Sinner doesn’t know his sins. पापी अपने पापों को नहीं जानता।

If someone thinks bad about you, do not be angry at him, because you are worse than what he thinks about you. Sinners think they are Saints, but Saints know they are Sinners.

यदि कोई आपके बारे में बुरा सोचता है, तो उस पर क्रोधित न हों, क्योंकि वह आपके बारे में जितना सोचता है, आप उससे भी अधिक बुरे हैं। पापी सोचते हैं कि वे संत हैं, लेकिन संत जानते हैं कि वे पापी हैं।

~ Saints Sayings
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महापुरुष महात्म्य

भगवान को वेद के द्वारा जानो। यानी उन्हीं की वाणी से उनको जानो।

ना वेद विन्मनुते तं बृहन्तम्।
(शाठ्यायनी उपनिषद् – ४)

वेद उसकी वाणी है-

निःश्वसितमस्य वेदाः। (वेद)

जाकी सहज श्वॉस श्रुति चारी।

तो वेदों से पूछो। हाँ वेद महाराज ! बताओ। तो वेद ने कहा देखो भई मुझको पढ़ कर तुम नहीं समझ सकते-

वेदा ब्रह्मात्मविषयास्त्रिकांडविषया इमे।
(भाग. ११-२१-३५)

वेदव्यास ने भागवत में कहा कि ये ब्रह्म के समान है वेद। जैसे ब्रह्म है ऐसे वेद है। और ब्रह्म क्या है-

इन्द्रियेभ्यः परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान् परः।।

महत: परमव्यक्तमव्यक्तात् पुरुषः परः।
पुरुषान्न परं किञ्चित् सा काष्ठा सा परा गतिः।।
(कठोप. १-३-१०, ११)

यानी इन्द्रियों से परे इन्द्रियों के विषय, उससे परे मन, उससे परे बुद्धि, उससे परे भगवान्। बुद्धि से परे है-

इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः।।
(गीता ३-४२)

राम अतर्क्य बुद्धि मन बानी।

इन्द्रिय मन बुद्धि से परे है-

राम स्वरूप तुम्हार वचन अगोचर बुद्धि पर।
(रा. मा.)

वह बुद्धि से परे है। इसलिये वेद भी बुद्धि से परे है। अलौकिक वाणी है। इस का अर्थ अलौकिक पुरुष ही समझ सकता है। यानी महापुरुष और भगवान्। तो फिर? भगवान् तो मिलेंगे नहीं। किससे पूछें वेद का अर्थ? तो महापुरुषों से पूछो-

उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।।
(कठोप. १-३-१४)

वेद कह रहा है। उठो, जागो मनुष्यो! तुमको मानव-देह मिला है। और “प्राप्य वरान्” महापुरुष के पास जाओ प्रैक्टिकल मैन श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष के पास जिसने भगवान् का साक्षात्कार किया हो, ऐसे महापुरुष के पास जाओ। कान फूंकने वाले के पास नहीं। फिर उनसे समझो वेद का अर्थ। यानी वेद वेद्य भगवान् क्या है? महापुरुष के पास जाओ। ऐसे तत्त्वज्ञान नहीं होगा। और वह महापुरुष दो योग्यताओं से युक्त हो, ऐसा महापुरुष चाहिये।

परीक्ष्य लोकान् कर्मचितान् ब्राह्मणो निर्वेदमायान्नास्त्यकृतः कृतेन।
तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम्।।
(मुण्डको. १-२-१२)

श्रोत्रिय यानी थियोरिटिकल मैन, शास्त्र वेद का पूरा ज्ञान हो और दूसरे को करा सके। इतनी नॉलेज हो और फिर भगवान् को प्राप्त कर चुका हो। ये ब्रह्मनिष्ठ है। श्रोत्रिय भी हो, ब्रह्मनिष्ठ भी हो- ऐसे महापुरुष के पास जाओ फिर समझो वो क्या है ? भगवान् क्या है। ये वेद कह रहा है। अरे गीता तो पढ़ी होगी आपने-

तद्वद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया। उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः।।
(गीता ४-३४)

अर्थात् वो श्रोत्रिय भी हो और ब्रह्मनिष्ठ भी हो ऐसे गुरु के पास जाओ। फिर उनकी सेवा करो, फिर उनके शरणागत हो, फिर उनसे पूछो। “तद्विद्धि प्रणिपातेन” शरणागत हो और परिप्रश्नेन- जिज्ञासु भाव से प्रश्न करो और सेवया- सेवा करके उनको प्रसन्न करो। ये तीन शर्ते हैं। गीता कह रही है। भागवत से समझ लीजिए-

तस्माद् गुरुं प्रपद्येत जिज्ञासुः श्रेय उत्तमम्।
शाब्दे परे च निष्णातं, ब्रह्मण्युपशमाश्रयम्।।
(भा. ११-३-२१)

शाब्दे- ये थ्योरी में। परे ये प्रैक्टिकल भी हो। “निष्णातं ब्रह्मण्युपशमाश्रयम्।” अर्थात शाब्दिक ज्ञानी प्लस अनुभव ज्ञानी दोनों प्रकार का जिसको अनुभव प्राप्त हो ऐसे महापुरुष के पास जाओ। क्यों?

