ईश्वरी प्राप्ति के लिए कैसा बनना पड़ेगा?

तृणादपि सुनीखेन तरोरपि सहिष्णुना।
अमानिना मानदेन कीर्तनीय: सदा हरि: ॥

(शिक्षाष्टक-३)

अगर किसी को ईश्वर कृपा प्राप्त करना है, तो तृण से बढ़कर दीन भाव लाओ, तृण से बढ़कर दीन भाव। अरे सचमुच की बात है, क्या है तुम्हारे पास जो अहंकार करते हो । है क्या ? क्यों समझते हो, सोचते हो, फील करते हो कि हम भी कुछ हैं। अरे क्या हो तुम। और अगर यह शरीर छूट जायेगा तो उसके बाद फिर कुत्ता बनना पड़े, कि बिल्ली, कि गधा, कि पेड़, कि कीट पतंग, कहाँ जाओ तब तुमसे हम बात करें कि क्‍योंजी ऐ नीम के पेड़! तुम डी.लिट प्रोफेसर वही थे न, पिछले जन्म में? हमने कहा था ईश्वर की शरण में चलो दीनता लाओ। तो तुमने कहा था हम ऐसे अन्ध विश्वासी नहीं हैं “डी. लिट्” हैं। अब क्या हाल हैनीम के पेड़ बने हो। हाँ जी। वह गलती हो गई, उस समय पता नहीं क्या दिमाग खराब था। अहंकार में डूबे हुये थे। भगवान के आगे भी दीन नहीं बन सके। दीनता के बिना साधना नहीं हो सकती, कोई गुंजाइश नहीं।

एक वेंकटनाथ नाम के महापुरुष हुये हैं। बह वेंकटनाथ ईश्वर की ओर जब चलने लगे, बड़े आदमी थे। और जोरदार आगे बढ़े, तो तमाम विरोध हुआ। सभी महापुरुषों के प्रति होता है। तो उनके विरोधियों ने उनके आश्रम के गेट पर एक जूते की माला बनाकर टाँग दी कि यह नशे में तो चलते ही हैं इनके सिर में लगेगी तो हम लोग हँसेंगे। हा हा हा हा जूता सिर में लग रहा है तुम्हारे। वो अपना बाहर से भीतर नैच्यूरलिटी में जा रहे थे तो जूते की माला जो लटका रब्खा था मककारों ने, नास्तिकों ने, वह सिर में लगी, उन्होंने देखा और हँसने लगे। अब लोग दूर खड़े देख रहे थे जिन्होंने नाटक किया था कि यह गुस्से में आयेंगे फ़ील करेंगे फिर हम लोग हँसेंगे, फिर हमसे कुछ बोलेंगे फिर हम बोलेंगे अब वह उसको देखकर हँसने लगे और कहते हैं

कमविलम्बका: केचित्‌ केचित्‌ ज्ञानावलम्बका:।

कुछ लोग कर्म मार्ग का अवलम्ब लेते हैं, कुछ लोग ज्ञान मार्ग का अवलम्ब लेते हैं। और

वयं तु हरिदासानां पादरक्षावलम्बका: ।

और हम तो भगवान्‌ के जो दास हैं, वह उनका जो पाद रक्षा है जूता – सौभाग्य से हमको वह मिल गया। हमारा तो उसी से काम बन जायेगा हम क्‍यों कर्म, ज्ञान, भक्ति के चक्कर में पड़ें। अब वह विरोधी लोग देखें कि अरे! यह तो उलटा हो गया। हम तो समझ रहे थे कि गुस्सा करेगा फिर बात बढ़ेगी और फिर हम लोग भी अपना रौब दिखायेंगे, गाली गलौज होगी। अरे! यह तो देखकर हँस रहा है और कहता है

वयं तु हरिदासानां पादरक्षावलम्बका: |

यह दीनता है यह आदर्श है ईश्वर प्राप्ति की जिसको भूख हो ऐसे – बनना पड़ेगा।

तो सन्त उस्मान के ऊपर जो राख का टोकरा गिरा तो सन्त उस्मान ने ऊपर देखा और कहा हे भगवान्‌ तू बड़ा दयालु है तो उसके साथी ने कहा इसमें दया की क्या बात है तुम भगवान्‌ को शुक्रिया अदा कर रहे हो कि तू बड़ा दयालु है। हे खुदा तू बड़ा दयालु है क्या उसका करम है इसमें एक ने राख छोड़ दिया तुम्हारे ऊपर ये कौन सी दया है। तो सन्त उस्मान ने कहा कि मैं तो अंगारे चिनगारियाँ अंगारों से युक्त टोकरा छोड़ने लायक हूँ क्योंकि मैंने संसार से प्यार किया है उस सुप्रीम पॉवर से प्यार नहीं किया। मेरे ऊपर तो आग के अंगारों का टोकरा छोड़ना चाहिए था, यह तो राख ही छोड़ा है, इतनी दया है उसकी। बजाय क्रोध करने के वहाँ भी दीनता बनी रहे। इतना दीन बनना है और यहाँ तो हम लोगों का यह हाल है कि सही बात भी कोई कह दे, तो कया हाल हो जाता है। बाबाजी के भेष में रहने वालों का भी ये हाल हो जाता है। हम लोग तो गृहस्थी हैं आप लोग जानते ही हैं।

तो दीनता प्रमुख है। उसके बिना गाड़ी नहीं चलेगी। कोई गति नहीं है। यहाँ संकीर्तन में बैठकर जिन लोगों को आँसू नहीं आते हैं, अपने को दीन हीन अकिंचन नाचीज मानकर वे लोग फील करें, सोचें क्यों ऐसा हो रहा है? ये टाइम बीता जा रहा है। कब करोगे? अब क्‍या इससे बड़ा भी कोई सौभाग्य होगा कि मानव देह मिले, भारत में जन्म हो और फिर इस प्रकार आप लोग घर छोड़कर सत्संग में आवें और यह सब यहाँ आपको ऐट्मयफिआअर मिले और आप उसमें शरीक़ हों और फिर भी ऐन वक्‍त में जब साधना करने का समय हो, तो आप लापरवाही करें यह फील करना होगा। जितनी बार आप लगातार फील करेंगे उतने ही आप आगे को बढ़ेंगे। तो शरणागति में दीनता प्रमुख है किन्तु प्रेम करने का तरीका अभी नहीं बताया गया वो फिर बतायेंगे।

~ जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
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