मा ऐसे ही देवताओं का भी है, सबका ऐसे ही है अनंत कोटि ब्रह्माण्ड में। एक देह एक देही। लेकिन भगवान् राम का देह और देही दोनों एक हैं।

देह देहि भिदा चैवनेश्वरे विद्यते क्वचित्॥

ये भगवान् में नहीं होता। वो सच्चिदानन्द ब्रह्म शरीर और
आनंदमात्र करपाद मुखोदरादि:।

सब आनंद ब्रह्म आनंद ब्रह्म। और कुछ है ही नहीं, ये देखने का है शरीर। हाथ, पैर सब दिखायी पड़ेंगे आपको लेकिन वो हाड़ माँस नहीं। वो प्राकृत नहीं। वो सच्चिदानंद विग्रह है। शरीर ही सच्चिदानंद है, और शरीरी भी सच्चिदानंद है। ऐसा उनका शरीर है इसलिये।

चिदानंद मय देह तुम्हारी विगत विकार जानि अधिकारी।
ब्रह्म सच्चिदानंद घन रघुनायक जहँ भूप।
सोइ सच्चिदानंद घन रामा।

देखिये एक शब्द जोड़ रहे हैं इसमें ‘घन’ ये क्या बलाय है। सच्चिदानंद हो गया पर्याप्त है। ‘घन’ और जोड़ दिया। देखिये ये जो निराकार ब्रह्म है इसका नाम है सत्, चित्, आनंद। सत् से परे चित्, चित् से परे आनंद। तो चाहे सच्चिदानंद कहो, चाहे चिदानंद कहो और चाहे खाली आनंद कहो। वेद में कहा गया।

आनंदो ब्रह्मेति व्यजानात्। आनंदाद्धयेव खल्विमानि भूतानि जायन्ते। आनन्देन जातानि जीवंति। आनन्दं प्रयन्त्यभिसंविशंति।

आनंद ही ब्रह्म है। ब्रह्म में आनंद है ऐसा नहीं। आनंद ही ब्रह्म है।

आनंद एवाधस्तात् आनंद उपरिष्टात् आनंद: पुरस्तात् आनंदः पश्चात् आनंद उत्तरतः आनंद दक्षिणत: आनंद एवेद्ं सर्वं।

जिसके ऊपर आनंद, नीचे आनंद, दक्षिण आनंद, उत्तर आनंद, पूर्व आनंद, पश्चिम आनंद, अन्दर आनंद, बाहर आनंद, आनंद ही आनंद लबालब भरा है वह आनंद। ब्रह्म उसी का नाम, उसी का नाम राम। आनंद निराकार ब्रह्म, और निराकार ब्रह्म का भी सार तत्व, वो आनंद घन है अथवा आनंद कन्द है। ये दो शब्द का प्रयोग हुआ है शास्त्रों में राम कृष्ण के लिये। आनंद कंद या आनंद घन। तुलसीदास जी घन का प्रयोग कर रहे हैं। हमारे राम आनंद ही नही हैं। आनंद घन हैं। आनंद का भी सारभूत तत्व निकाल कर वो शरीर बना है।

राम एव परं तत्वम्।
[राम रहस्योपनिषदत्]

तो वेदों में सर्वत्र राम तत्व का निरूपण किया गया है। राम शब्द का अर्थ भी हुआ है। मैंने एक बताया आपको।

रमंते योगिनोनन्ते।

दूसरा अर्थ भी है।

रा शब्दो विश्व वचनो मश्चापीश्वर वाचकः।
विश्वानामीश्वरो यो हि तेन रामः प्रकीर्तितः।।

‘रा’ माने संसार, विश्व और ‘म’ माने ईश्वर। शासन करने वाला। सम्पूर्ण विश्व का शासन करने वाला, वो राम। और कोई शासन नहीं करता, सब उनसे शास्य हैं। सब उनसे नियम्य हैं। वो नियामक है, शासक है। तीन काम करते हैं राम। ब्रह्मा जी ने कहा वाल्मीकि रामायण में।

कर्ता सर्वस्य लोकस्य।

अनंत कोटि ब्रह्माण्ड को राम प्रकट करते हैं। प्रकट करते हैं? हाँ। और कोई नहीं कर सकता? न। तो किसी महापुरुष को ये शक्ति भगवान् ने नहीं दी, और सब दे दिया, सत्य, ज्ञान, आनंद।

अपहृत पाप्मा विजरो विमृत्युर्विशोकोऽविजिघत्सोऽपिपासः सत्यकामः सत्यसंकल्पः।

ये आठ गुण हैं । वेद के अनुसार ये सब दे देते हैं भक्त को, लेकिन सृष्टि करने की बात अपने हाथ में रखते हैं।

जगद् व्यापार वर्जम्।

वेदान्त का सूत्र कहता है। सृष्टि का कार्य भगवान् स्वयं करते हैं। इसलिए जो ब्रह्म की परिभाषा किया वेद ने, तो लिखा-

यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते। येन जातानि जीवंति यत्प्रयन्त्यभिसंविशंति। तद्विजिज्ञासस्व।

जिससे संसार उत्पन्न हो जिससे रक्षित हो, जिसमें लय हो। ये तीन काम जो कोई करे उसका नाम ब्रह्म राम। ये काम और कोई नहीं करता। महापुरुष लोग, दिव्यानंद, दिव्य प्रेम सब कुछ उनके पास है, लेकिन सृष्टि का काम भगवान स्वयं करते हैं।

भोग मात्र साम्य लिंगाच्च
[ ब्र. सू.]