सो बिनु संत न काहू पाई।

बिना गुरु के किसी को भी वो भगवान् नहीं मिले न उनकी भक्ति मिली है। किसी को भी नहीं। वो ब्रह्मा हो, विष्णु हो, शंकर हो, इन्द्र हो, कुबेर हो। कोई हों-

गुरु बिनु होई कि ज्ञान।

ज्ञान नहीं हो सकता। अरे ये तो बड़ी-बड़ी बातें हैं। आप लोगों ने पढ़ा होगा ए.बी.सी.डी.? हाँ पढ़ा है। क ख ग घ? हाँ पढ़ा है। कैसे पढ़ा है? क्या पैदा होते ही आप पढ़ लिये, बोल लिये? नहीं जी वो टीचर आया था एक, उसने पढ़ाया था। क्या पढ़ाया था? उसने कहा देखो ऐसे लिखो ‘क’ हमने लिखा। उन्होंने कहा इसका नाम है ‘क’। क्यों? क्यों इसका नाम ‘क’ है। अरे पागल है ये लड़का। ये क्या पड़ेगा? ऐसे बोल रहा है। क्यों इसका नाम है ‘क’? अरे ! मैं जो कह रहा हूँ उसको याद करो। ऐसी शक्ल होती है क की। और ये नाम होता है इसका क। चुपचाप मान लो। अन्धे बन कर मान लो। और इंग्लिश भाषा वाले तो जानते ही है कितने साइलैन्ट होते हैं। चुपचाप मान लो बोलो मत। लिखो। ये शरणागत हैं आप उस टीचर के। अपनी बद्धि जरा भी नहीं लगाते। नहीं तो नम्बर समाप्त हो जाएंगे फेल हो जायेंगे आप अपनी बुद्धि लगायेंगे तो। बिना गुरु के आप क का ज्ञान नहीं कर सकते, उसके शरणागत होते हैं। डाक्टर के पास आप गये। डाक्टर साहब! हाँ हमारे सिर में बहुत दर्द होता है। और क्या होता है ? लो ये दवा लो। ये दो बूंद दवा एक चम्मच पानी में डालकर पी लेना। डॉक्टर साहब! इतने बड़े शरीर में दो बूंद दवा? आपका दिमाग तो ठीक है? अरे। ये पागल आदमी है। ये दवा नहीं करा सकता। निकालो बाहर इसको। अरे! मैं जो कहता हूँ चुपचाप मान लो। सरैण्डर करो। अपनी बुद्धि का प्रयोग न करो। तो गुरु के बिना महापुरुष के बिना तत्त्वज्ञान नहीं हो सकता। कोई हो-

गुरु बिनु भवनिधि तरे न कोई।
ज्यों बिरंचि शंकर सम होई।।

ब्रह्मा, शंकर कोई हो। अब ये बड़ी प्रॉब्लम आ गई कहाँ ढूँढ़, कैसे ढूँढे?

गुरु का ज्ञान होना कोई साधारण बात तो नहीं है। जैसे कोई एम.ए.का टीचर हो, सर्टिफिकेट वगैरह न दिखावे और कहे मैं एम.ए. हूँ। तुमको कौन सा क्लास पढ़ना है? हाई स्कूल। बैठो मैं पढ़ा दूँ। तो वो एम.ए. वाला ही पढ़ा सकता है हाई स्कूल, इन्टर, बी.ए., एम. ए., ए.बी.सी.डी. न जानने वाला एम.ए. कैसे पढ़ायेगा? असम्भव। तो वो गुरु जिसके शरणागत होकर हम जानना चाहते हैं ब्रह्म को, भगवान् को, पाना चाहते हैं वो सैन्ट परसैन्ट महापुरुष हो। पर हम नहीं जान सकते, हम नहीं तौल सकते, हम नहीं नाप सकते। जैसे भगवान् बुद्धि से परे हैं ऐसे ही महापुरुष भी बुद्धि से परे हैं क्योंकि दोनों एक हैं-

तस्मिंस्तज्जने भेदाभावात्।
(ना. भ. सू. ४१)

नारद जी ने अपने भक्ति-सूत्र में लिखा कि भगवान् और महापुरुष में भेद नहीं होता। वैसे तो महापुरुष को भगवान् से बड़ा माना गया है। लेकिन बड़ा वड़ा कुछ नहीं है वो। जितनी पावर भगवान् के पास है नित्य सत्ता, सर्वज्ञता, अनन्त आनन्द, वो महापुरुष के पास भी है। इसलिये बराबर है। इसीलिये वेद कहता है-

यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ।
तस्यैते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः।।
(श्वेता. ६-२३)

ऐ मनुष्यो! जैसी भक्ति भगवान् के प्रति हो वैसी ही भक्ति सैन्ट परसैन्ट गुरु के प्रति हो।

तो फिर हम जानें कैसे? गुरु को, महापुरुष को । पहिचानें कैसे? और बिना पहिचाने कहीं गलत पाखण्डी महापुरुष क शरण में चले गये तो फिर तो फिर तो-

अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः।
(मुण्डको. १-२-८)

जैसे अन्धे का हाथ अन्धा पकड़ करके चले तो गर्त में गिरेगा। यही हो रहा है अनादिकाल से। देखिये बहुत सावधानी से समझिये। ज्ञान में दो रीज़न बताया तुलसीदास जी ने-

गुरु बिनु होइ कि ज्ञान, ज्ञान कि होई विराग बिनु।

गुरु के बिना ज्ञान नहीं हो सकता प्लस वैराग्य के बिना ज्ञान नहीं हो सकता। क्यों? मान लो आपको सही गुरु मिल गया। हाँ आप शरणागत नहीं हैं। अपनी बुद्धि को गुरु की बुद्धि से जोड़ा नहीं, अपनी बुद्धि प्राइवेट रख रहे हो। अपनी बुद्धि लगा रहे हो बीच बीच में, सैन्ट परसैन्ट सरैण्डर नहीं किया। तो क्या करेगा गुरु?

मूरख हृदय न चेत यदि गुरु मिलहिं विरञ्चि सम।

ब्रह्मा भी गुरु मिले तो उस व्यक्ति का कल्याण नहीं हो सकता जो शरणागत नहीं है, सैन्ट परसैन्ट। बिजली घर में आप चले जायें और सब तारों का हाल न जानें और एक तार जो नंगा है उसको पकड़ लें तो जीरो बटे सौ हो जायेंगे। सैन्ट परसैन्ट शरणागति करनी पड़ेगी। थोड़ी मोड़ी नहीं। तो फिर हम कैसे पहिचानें? और बिना पहिचाने हमारा काम बनेगा नहीं और पहिचानने का मतलब, मानना हृदय से- उसको श्रद्धा कहते हैं- श्रद्धा। सबसे पहली चीज़ श्रद्धा है। उसके बाद महापुरुष का मिलन, उसके बाद सत्संग। सत् माने महापुरुष, संग माने मन का सरैण्डर, मन, बुद्धि उसको दे दिया। अब वह जैसा कहेगा वैसा ही करेंगे।

कितना बड़ा पापी था वाल्मीकि, कि राम नहीं कह सका। क्यों जी मरा कहा? हाँ। तो क्यों मरा में भी तो वही म और र दो अक्षर हैं। अगर कोई ‘म’ और रा कह सकता है तो राम क्यों नहीं कह सकता? सोचा, सोचा कभी आप लोगों ने बुद्धि से? ये कैसे पॉसिबिल है? या तो गूँगा हो या तो ‘म’ बोल ही न सके। ‘रा’ बोल ही न सके। मरा मरा मरा तो खूब बोल रहा है और राम राम क्यों नहीं बोल सकता? इतने अधिक उसके पाप थे कि राम नहीं बोल सका। (ध्यान दो।) लेकिन गुरु की शरणागति कितनी थी? आप सोच नहीं सकते। मरा मरा कहते रहना जब तक हम लौट कर न आवें। चुप। आप लोगों से कोई गुरु ऐसा कहे, ‘आप कब लौट कर आयेंगे?’ तुरन्त क्वेश्चन करेंगे। आप कहते हैं जब तक लौट कर न आवे तो कब लौट कर आयेंगे आप बताइये तो हमको। हम ऐसे ही पागल की तरह मरा मरा करते रहें? बाल्मीकि ने कुछ नहीं पूछा। कम्पलीट सरैण्डर। और अपना साधना करता रहा। गुरु हैल्प करते रहे। और महापुरुष बन कर निकला बल्मीक से- ये शरणागति है। हम लोग संसार के छल कपट वाले एटमॉसफियर में छल कपट से ऐसे भर गये हैं, हमारी बुद्धि में वह भर गया है कि भगवान् आवें तो, महापुरुष मिलें तो, ऐसा है कि हम भी तो कुछ समझते हैं। अरे! तुम अपने आप को तो समझ नहीं सके । महापुरुष और भगवान् को क्या समझोगे?

आप किसी से पूछो- आपका परिचय? जी मैं इलाहाबाद का कलैक्टर हूँ। मैं उपाधि नहीं पूछ रहा हूँ, मैं आपको पूछ रहा हूँ। जी जी मेरा नाम नन्दकिशोर है। नाम? अरे नाम नहीं, आपको पूछ रहा हूँ। अरे ! मैं मनुष्य हूँ। मनुष्य? ये तो आपकी बॉडी है, शरीर है। मैं आपको पूछ रहा हूँ। क्या अजीब आदमी है। और क्या हैं आप? आप अपने आप को नहीं जानते तो आपको पागलखाने में रहना चाहिये। बाहर कैसे हैं? जो अपने को न पहिचाने उसको लोग पागलखाने में रख देते हैं। बन्द कर देते हैं, तुम अपने आप को नहीं जानते और बहुत कुछ जानने का दावा करते हो, महापुरुषों को पहिचान लेते हैं हम। अरे महापुरुषों को केवल भगवान् और महापुरुष पहिचान सकता है-

भगवद रसिक रसिक की बातें रसिक बिना कोउ समुझि सकै न।

कृष्ण प्रेम जार चित्ते करे उदय। तार वाक्य क्रिया मुद्रा विज्ञे न बुझय।।

गौरांग महाप्रभु कहते हैं कि जिसके हृदय में श्री कृष्ण प्रेम प्रकट हो जाय, महापुरुष हो जाय जो, उसके वाक्य, उसकी क्रिया, उसके एक्शन कोई नहीं समझ सकता। विज्ञे न बुझय।

अन्तर्वाणीभिरप्यस्य मुद्रा सुश्रु सुदुर्गम।

जो भीतर से ज्ञान का भण्डार भरे हैं वह भी नहीं जान सकते रसिकों को। तुम क्या जानोगे?

देखो! तुम अपने आप को पहले समझो। तुम क्या करते हो संसार में? अन्दर गड़बड़ बाहर ठीक। अन्दर से आप नहीं चाहते ये आदमी आवे हमारे घर में रात को १२ बजे, हमारी नींद खराब करे। लेकिन जैसे ही वह आदमी आता है हैलो! श्रीवास्तव जी! अरे! अरे! भई तुमको तो हम कब से परख रहे हैं। ये क्या है? धोखा। ४२०, छल कपट। और ऊपर से बड़े सुन्दर शब्द। बड़ा मीठा स्वर। ये आप लोग करते हैं न? हाँ करते हैं। इसी को उल्टा करते हैं संत लोग। अन्दर बिल्कुल ठीक और बाहर उल्टा। अन्दर मायातीत, और बाहर माया का कार्य करते हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह, भयंकर करोड़ों मर्डर १, २, ४ मर्डर नहीं। ये हनुमान जी महापुरुषों के दादा। ये अर्जुन जी महापुरुषों के दादा। क्यों जी हम किसी को गाली देते हैं तो पहले गुस्सा आता है। पहले गुस्सा आएगा मन में तब तो गाली निकलेगी। और झापड़ लगाते हैं और गुस्सा आता है। और मर्डर कर देने में तो गुस्से में पागल हो जायेंगे तभी तो मर्डर करेंगे। और हजारों मर्डर किया है अर्जुन ने। हनुमान जी ने लंका ही जला दिया। लेकिन महापुरुष है। उनका कहीं द्वैत भाव है ही नहीं। वो तो सर्वत्र श्रीकृष्ण को देख रहे हैं अर्जुन जी-