ब्रह्मानन्द, प्रेमानंद, परमानंद, दिव्यानंद, अनिर्वचनीयानंद अपरिमेयानंद, अपौरुषेयानंद जो भगवान सम्बन्धी है वो देते हैं सब भक्तों को शरणागत को। सृष्टि का कार्य नहीं देते। इसलिये ब्रह्मा ने कहा-

कर्ता सर्वस्य लोकस्य।
अन्ते मध्ये तथा चाऽदौ।

इस संसार के प्रारम्भ में जो था, मध्य में जो है अन्त में जो रहेगा वो राम ब्रह्म, ये और कोई नहीं।

~ जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज

एक रुपय कमाना कठिन है, भगवान को पाना सरल है!

क्या बालक के गुण देखकर माँ दूध पिलाती है?
कम लायक बेटे को खाना नहीं देतीं, पानी नहीं देती?
एक रुपय कमाना कठिन है, भगवान को पाना सरल है!

बिगड़ी जन्म अनेक की अभी सुधरे आज,
होए राम को नाम भजु, तुलसी तजु कुसमाज।

सब क्यों भाग रहे हैं? Why is everyone running?

संसार में सब आनन्द पाने के लिये भाग रहे हैं, उसी के लिये प्रतिक्षण कर्म कर रहे हैं, लेकिन एरिया गलत है। जहाँ घी नहीं है, वहाँ मंथन कर रहे हैं। जहाँ वो वस्तु नहीं है, वहाँ ढूँढ़ रहे हैं। जहाँ उसकी उलटी वस्तु है दुःख, अशान्ति, अतृप्ति, उसकी खोज कर रहे हैं। असली आनंद तो भगवान में हैं!

रसो वै सः। रसं ह्येवायं लब्ध्वा आनन्दी भवति।
~ तैत्तिरीयोपनिषत् 2-7-2

भगवान आनन्द हैं, रस हैं। जब प्राणी इस आनन्द को, इस रस को प्राप्त कर लेता है तो वह स्वयं आनन्दमय हो जाता है।

#जगद्गुरु_श्री_कृपालु_जी_महाराज

Everyone in the world is running after happiness, they are working every moment for it, but the direction is wrong. Where there is no ghee (butter), they are churning it. Looking for that thing where it doesn’t exist. Where its opposite is sorrow, unrest, dissatisfaction, we are searching for it. Real happiness is in God!

raso vai saḥ। rasaṁ hyevāyaṁ labdhvānandī bhavati॥

~ Taittiriya Upanishad 2-7-2

God is Bliss. When a being attains this Bliss, this Rasa, he himself becomes Joyful.

#Jagadguru_Shri_Kripalu_ji_Maharaj

A God is No God who can be known. वो ईश्वर ईश्वर नहीं जिसे जाना जा सके।

A God that can be known by effort is no God. He can be known only by His Grace.

जिस ईश्वर को प्रयास से जाना जा सके, वह ईश्वर नहीं है। उसे केवल उसकी कृपा से ही जाना जा सकता है।

यह गुन साधन तें नहिं होई।
तुम्हरी कृपा पाव कोइ कोई॥ 
~ रामायण

तेरी लीला सबसे न्यारी न्यारी हरि हरि..

भगवान और संत अन्तर्यामी होते हैं, उन्हीं को पता है कि किसके हृदय में क्या है, प्यार या खार, किसका कल्याण कैसे करना है। हम अपने दोष नहीं जान पाते।

भगवान परम लीला धारी हैं, जब वे अपने स्वांश नारद जी आदि के साथ लीला करने में नहीं चूकते तो हमारा कल्याण तो करेंगे ही..

नारद ने मांगा हरिरूप, मिला हरी(वानर) रूपः स्वयं को महादेव जैसा साधक समझने वाले नारद का मान भंग

नारदजी एक बार घूमते-घूमते हिमालय की पहाड़ियों में बने एक आश्रम पहुंच गए. गंगा किनारे बसा यह स्थान नारदजी को इतना भाया कि उन्होंने वहां तप करने की ठाऩी.

यह वही क्षेत्र था जहां शिवजी ने समाधि लगाई थी और समाधि भंग करने की चेष्टा में कामदेव स्वयं भंग हो गए थे. नारदजी ने समाधि लगाई और करीब हजार वर्ष समाधि में लीन रहे.