तस्मात् सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युद्धय च।
(गीता ८-७)

निरन्तर मेरा स्मरण करना अर्जुन। सर्वेषु कालेषु। एक बटे सौ सैकेण्ड को भी मन मुझसे पृथक् न हो।

त्रिभुवनविभव हेतवेऽप्य कुण्ठस्मृतिरजितात्म सुरादिभिर्विमृग्यात्।
न चलति भगवत्पदारविन्दाल्लवनिमिषार्धमपि यः स वैष्णवाग्र्यः।।
(भागवत ११-२-५३)

एक सैकेण्ड को भी भगवान् से मन न हटे वो महापुरुष है। तो निरन्तर भगवान् में मन है अर्जुन का “सर्वेषु कालेषु” और युद्ध कर रहा है। मर्डर हो रहा है।

उमा जे राम चरन रत विगत काम मद क्रोध।
निज प्रभुमय देखहिं जगत का सन करहिं विरोध।

क्रोध-माया का विकार है। माया तो समाप्त हो गई हनुमान जी की। भगवान् के वो तो पार्षद हैं कभी उनके ऊपर माया नहीं आई थी। लेकिन ये सर्वत्र सीता राम को देखते हुये भी इतने मर्डर किये, ब्राह्मणों के, रावण के खानदान के। भगवान् ने अपनी डायरी में लिखा ही नहीं। क्यों? भगवान् कहते हैं- कर्म उसे कहते हैं जिसमें मन का अटैचमैन्ट हो। राग हो, द्वेष हो। ये दो में एक हो। या तो राग हो या तो द्वेष हो। उसका मन तो मेरे पास था। इसलिये मारने में शत्रुओं के प्रति न राग था, न द्वेष था। इसलिये वह कर्म नहीं है। वह जीरो में गुणा करो एक करोड़ से तो भी जीरो आयेगा।

अरे! देखो, अब होली आई है, कितने मजाक होते हैं होली पर और कितनी डिग्रियाँ मिलती हैं बड़े-बड़े काबिलों को- मूर्ख शिरोमणि वगैरह, वगैरह। और सब विभोर हो के हँसते रहते हैं। क्योंकि मंशा खराब नहीं है। अन्दर गड़बड़ नहीं है। इसलिये सब हँस देते हैं। ससुराल में कितनी गालियाँ (दूल्हे को) पहले मिला करती थीं बाकायदा ढोल बजा के और वो बैठ के धीरे-धीरे खा रहा है, चटनी चाट रहा और गाओ। क्योंकि दुर्भावना नहीं है। अन्दर भी ठीक बाहर भी ठीक। तो महापुरुषों का जो अन्दर गड़बड़ नहीं है और बाहर गड़बड़ दीखता है तो हम लोग तो बाहर वाले को देखकर ही निर्णय करते हैं। हमारी आदत है। अभ्यास है। अन्तर्यामी तो नहीं हैं हम लोग, अन्दर घुस कर देखें। ये हनुमान महापुरुष है कि नहीं है। ये अर्जुन महापुरुष है कि नहीं है। तो महापुरुषों को पहचानना ये असम्भव है जैसे भगवान् को जानना असम्भव है।

मां तु वेद न कश्चन।। (गीता ७-२६)

न च तस्यास्ति वेत्ता तमाहुरग्र्यं पुरुषं महान्तम्।।
(श्वेता. ३-१९)

वेद में भगवान् स्वयं कहते हैं- मुझे कोई नहीं जान सकता। और वही महापुरुष भगवान् एक ही शक्ति से युक्त हैं उसका नाम है योगमाया। वह “कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्तुं समर्थ” है। जो चाहे करे, जो चाहे न करे, जो चाहे उल्टा कर दे। ये योगमाया की शक्ति है। भगवान् की भगवत्ता भुला देती है। और तो क्या कहा जाए। भगवान् भूल जाता है-

प्रभु तरुतर कपि डार पर।

भगवान् भूल गये कि मैं स्वामी हूँ और ये बन्दर वन्दर जितने हैं ये हमारे नौकर हैं, दास हैं। वे ऊपर बैठे हैं पेड़ पर। भगवान् नीचे बैठे हैं। अब भगवान् को यह पता हो कि मैं भगवान् हूँ तभी तो डांटें उनको। और महापुरुषों को भी भुला दिया योगमाया ने कि मैं महापुरुष हूँ। हनुमान जी भी बैठे हैं डाल के ऊपर । उनको भी नहीं दिमाग में आ रहा है। जो “ज्ञानिनां अग्रगण्यम्” हैं। तो महापुरुषों को पहचानना समझना, असम्भव है। तो फिर क्या करें? क्या इलाज है? बस रोकर भगवान् से प्रार्थना करें कि हमको किसी महापुरुष से मिला दीजिए-

बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता।

जब द्रवइ दीन दयाल राघव। साधु संगति पाइये।

जब भगवान् कृपा करेंगे तो वो किसी महापुरुष को किसी बहाने मिला देंगे। लेकिन महापुरुष के मिलने पर भी शर्त वही है कि श्रद्धा हो आपकी पूर्ण।

गुरु वेदान्त वाक्येषु दृढ़ो विश्वासः श्रद्धा। (शंकराचार्य)

श्रृद्धा की परिभाषा है कि गुरु और वेद शास्त्र के ऊपर पूर्ण विश्वास उनकी आज्ञा का पालन हो सैन्ट परसेंट।

श्रद्धा शब्द कहे विश्वास सुदृढ़ निश्चय।
(गौरांग महाप्रभु)

गौरांग महाप्रभु भी उसकी यही परिभाषा कर रहे हैं और यह पूर्ण विश्वास कब होगा? जब वैराग्य होगा- माने संसार में सुख नहीं है- यह डिसीजन सैन्ट परसैन्ट हो जाए तब फिर उनमें ही सुख है। दो ही चीज तो हैं, दो ही दिशा तो हैं, एक भगवान्, एक माया- एक तरफ तो जाएगा और तीसरा तो जीव ही है। वह दो तरफ में एक तरफ तो जाएगा-

द्विविधो भूत सर्गोऽयं दैव आसुर एव च।
विष्णु भक्ति परो दैव आसुरस्तद्विपर्ययः।।
(अग्नि पु.)

एक भगवान् का एरिया, एक माया का एरिया और जाने वाला जीव का मन। आप लोग कभी कभी ये भी बोल देते हैं कि हमारा तो मन न भगवान् में लगता है न संसार में लगता है। कहाँ है? पैंडिंग में है? उसको लॉक कर दिया है कहीं? बकवास करते हो। अगर भगवान् में नहीं है तो संसार में है, है, है। पक्का प्रमाण। दो ही क्षेत्र तो हैं।

~ जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज

चमत्कार

‘चमत्कार’……….. ये शब्द प्राय: प्रत्येक संत महात्मा के साथ जुड़ा होता ही है बस शर्त ये है की वो असली संत होना चाहिए।

संत महात्माओ की इस अनचाही खासियत के कारण बहुत से पाखंडी लोग भी स्वयं संत महात्मा जैसा वेश धारण करके लोगो को बेवकूफ बनाते हैं और कामयाब भी हो जाते हैं, क्योकि हमारे देश में वास्तविक संत महात्माओ की बहुत गौरवशाली विरासत है इस कारण लोगो की संत वेश भूषा वाले लोगों में बहुत श्रद्धा होती है, लोग आसानी से असली संतो के प्रति श्रद्धा भाव से युक्त होने के कारण नकली संतो (पाखंडियो) द्वारा ठग लिए जाते हैं।

जबकि सच्चाई ये है की असली संत कभी ना तो स्वयं “प्रत्यक्ष” चमत्कार दिखाता है और ना ऐसी किसी कोशिश का समर्थन करता है। क्योकि ऐसा करना कुदरत के नियमो में दखल देना होता है, और संत जो भगवान् का प्रतिनिधि होता है वो ऐसा कदापि नहीं करता। कोई भी वास्तविक संत कभी भी भगवान् के बनाये नियमो का उल्लंघन नहीं करता। परन्तु फिर भी कभी कभी वास्तविक संत महात्माओ द्वारा भी चमत्कार करने के उदाहरण देखने सुनने में आते है।

कृपामयी संत कभी कभी किसी की श्रद्धा बढ़ाने या किसी की भक्ति करने में बाधक बन रहे किसी प्रारब्ध को काटने के लिए चमत्कार कर दिया करते हैं ऐसा वे सिर्फ अपवादस्वरूप और जीवो को भगवान् की भक्ति करने के लिए प्रेरित करने के लिए करते है और ऐसा भी सिर्फ सगुण साकार के उपासक संतो में देखने में आता है, निर्गुण निराकार के भक्त संतो में ऐसे उदाहरण बहुत कम देखने सुनने को मिलते है। चमत्कार करके और स्वयं की मान बड़ाई करवाना, ये कभी किसी किसी वास्तविक संत महात्मा का लक्षण नहीं हो सकता।

संतों के चमत्कार भगवान में श्रद्धा बढ़ाने वाले होते हैं, लोग और अधिकाधिक भगवान की भक्ति करें इसलिए। भगवान् से अपने लिए कुछ माँगना छोड़कर सिर्फ उनका प्रेम चाहते हैं संत।

संत सिद्धियों का प्रदर्शन नहीं करते। मात्र सांसारिक जड़ वस्तुओ में प्लस माइनस करने, उनमे हलचल मचाने से अलग और कुछ नहीं है, कोई हाथ में मनचाहे फूल की खुशबु पैदा कर दे, कोई पानी पर चलने लग जाए , इस सब से क्या होगा? क्या आत्मा का इससे कोई भला होता है? उसके लिए तो आपको भगवान से ही सम्बन्ध जोड़ना पड़ेगा, उनकी भक्ति करनी पड़ेगी, उनको अपना मानना पड़ेगा, दूसरा कोई विकल्प नहीं है, कोई ऐसा संत जो बिना किसी को साधना करवाये ही भगवत् प्राप्ति करवा दे? है क्या किसी के पास ऐसी सिद्धि? अगर संसारी जड़ पदार्थो में ऊंचा नीचा करना ही सिद्धि है तो वो खुद क्यों बाबाजी बना हुआ है? उसने क्यों नहीं संसार भोगा? खुद संसार को त्याग कर ‘बाबाजी’ क्यों बन गया। इसलिए भगवान की निष्काम भक्ति करने से ही काम बनेगा।

अधिकारी जीवों को संतों के अनेकानेक अनुभव हैं, लेकिन संतों की स्पष्ट आज्ञा होती है की यदि किसी को भगवान् के पथ पर आगे बढ़ते हुए कोई अनुभव हो तो उसे अपने तक सीमित रखना चाहिए, जिसका उद्देश्य “लोकरंजन” का है वो कदापि भगवान् के निकट नहीं पहुच सकता। अपने अनुभवो को अपने तक रखने से और इसे भगवान् की कृपा मानकर बार बार इसका चिंतन करने से भगवान् में आपकी श्रद्धा दृढ़ होती है और आप और तेजी और विश्वास से भगवान् की तरफ बढ़ते हैं।

सबकी श्रद्धा बढ़े, भगवद्ग विश्वास बढ़े, सबका कल्याण हो, इसलिए श्रद्धावान को बताने का अपवाद है।
राधे राधे 🙏

सर्वान्तर्यामी और अन्तर्यामी दोनों के बीच में क्या अंतर होता है ?