देवराज इंद्र को बड़ा भय हुआ कि कहीं नारद तप से भगवान शंकर को प्रसन्न कर उनका पद तो नहीं छीन लेना चाहते. इंद्र ने नारदजी का तप भंग करने के लिए कामदेव को भेजा.

कामदेव ने अपनी सारी कलाओं का प्रयोग किया लेकिन शिवजी ने जिस स्थान पर कामदेव को एक बार भंग किया था वहां काम को सफलता कैसे मिलती! ऊपर से नारद शिवजी का ध्यान कर रहे थे.

कामदेव हारकर अमरावती लौट गए और नारदजी गुणगान करने लगे. इधर नारदजी की तपस्या पूरी हो गई. इंद्र नारद के पास आए और सारी बात बताकर कहा कि आप साक्षात शिवजी के समान कामविजयी हो चुके हैं. सुनकर नारद फूल गए.

वह भगवान शंकर के पास पहुंचे, उन्हें प्रणाम किया और सारी बात कह सुनाई. भोलेनाथ मुस्काते रहे और नारद को आशीर्वाद देकर विदा किया. वहां से नारद अपने पिता ब्रह्माजी के पास पहुंचे और सारी बात उन्हें भी सुना डाली.

ब्रह्मा समझ गए कि नारद स्वयं को शिवजी जैसा तपस्वी समझने लगा है. वह बोले− पुत्र! अपने तप और कामदेव के असफल प्रयासों के बारे में किसी से चर्चा न करना. खासतौर से यदि श्रीविष्णुजी पूछें तो भी इसे छिपा लेना.

नारदजी को यह अच्छा नहीं लगा कि भगवान स्वयं पिता ही पुत्र को घोर तप और काम के प्रभाव से बेअसर रहने जैसे गुणों का बखान करने से रोक रहे हैं. दुखी मन से वह भगवान विष्णु से मिलने बैकुण्ठ को चल दिए.

शिवजी की सलाह की अनदेखी करते हुए उन्होंने वहां अपना बखान गाया. विष्णु भगवान समझ गए कि नारद के मन में अहंकार पैदा हो गया है. मुनि के मन में ऐसे भाव नहीं आने चाहिए वरना उसका तेज समाप्त हो सकता है.

प्रभु बोले− देवर्षि आप तो ज्ञान और वैराग्य की साक्षात मूर्ति ठहरे. भला आपको काम, मद और मोह जैसे अवगुण कैसे घेर सकते हैं. प्रशंसा से फूले नारदजी ने अभिमान से भरकर कहा− प्रभु यह तो आपकी कृपा है.

श्रीहरि ने नारद के मन का अहंकार मिटाने की सोची. भगवान ने अपनी माया से बैकुंठ से भी सुंदर एक नगर की पृथ्वी पर रचना कर दी. नारद ने पहले यह नगर कभी देखा नहीं था. इसलिए वह नगर घूमने चले गए.

नगर को दुल्हन की तरह सजाया गया था. लोगों से पूछने पर नारद को पता चला कि यहां का राजा शीलनिधि अपनी बेटी का स्वयंवर करा रहा है. देश विदेश के राजा आ रहे हैं.

नारदजी राजा के पास गए तो राजा ने उनसे विनती कि वह राजकुमारी को आशीर्वाद दें. नारदजी ने कन्या की कुंडली देखी. वह उसके लक्षणों को देखकर चकित रह गए. इस विलक्षण कल्याण से विवाह करने वाला अजर अमर हो जाएगा.

युद्ध में अजेय रहेगा. सारा संसार उसकी सेवा करेगा. नारदजी कन्या पर रीझ गए थे. उसे प्राप्त करने के विचारों में खोए वहां से चले. उन्होंने भगवान विष्णु का ध्यान किया. प्रभु प्रकट हुए.

नारदजी ने प्रार्थना की− प्रभु! अपने भक्त का कल्याण करिए. मैं राजकुमारी से विवाह करना चाहता हूं परंतु मेरे रूप को वह पसंद नहीं करेगी. इसके लिए मुझे हरिरूप चाहिए. आपकी कृपा के बिना मेरा कल्याण संभव नहीं है.

प्रभु ने कहा− नारद, जिस प्रकार वैद्य औषधि देकर रोगी का कल्याण करता है, उसी प्रकार मैं तुम्हारा कल्याण अवश्य करूंगा. भगवान की बातें स्पष्ट थीं. नारदजी पर काम और मोह सवार था. साधु के लिए यही रोग है.

नारदजी मोह तथा काम में अंधे हो गए थे. वह यह भूल गए कि अभी-अभी कामरहित होने की डींग मारकर गए थे. वह स्वयंवर में पहुंचने के लिए इतने उतावले थे कि आइने में शक्ल भी नहीं देखी कि आखिर प्रभु ने उन्हें रूप दिया कैसा है?

उन्हें तो विश्वास था कि वह स्वयं श्रीहरि की छाया बन चुके हैं. हरि का एक अर्थ वानर भी होता है. नारद ने हरि रूप मांगा तो प्रभु ने उन्हें वानर वाला हरि रूप दे दिया. वानर की शक्ल में नारद स्वयंवर में पहुंचे.

स्वयंवर में आए देवों और राजाओं ने नारद को वानर रूप में देखा तो उन्हें हंसी तो आई लेकिन शाप के डर से हंसी रोके रखी. राजकुमारी जयमाला लेकर स्वयंवर सभा में आई. जैसे ही नारद पर उसकी नजर पड़ी वह हंसने लगी.

स्वयं भगवान विष्णु भी राजा के रूप में उस सभा में बैठे थे. श्रीमती ने माला भगवान के गले में डाल दी. प्रभु उसे लेकर चल दिए. नारदजी बड़े दुखी होकर चले. नारदजी को ब्राह्मणवेश में शिवजी के दो सेवक मिले.

उन्होंने नारदजी से पूछा कि आपने वानर वेश क्यों धारण कर रखा है. नारदजी ने गणों को शाप दिया- मेरे जैसे सिद्ध का उपहास करने वाले तुम दोनों राक्षस कुल में जन्म लोगे. दोनों ने इसे होनी समझकर स्वीकारा और चले गए.

नारद ने तालाब के जल में झांका तो बंदर की शक्ल देखकर आग-बबूले हो गए. तिलमिलाए बैकुंठ लोक की ओर दौड़े. रास्ते में श्रीहरि और श्रीमती मिल गए.

नारदजी ने श्रीहरि को खरी-खोटी सुनानी शुरू कर दी- आपने समुद्र मंथन के दौरान मोहिनी रूप में असुरों से छल किया. शिवजी को हलाहल पिला दिया जबकि मंथन से निकलीं लक्ष्मी देवी को अपने लिए मांग लिया.

आज छल से मेरी प्रिय कन्या छीन ली. मैं स्त्री विरह में जिस प्रकार व्याकुल हूं, आपको भी ऐसा स्त्री विरह भोगना पड़ेगा. मुझे वानर रूप देकर स्त्री से अपमानित कराया. स्त्री प्राप्त करने के लिए वानरों से सहायता की याचना करनी पड़ेगी.

नारद क्रोध में बोलते जा रहे थे तभी शिवजी ने अपनी माया समेट ली. श्रीहरि ने सहज भाव से शाप स्वीकार लिया. अब नारदजी को घोर पछतावा हुआ. वह श्रीहरि के चरणों में सिर रखकर फूट-फूटकर रोने लगे.

कभी छाती पीटते तो कभी अपने मुख पर थप्पड़ लगाते जिससे ये वचन निकले. श्रीहरि ने कहा- नारद इसमें तुम्हारा दोष नहीं. शिवजी की माया के वश में यह सब हुआ. शिवजी के सहस्त्रनाम स्तोत्र को जपते उनका ध्यानकर पश्चाताप करो.

नारदजी वहां से शिवजी का ध्यान करने काशी चले गए. (शिव पुराण)

भगवान कैसे मिलें? क्या भगवान हमें प्रेम करते हैं? हमेशा के लिय दुख कैसे जाए? क्या भगवान साकार हैं? क्या उनका लोक है? इस संसार का क्या स्वरूप है?

भगवान केवल रोने से मिलते हैं.. प्रेम से मिलते हैं.. भक्ति से मिलते हैं.. केवल आँसू ही एक माध्यम हैं उन्हें बताने के लिए हम उनके बिना कुछ भी नहीं.. हम असहाय हैं.. अनाथ हैं.. अपराधी हैँ.. अनंत पाप किए बैठे हैं..  उनको ना जाना ना माना.. उनके प्रेम का अनादर किया..

“मो सम कौन कुटिल खल कामी। जेहिं तनु दियौ ताहिं बिसरायौ, ऐसौ नमकहरामी॥” ( सूर सागर ~ संत सूरदास)

भगवान के लिय सच्चे आँसुओं में अनन्त बल है जो केवल निर्बल को प्राप्त है..आश्रित को प्राप्त है..प्रेमी को प्राप्त है.. व्याकुलता से भरा एक एक आँसू एटॉमिक बम है..