अन्तर्यामी जो होता है वो हर एक महापुरुष होता है। जिसने भगवत्प्राप्ति की हो वो सब अन्तर्यामी हो जाते हैं और सर्वान्तर्यामी केवल भगवान् है। वो इसलिये कि सभी जीवों के अंतः करण में वह एक – एक रूप से रहता है। ऐसा नहीं कि अलग गोलोक में बैठकर सर्वान्तर्यामी है, ऐसा नहीं। हर एक जीव के अंतः करण में एक भगवान् का रूप सदा रहता है। स्वर्ग जाय, नरक जाय, मृत्यु लोक में जाय चाहे जहाँ रहे वो साथ रहता है हमेशा और वो सबके आइडियाज, पुराने जन्मों के कार्य का हिसाब सब करता है। धन्धा उसका यही है। वो सर्वान्तर्यामी है और सर्वव्यापक है और महापुरुष अन्तर्यामी है जिसके मन की बात जब जानना चाहे जान सकता है। लेकिन सदा नहीं जानता रहता। यह काम भगवान् का है क्योंकि वो कर्म फल देना है उनको, तो उनको हमेशा जानना पड़ेगा।

भगवान् सर्वव्यापक हैं और आत्मा शरीर व्यापक। ये जीवात्मा खाली एक शरीर में है और भगवान् जड़ चेतन सर्वत्र व्यापक है।

~ जगद्गुरू श्री कृपालु जी महाराज

वास्तविक गुरु कभी संसारी वस्तु नहीं दिया करता!!

आजकल बहुधा दम्भियों ने यही मार्ग अपना लिया है कि गृहस्थियों को संसार चाहिये और वो संस्कारवश, प्रारब्धवश मिलता ही रहता है, इसी में हम भी सम्मिलित हो जायें और अपनी स्वार्थ सिद्धि एवं ख्याति प्राप्त कर लें। सोचिये तो कि वह महापुरुष किसलिए है, इसलिये कि उसने संसार को नश्वर समझ कर भगवान को प्राप्त कर लिया है, दिव्यानंद प्राप्त कर चुका है। यदि वह हमे संसार देता है तो वह महापुरुष है या राक्षस है? उसने तो अभी तक यही नहीं समझा है कि आनंद संसार में है या भगवान में। फिर वो महापुरुष कैसे? और महापुरुष क्या भगवान भी कर्मविधान के विपरीत किसी को संसार नहीं देते। ऐसे ही हम बेहोश हैं, उस इश्वर को भूले हुये है जिसमें परमानन्द है, फिर महापुरुष वेशधारी ने संसार देने का नाटक करके हमें और गुमराह कर दिया।

जरा सोचिये, जिस अभिमन्यु के मामा परात्पर पूर्णतम पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण एवं जिनके पिता अर्जुन महापुरुष थे एवं जिसकी शादी कराने वाले वेदव्यास स्वयं भगवान के अवतार थे, जब तीन-तीन महाशक्तियाँ मिलकर भी उस अभिमन्यु को नहीं बचा सकी तब हम दिन रात अपराध करते हुये, इश्वर से विमुख रहते हुये, स्त्री, पुत्रादि में आसक्त रहते हुये कैसे आशा रखते हैं कि कोई बाबा हमारे प्रारब्ध को काट देगा? हमारा यह दुर्भाग्य है कि हम लोग भारतीय शास्त्रों को नहीं पढ़ते अतएव इस प्रकार की महान त्रुटियाँ करते रहते हैं। प्रति वर्ष हमारे देश में ऐसा नाटक कहीं न कहीं विराट रूप में होता है और लाखों की भीड़ जमा हो जाती है, केवल इसलिये कि यह बाबा असंभव को संभव कर देता है। अगर ऐसा सामर्थ्य या अधिकार भगवान या किसी महापुरुष को होता तो अनादिकाल से अब तक अनंतानन्त बार भगवान एवं संतो के अवतीर्ण होने पर यह विश्व न बना रहता। जब वे संत लोग गाली एवं डंडा खाने को तैयार रहते हैं तब उन्हें यह कहने में क्या लगता है कि हे! समस्त विश्व के जीवों, तुम्हारा अभी ही तुरंत उद्धार हो जाये। बस, इतना कहने मात्र से काम बन जाये। भोले भाले लोगों को ठगने वाले ये दम्भी हमारे देश में निर्भयतापूर्वक विचरते हैं और आप लोग भी उनकी खोज में रहते हैं।

~ जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज

संत का वास्तविक चमत्कार क्या है? What is the real miracle of a Saint?

यह केवल ईश्वर की कृपा से ही होता है कि कोई व्यक्ति  भगवद्ग-प्राप्त संत से जुड़ता है, जो शिष्य के अहंकार और आसक्तियों को मिटाना है, जिन्हें अन्यथा व्यक्तिगत रूप से जड़ से उखाड़ना असंभव है। जैसे-जैसे शिष्य स्वयं को समर्पित करता है, वैसे-वैसे संत उसमें ईश्वर के प्रेम का संचार करता है! यह एक अनुभवगम्य विषय है, इसका शब्दों में वर्णन नहीं हो सकता!