भगवान की कृपा के बिना ना मन शुद्ध होगा. ना ही दुख निवृत्ति होगी.. भगवद्ग प्राप्ति, परमानंद प्राप्ति, माया निवृत्ति की तो छोड़िए.. कोई लाख ध्यान कर ले ज्ञान कर ले.. बड़े बड़े ज्ञानी योगी हुए, हैं, होंगे.. हज़ारों वर्ष तपस्या की.. बड़ी बड़ी योगिक सिद्धियां मिल गई.. पर माया नहीं गई.. आत्मिक आनंद (मायीक सात्विक आनंद) को ही दिव्यानंद, परमानंद समझ लिया.. भगवान के शरणागत नहीं हुए.. भक्ति नहीं की.. फिर पतन हो गया… जीवन-मुक्त जड़भरत की यहि कहानी है .. फिर जब भक्ति की अगले जन्म में तो भगवान की कृपा से उद्धार हुआ.. इतिहास गवाह है.. शास्त्र प्रमाण हैं.. भरा पड़ा है… 

कलिजुग जोग न जग्य न ग्याना। एक अधार राम गुन गाना॥ सब भरोस तजि जो भज रामहि। प्रेम समेत गाव गुन ग्रामहि॥ (रामायण)

हम संसार में भोग के लिए नहीं आए.. अगर हमने भगवान को ना जाना तो बहुत बड़ी हानि हो जाएगी.. चौरासी लाख योनि में जाने की तैयारी है.. जहां महा दुख है.. यह परिवार, धन दौलत, मान सम्मान कुछ साथ नहीं जाएगा.. मनुष्य जन्म अनमोल है..

“अवसर चुकीं फिरी चौरासी कर मींजत पछतात.. अरे मन अवसर बीतो जात”.. (प्रेम रस मदिरा ~ जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज)

भगवान हमसे अनंत प्रेम करते हैं, हम अनन्त काल से अंधकार में हैं, पर हमेशा रहें ऐसा जरूरी नहीं, हम भगवान को भूले हुए हैं, पर वो हमे नहीं भूले, वो हमे उनका सब कुछ देना चाहते हैं दिव्य-दिव्य, इस दुखमय मायीक संसार से निकालना चाहते हैं.. क्या नहीं करते भगवान हमारे लिए, निराकार रूप से सर्वव्यापक हैं, यह संसार बनाया, शरीर बनाया, हमारे हृदय में.. आत्मा में बैठें हैं, हमारे सारे कर्म नोट करते हैं, अच्छे बुरे कर्मों का फल देते हैं, सब व्यवस्था रखतें हैं, परमाणु परमाणु में बैठकर.. संसार का ऐसा स्वरूप बनाया कि हम दुख पाने पर जागें और सोचें कि क्या हम शरीर हैं? क्या इस संसार में सच्चा सुख है? हमारा दुख कैसे जाए? .. असली में हम कौन हैं, हमारा कौन हैं? आदि ..पर हम इतने संसार आसक्त हो गए कि लाख दुख पाने पर भी वहीं नाक रगड़तें हैं.. आनंद की भूख इतनी प्रबल है कि दुख पाने पर भी अनित्य, क्षणिक सुख में बार बार गिरते हैं..

भगवान असली में हैं, वो साकार हैं और निराकार भी, उनका शरीर दिव्य है, सच्चिदानंद विग्रह है, मैटीरियल नहीं.. तर्क से भी सर्वशक्तिमान भगवान क्या साकार नहीं हो सकते? साकार ही नहीं वो “नित्य” साकार हैं और निराकार का आधार हैं..

द्वे वाव ब्रह्मणो रूपे मूर्तं चैव अमूर्तं च । (बृहदारण्यकोपनिषत् २-३-१)

अर्थात्‌ साकार एवं निराकार भगवान के दो स्वरूप होते हैं।

चिदानन्दमय देह तुम्हारी, विगत विकार जान अधिकारी। (रामायण )

आपका देह दिव्यातिदिव्य है, चिन्मय-अविनाशी है, जिसके दर्शन दिव्य दृष्टि मिलने पर होते हैं।

उनके दिव्य लोक हैं उनका सब कुछ दिव्य है.. उनको प्राप्त करने पर जीव को भी दिव्य देह मिलती है (दिव्य भाव देह) और उनका लोक भी दिव्य है अपितु स्वयं बन गए हैं..

साकार भगवान के प्रेमानंद की एक बूंद पर अनंत ब्रह्मानंद (निराकार भगवान का आनंद) न्यौछावर हैं.. इतना बड़ा और रसमय हैं भगवान के साकार स्वरूप का आनंद.. इसलिए भगवान ने साकार संसार बनाया हैं (जो दिव्य लोक का विकृत प्रतिबिंब है) कि हम इस रहस्य को जाने.. यहा अपूर्णता है वहां पूर्णता है.. यहां का आनंद मायीक है, अनित्य है, क्षणिक है, दुख मिश्रित है.. भगवद्ग प्रेमानंद दिव्य है, अनंत है, नित्य है, प्रति पल वर्धमान है, नवीन है.. यह वेद सम्मत सिद्धांत है.. वेदों के मन्त्रों में इसके प्रमाण हैं.. 

भगवान ही हमारे सर्वस्व हैं ..यह संसार माया का बना है.. दुखालय है.. हम परमानंद चाहते हैं जो भगवान स्वयम हैं.. वो आनंद सिंधु हैं.. हम आनंद के अंश हैं भगवान के अंश हैं ..

रसो वै सः। रसं ह्येवायं लब्ध्वा आनन्दी भवति। ( तैत्तिरीयोपनिषत् २-७-२ )

भगवान रस स्वरूप हैं, सच्चिदानंद विग्रह हैं। जब हम इस रस को, इस आनंद को प्राप्त कर लेते हैं तो स्वयं आनन्दमय हो जाते हैं. ।

चिन्मात्रं श्रीहरेरंशं सूक्ष्ममक्षरमव्ययम् ।  कृष्णाधीनमिति प्राहुर्जीवं ज्ञानगुणाश्रयम् ॥ ( वेद )

ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन:। ( गीता 15-7 )

ईश्वर अंश जीव अविनाशी चेतन अमल सहज सुख राशी। ( रामायण )

हम ईश्वर के अनादि अंश है.. शास्त्र प्रमाण हैं.. ‘मैं’ शरीर, इन्द्रिय, मन आदि नहीं है । अतएव हमारा असली सुख ईश्वरीय है।

इस अंधकार रूपी संसार  में वस्तु, व्यक्ति, मान सम्मान की चाह बनाकर भटकते भटकते हमें अनंत जन्म बीत गए.. किस योनि में नहीं गए? .. कौन सा दुख नहीं पाया? .. संसार के सुख दुख मिश्रित हैं..सब स्वार्थ से जुड़े हैं, अपूर्ण हैं, स्वार्थ खत्म, प्यार खत्म.. हमारा असली स्वार्थ.. दिव्य स्वार्थ.. पूर्णतम पुरुषोत्तम भगवान से है..उनको किसी से कुछ नहीं चाहिए.. वो अनंत हैं.. उनका सब कुछ अनन्त है..दिव्य है.. वो केवल देना देना जानते हैं.. वो हमारे अपने से भी अपने हैं.. आत्मा की आत्मा हैं.. सबका श्रोत हैं.. वात्सल्य सागर हैं, कृपा सिंधु हैं, दीन बन्धु हैं, पतित पावन हैं, निर्बल के बल हैं!

सच्चे आंसुओ को वो सह नहीं पाते.. पिघल जाते हैं.. वो हमसे कोई साधना की अपेक्षा नहीं रखते.. बस हम उनको अपना मानकर पुकारें, अपनी दयनीय स्थिति को जानकर, अपने को पतित मानकर, निर्बल होकर.. जैसे एक तुरंत का पैदा हुआ बच्चा रो देता है.. वो तो माँ को भी नहीं जानता.. पहचानता.. फिर माँ उसका सब कुछ करती है.. और हमारी असली माँ सर्वज्ञ है, वो हमे एक टक देखती रहती है पर हम उसे भूले हुए हैं.. बस हमारे पुकारने भर की देर है.. ।

हमारी दुर्दशा असहनीय है, जन्म मरण का दुख.. बीमारी का दुख.. बुढ़ापे का दुख.. शरीर रखने का दुख.. संसार में संघर्ष का दुख.. घोर मानसिक दुखों से हम घिरे हैं.. काम की जलन, क्रोध की जलन, गलतियों की जलन.. अनंत जन्मों की तो छोड़िए, इसी जन्म में ही हमने कितने दुख पाएं, जिसने कुछ भी संघर्ष किया है उसने अपनी कमियों को जाना है, हम कितने असहाय हैं, अपूर्ण है.. देखा जाए तो हम कुछ भी नहीं.. एक पल के जीवन का भरोसा नहीं..कब क्या आपदा आ जाए.. कब मृत्यु आ जाये.. पर हमारा अहंकार इतना बड़ा है कि हम अपनी स्थिति पर विचार ही नहीं करते.. हमें करने का बल है.. कर कर के अनन्त जन्म बीत गए.. क्या मिला? और कर्म बंधन में फंसते गए!

यह संसार बड़ी युक्ति से बनाया गया है.. जिससे हम यह जाने की ये हमारा नहीं हैं.. यहा कुछ हमारा नहीं है.. कोई हमारा नहीं है.. हमारा असली घर भगवान का लोक है..हमारे असली ज़न भगवान के ज़न हैं.. हमारे सारे नाते भगवान से हैं.. वो अनन्त जन्मों से हमारी राह देख रहे हैं कि हम कब यह जाने, कब यह माने और उनको पुकारें.. बस फिर देरी नहीं.. भगवान को पाने के लिय सच्चे आँसुओं से बढ़कर कोई साधन नहीं.. अपनेपन के आंसू, दीनता के आँसू कह्ते हैं कि आपके बिना “मैं” कुछ भी नहीं.. और प्रेम का असली स्वरूप भी यही है.. प्रेमी बिना प्रेमास्पद के कुछ भी नहीं.. भगवान हमसे अनंत प्रेम करते हैं, यह संसार चला रहे हैं हमारे लिए सृष्टि की कभी हम जागे, कभी हम जाने, उनको अपना माने, और अपना कल्याण करें.. पर हम भी इतने ढीठ हैं कि अन्त जन्म हो गए.. अपनी बुद्धि का बल.. अपनी शक्ति का बल का मिथ्या अभिमान लेकर चौरासी लाख योनियों में जुते चप्पल खा रहें हैं.. सर कटा सकते हैं लेकिन सर झुका सकते नहीं.. प्रेम में हारकर ही जीत है.. भगवान अपने को कुछ नहीं मानते.. भक्त के आगे हारने को तैयार रहते हैं.. पर अभिमान उनको स्वीकार नहीं क्यों कि वो हमें यह समझाना चाहते हैं कि हम अपने से कुछ नहीं पर प्रेम में.. दूसरे के साथ सब कुछ हैं.. यहि प्रेम है, शरणागति है, आश्रय है, दीनता है और बिना आसुओं के यह परिपक्व नहीं होता।