It is only by the grace of God that an individual associate with a God-realized Saint, who is to eradicate the disciple’s ego and attachments, which are otherwise impossible to root out individually. As the disciple surrenders himself, so does the Saint radiate the love of God in him. This is an experiential subject, it cannot be described in words!

तेरी लीला सबसे न्यारी न्यारी हरि हरि..

भगवान और संत अन्तर्यामी होते हैं, उन्हीं को पता है कि किसके हृदय में क्या है, प्यार या खार, किसका कल्याण कैसे करना है। हम अपने दोष नहीं जान पाते।

भगवान परम लीला धारी हैं, जब वे अपने स्वांश नारद जी आदि के साथ लीला करने में नहीं चूकते तो हमारा कल्याण तो करेंगे ही..

नारद ने मांगा हरिरूप, मिला हरी(वानर) रूपः स्वयं को महादेव जैसा साधक समझने वाले नारद का मान भंग

नारदजी एक बार घूमते-घूमते हिमालय की पहाड़ियों में बने एक आश्रम पहुंच गए. गंगा किनारे बसा यह स्थान नारदजी को इतना भाया कि उन्होंने वहां तप करने की ठाऩी.

यह वही क्षेत्र था जहां शिवजी ने समाधि लगाई थी और समाधि भंग करने की चेष्टा में कामदेव स्वयं भंग हो गए थे. नारदजी ने समाधि लगाई और करीब हजार वर्ष समाधि में लीन रहे.

देवराज इंद्र को बड़ा भय हुआ कि कहीं नारद तप से भगवान शंकर को प्रसन्न कर उनका पद तो नहीं छीन लेना चाहते. इंद्र ने नारदजी का तप भंग करने के लिए कामदेव को भेजा.

कामदेव ने अपनी सारी कलाओं का प्रयोग किया लेकिन शिवजी ने जिस स्थान पर कामदेव को एक बार भंग किया था वहां काम को सफलता कैसे मिलती! ऊपर से नारद शिवजी का ध्यान कर रहे थे.

कामदेव हारकर अमरावती लौट गए और नारदजी गुणगान करने लगे. इधर नारदजी की तपस्या पूरी हो गई. इंद्र नारद के पास आए और सारी बात बताकर कहा कि आप साक्षात शिवजी के समान कामविजयी हो चुके हैं. सुनकर नारद फूल गए.

वह भगवान शंकर के पास पहुंचे, उन्हें प्रणाम किया और सारी बात कह सुनाई. भोलेनाथ मुस्काते रहे और नारद को आशीर्वाद देकर विदा किया. वहां से नारद अपने पिता ब्रह्माजी के पास पहुंचे और सारी बात उन्हें भी सुना डाली.

ब्रह्मा समझ गए कि नारद स्वयं को शिवजी जैसा तपस्वी समझने लगा है. वह बोले− पुत्र! अपने तप और कामदेव के असफल प्रयासों के बारे में किसी से चर्चा न करना. खासतौर से यदि श्रीविष्णुजी पूछें तो भी इसे छिपा लेना.

नारदजी को यह अच्छा नहीं लगा कि भगवान स्वयं पिता ही पुत्र को घोर तप और काम के प्रभाव से बेअसर रहने जैसे गुणों का बखान करने से रोक रहे हैं. दुखी मन से वह भगवान विष्णु से मिलने बैकुण्ठ को चल दिए.

शिवजी की सलाह की अनदेखी करते हुए उन्होंने वहां अपना बखान गाया. विष्णु भगवान समझ गए कि नारद के मन में अहंकार पैदा हो गया है. मुनि के मन में ऐसे भाव नहीं आने चाहिए वरना उसका तेज समाप्त हो सकता है.

प्रभु बोले− देवर्षि आप तो ज्ञान और वैराग्य की साक्षात मूर्ति ठहरे. भला आपको काम, मद और मोह जैसे अवगुण कैसे घेर सकते हैं. प्रशंसा से फूले नारदजी ने अभिमान से भरकर कहा− प्रभु यह तो आपकी कृपा है.

श्रीहरि ने नारद के मन का अहंकार मिटाने की सोची. भगवान ने अपनी माया से बैकुंठ से भी सुंदर एक नगर की पृथ्वी पर रचना कर दी. नारद ने पहले यह नगर कभी देखा नहीं था. इसलिए वह नगर घूमने चले गए.

नगर को दुल्हन की तरह सजाया गया था. लोगों से पूछने पर नारद को पता चला कि यहां का राजा शीलनिधि अपनी बेटी का स्वयंवर करा रहा है. देश विदेश के राजा आ रहे हैं.

नारदजी राजा के पास गए तो राजा ने उनसे विनती कि वह राजकुमारी को आशीर्वाद दें. नारदजी ने कन्या की कुंडली देखी. वह उसके लक्षणों को देखकर चकित रह गए. इस विलक्षण कल्याण से विवाह करने वाला अजर अमर हो जाएगा.

युद्ध में अजेय रहेगा. सारा संसार उसकी सेवा करेगा. नारदजी कन्या पर रीझ गए थे. उसे प्राप्त करने के विचारों में खोए वहां से चले. उन्होंने भगवान विष्णु का ध्यान किया. प्रभु प्रकट हुए.

नारदजी ने प्रार्थना की− प्रभु! अपने भक्त का कल्याण करिए. मैं राजकुमारी से विवाह करना चाहता हूं परंतु मेरे रूप को वह पसंद नहीं करेगी. इसके लिए मुझे हरिरूप चाहिए. आपकी कृपा के बिना मेरा कल्याण संभव नहीं है.