तो फिर कैसे रोयें? आँसू कैसे आयें?  हम जब यह समझें कि बिना प्रभु कृपा के हम माया से, इस अंधकार से कभी नहीं उबर सकते.. हमारे अनन्त पाप हैं अनन्त जन्मों के.. हम अपने में सीमित हैं अगर हम अनंत काल तक भी साधना करें तब भी अशुद्ध ही रहेंगे.. केवल जो अनंत है, नित्य शुद्ध तत्त्व है.. परम पवित्र है.. वो ही अपनी कृपा से हमे उबार सकता है और कोई रास्ता नहीं। यह आँसू ही एक माध्यम हैं उन्हें बताने के लिए हम उनके भरोसे हैं जैसे एक बालक माँ के भरोसे होता है..अहम ही अहंकार है.. जहाँ अहम वहां अपनापन कहाँ? प्रेम में अपना बल रखना दाग है.. प्रेम ही प्रेरणा है.. प्रेम ही बल है.. उनका ही सहारा हो वही प्रेम है .. उनके प्रेम पर हमें पूर्ण विश्वास हो .. किरण सूर्य से प्रथक कुछ भी नहीं, अंधकार में खोई एक लाचार बेचार अस्तित्व है.. सूर्य का संबन्ध ज्ञान, उसका प्रेम, उसका आश्रय अंधकार मिटा सकता है और जो अपना है उससे मदद मांगने में क्या शर्म.. ये तो हमारा हक है.. वास्तविकता तो यह है कि भगवान का जब हम आश्रय नहीं लेना चाहते तो भगवान सोचते हैं यह मुझे अपना नहीं मानता मैं सर्व शक्तिमान हूँ.. मेरे इशारे मात से इसका अंधकार मीट जाएगा.. मुझे पा लेगा मेरा सब कुछ इसका हो जाएगा.. अनन्त कोट ब्रह्मांडो के राजा का बेटा भिखारियों की तरह जी रा है.. और उनकी शक्ति माया से हम पार नहीं पा सकते.. इस माया में भगवान के बराबर शक्ति है.. भगवान का आश्रय लिय बिना, उनसे अपनेपन के बिना, उनकी भक्ति के बिना त्रिकाल में किसी योगी, ज्ञानी, तपस्वी का कल्याण असंभव है, वही भक्ति से भक्त सहज ही भगवान को पा लेता है..

शुद्धयति हि नान्तरात्मा कृष्णपदाम्भोज भक्तिमृते।
(प्रबोध सुधाकर ~ आदि जगद्गुरु शंकराचार्य)

“भगवान श्रीकृष्ण के चरण कमलों की भक्ति में लीन हुए बिना मन शुद्ध नहीं होगा”

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया। मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते॥ ( भगवद्गीता 7-14॥)

प्रकति के तीन गुणों (सात्विक, राजस, तमस) से युक्त मेरी दैवीय शक्ति माया से पार पाना अत्यंत कठिन है किन्तु जो मेरे शरणागत हो जाते हैं, वे इसे सरलता से पार कर जाते हैं।

यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्व, यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै । तं ह देवमात्मबुद्धिप्रकाशं, मुमुक्षुर्वै शरणमहं प्रपद्ये ॥ ( यजुर्वेद श्वेताश्वतरोपनिषत् ६-१८ )

जो सृष्टि के पूर्व ‘सृष्टिकर्ता ब्रह्मा’ का विधान करता है तथा जो वेदों को उन्हें (ब्रह्मा को) प्रदान करता है, वो भगवान (देव) जो ‘आत्मा’ तथा ‘बुद्धि’ प्रकाशित कर रहा है, मैं कल्याण की कामना से उसकी शरण को जाता हूँ।

सो दासी रघुबीर कै समुझें मिथ्या सोपि। छूट न राम कृपा बिनु नाथ कहउँ पद रोपि ॥ (रामायण 71 ख)

वह माया श्री रघुवीर की शक्ति है, उसको मिथ्या ना समझो, उसमे भगवान के बराबर बल है, वह श्री रामजी की कृपा के बिना छूटती नहीं। हे नाथ! यह मैं प्रतिज्ञा करके कहता हूँ॥