प्रभु ने कहा− नारद, जिस प्रकार वैद्य औषधि देकर रोगी का कल्याण करता है, उसी प्रकार मैं तुम्हारा कल्याण अवश्य करूंगा. भगवान की बातें स्पष्ट थीं. नारदजी पर काम और मोह सवार था. साधु के लिए यही रोग है.

नारदजी मोह तथा काम में अंधे हो गए थे. वह यह भूल गए कि अभी-अभी कामरहित होने की डींग मारकर गए थे. वह स्वयंवर में पहुंचने के लिए इतने उतावले थे कि आइने में शक्ल भी नहीं देखी कि आखिर प्रभु ने उन्हें रूप दिया कैसा है?

उन्हें तो विश्वास था कि वह स्वयं श्रीहरि की छाया बन चुके हैं. हरि का एक अर्थ वानर भी होता है. नारद ने हरि रूप मांगा तो प्रभु ने उन्हें वानर वाला हरि रूप दे दिया. वानर की शक्ल में नारद स्वयंवर में पहुंचे.

स्वयंवर में आए देवों और राजाओं ने नारद को वानर रूप में देखा तो उन्हें हंसी तो आई लेकिन शाप के डर से हंसी रोके रखी. राजकुमारी जयमाला लेकर स्वयंवर सभा में आई. जैसे ही नारद पर उसकी नजर पड़ी वह हंसने लगी.

स्वयं भगवान विष्णु भी राजा के रूप में उस सभा में बैठे थे. श्रीमती ने माला भगवान के गले में डाल दी. प्रभु उसे लेकर चल दिए. नारदजी बड़े दुखी होकर चले. नारदजी को ब्राह्मणवेश में शिवजी के दो सेवक मिले.

उन्होंने नारदजी से पूछा कि आपने वानर वेश क्यों धारण कर रखा है. नारदजी ने गणों को शाप दिया- मेरे जैसे सिद्ध का उपहास करने वाले तुम दोनों राक्षस कुल में जन्म लोगे. दोनों ने इसे होनी समझकर स्वीकारा और चले गए.

नारद ने तालाब के जल में झांका तो बंदर की शक्ल देखकर आग-बबूले हो गए. तिलमिलाए बैकुंठ लोक की ओर दौड़े. रास्ते में श्रीहरि और श्रीमती मिल गए.

नारदजी ने श्रीहरि को खरी-खोटी सुनानी शुरू कर दी- आपने समुद्र मंथन के दौरान मोहिनी रूप में असुरों से छल किया. शिवजी को हलाहल पिला दिया जबकि मंथन से निकलीं लक्ष्मी देवी को अपने लिए मांग लिया.

आज छल से मेरी प्रिय कन्या छीन ली. मैं स्त्री विरह में जिस प्रकार व्याकुल हूं, आपको भी ऐसा स्त्री विरह भोगना पड़ेगा. मुझे वानर रूप देकर स्त्री से अपमानित कराया. स्त्री प्राप्त करने के लिए वानरों से सहायता की याचना करनी पड़ेगी.

नारद क्रोध में बोलते जा रहे थे तभी शिवजी ने अपनी माया समेट ली. श्रीहरि ने सहज भाव से शाप स्वीकार लिया. अब नारदजी को घोर पछतावा हुआ. वह श्रीहरि के चरणों में सिर रखकर फूट-फूटकर रोने लगे.

कभी छाती पीटते तो कभी अपने मुख पर थप्पड़ लगाते जिससे ये वचन निकले. श्रीहरि ने कहा- नारद इसमें तुम्हारा दोष नहीं. शिवजी की माया के वश में यह सब हुआ. शिवजी के सहस्त्रनाम स्तोत्र को जपते उनका ध्यानकर पश्चाताप करो.

नारदजी वहां से शिवजी का ध्यान करने काशी चले गए. (शिव पुराण)

भगवान से सही-सही प्राथना कैसे करें, उनका नाम कैसे लें, भाव कैसे बने?

भगवान के “होकर”, उनको “अपना” मान कर, “निर्बल” होकर “आश्रित” होकर उनसे प्राथना करें,  उनको पुकारें, उनका नाम लें, उनका ध्यान करें, फिर भगवान मीठे लगने लगेंगे, रोम रोम में समाने लगेंगे, जब उनके बिना फिर रहा नहीं जाएगा, तब वो आ जाएंगे।

बिगड़ी जन्म अनेक की अभी सुधरे आज,
“होए” राम को नाम भजु, तुलसी तजु कुसमाज।

रोम रोम जब रग रग बोले तब कुछ स्वाद नाम को पावे।

हम भगवान के कैसे “हों”, उन्हें “अपना” कैसे माने, अपनें में “दीनता निर्बलता आश्रय” आदि गुण कैसे लाएं? यह सब श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ गुरु से “गहराई” से समझें, उनका संग करें, उनकी सेवा करें, फिर उनकी कृपा से ज्ञान होगा, चिंतन दृढ़ होगा, तब “भाव” बनेगा और गाड़ी चलेगी!

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया |
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिन: ||
श्रीमद् भगवद्गीता 4.34

श्री कृष्ण कह्ते हैं कि श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ तत्वदर्शी गुरु के पास जाकर सत्य को जानो। विनम्र होकर उनसे ज्ञान प्राप्त करने की जिज्ञासा प्रकट करते हुए ज्ञान प्राप्त करो और उनकी सेवा करो। ऐसा सिद्ध सन्त ही तुम्हें दिव्य ज्ञान प्रदान कर सकता है क्योंकि वह परम सत्य की अनुभूति कर चुका है।

गुरु सेवा बिन भक्ति ना होई, अनेक जतन करै जे कोई।

“रे मन रसिकन संत संग बिनु रंच न उपजै प्रेम”