हम असहाय हैं.. अनंत जन्मों से माया के आधीन होने के कारण हम अनंत पाप कर के बैठे हैं.. हर तरह का पाप हमने किया है.. अनन्त मर्डर किए हैं.. हमें याद नहीं.. हम अनन्त काल तक भी अगर साधना करे तब भी मन शुद्ध नहीं कर सकते.. और कल युग के जीव क्या साधना करेंगे.. जब मन ही बस में नहीं तो क्या ध्यान क्या ज्ञान.. वैसे भी भगवान कोई साधन से नहीं मिलते.. शरणागति से मिलते हैं.. शरणागत होना मतलब अपने बल का कोई आसरा ना हो केबल प्रभु की कृपा का आसरा हो तब बिना किए ही कृपा होती है.. जो साधना सेवा उन्हें करानी है.. भगवान अपनी कृपा से करा लेते हैं हमारा मन शुद्ध कराने के लिए और फिर भगवद्ग दर्शन, प्रेम सब मिल जाता है.. जब तक जीव कर कर के हार नहीं जाता है.. तब तक उसका अहम नहीं टूटता..तब तक वो शरणागत नहीं होता..

जब संसार आसक्त पत्थर दिल इंसान का हृदय भी आँसू देखकर भारी हो जाता है.. पिघल जाता है तो क्या करुणा वरुणालय अनन्त माताओं का वात्सल्य लिए हमारे प्रभु अपने आप को रोक पाएंगे? .. हरगिज नहीं.. हमारे बस रोने की देर हैं..रोने की आदत डाल लो.. जिद्द कर लो रोने की.. लाखँ आँसू बहाने की.. कि जब तो वो नहीं आयेंगे हम रोते जाएंगे.. प्राणों में और आंसुओं में होड़ लग जाएं.. अभी नहीं तो कभी नहिं.. बस अब बहुत हो चुका अब यह जीवन बिना जीवन धन को पाए व्यर्थ है.. मैं अधम, पापी, अहंकारी पापात्मा बेशर्मी में जिए जाँ रहा
हूँ! पाप पे पाप किए जाँ रहा हुं.. जिस पल भी हम भगवान के अलावा कुछ भी सोचते हैं तो राग द्वेष के अलावा क्या सोचेंगे.. क्या करेंगे.. कर्म बंधन में फंसते जाएंगे.. केवल ईश्वर प्रेम ही एक उपाय है.. जिसे आसुओं का सहारा है उसको भगवान अवश्य मिलेंगे, यही वेदों का सार है।

बिन रोये किन पाईया प्रेम पीयारो मीत..

God is your true beloved and his abode is your true home.

The supreme divine couple Radha Krishna are two toys of love. Their divine abode is made of love and so are their associates and everything else. God is your true beloved and his abode is your true home.

सर्वोच्च दिव्य युगल वर राधा कृष्ण प्रेम के दो खिलौने हैं। उनका दिव्य धाम प्रेम से बना है, उनके दिव्य परिकर और बाकी सब कुछ प्रेम मय है। ईश्वर तुम्हारा सच्चा प्रियतम है और उसका दिव्य धाम ही तुम्हारा सच्चा घर है।

The supreme divine couple Radha Krishna are two toys of love & bliss. They are two for love and one in bliss, for love is bliss.

God is Love, Radha Krishna are all about love and giving, to each other and one another.

Their divine abode is made of love and so are their Angels and everything else, always giving and loving.

Their beauty and being is for God, when they see Radha Krishna coming, flowers change colors, trees ripes with fruits, birds sings and peacocks dance and Angels flock around to serve and love. To love is to be loved. God is your true beloved and his divine abode is your true home.

सर्वोच्च दिव्य युगल वर, राधा कृष्ण प्रेम और आनंद के दो खिलौने हैं। वे प्रेम के लिए दो हैं और आनंद में एक हैं, क्योंकि प्रेम ही आनंद है।

ईश्वर प्रेम है, राधा कृष्ण का स्वरूप प्रेम है, देना देना है, एक दूसरे को और सब को। उनका दिव्य धाम प्रेम से बना है और इसलिए उनके दिव्य परिकर और बाकी सब कुछ, हमेशा देने देने और प्यार करने वाले हैं। उनकी सुंदरता और अस्तित्व भगवान के लिए है, जब वे राधा कृष्ण को आते हुए देखते हैं, फूल रंग बदल ने लगते हैं, पेड़ फलों से लद जाते हैं, पक्षी गीत गाते हैं और मोर नाचते हैं। परिकर सेवा और प्यार करने के लिए चारों ओर से घेर लेते हैं। प्यार करना ही प्यार पाना है।

ईश्वर तुम्हारा सच्चा प्रियतम है और उसका दिव्य धाम ही तुम्हारा सच्चा घर है।