Question/प्रश्न: Maharaj Ji! For attaining God, the Sadhana (spiritual practice} will be very long or can it be shortened? महाराज जी! भगवत्प्राप्ति के लिये साधना बहुत लम्बी होगी या इसे शॉर्ट भी किया जा सकता है?

Answer/उत्तर: There is no question of long or short in this. It depends only on our restlessness. That yearning, the restlessness of meeting should increase to the limit, it should happen as quickly as possible. We have to purify our inner self and the rest of the work will be done by the Guru and God. We will not do that, we cannot do it. From where will we buy the divine thing? The things that we have are material. Senses, mind, intellect, all are dirty. So by giving them away, the divine love of God, divine vision (darshan), this cannot happen with the natural eyes. We can only purify our inner self and for that, the only way is to increase restlessness. We have to increase the restlessness of meeting God by crying. Just like an innocent child, newly born, does not know anything, just cried and called out, now wherever the mother is, she will come and do her work. Child does not have to do anything. This is the meaning of complete surrender. Similarly in the matter of God.

Now since we have practised doing in infinite births, ‘I do, I do’, therefore I do not do. I surrender, it will take time to come to this state. Now whatever time you can give, by practising. This is what God said to Arjun:

Abhyasen tu kaunteya vairaagyena cha guhmate. (Gita 6-35)

Arjun! Remove your mind from the world and focus on me. Through the knowledge (Tattvajnan) that you are the divine soul, the world is material. This is for the body. God is for the soul, it is a simple matter. Do not try to see with the ears. Know that ears are for listening. Do not wish for happiness from the world, take a firm decision.Turn around. Only when you are determined firmly you can you move towards God. Our decision is not firm yet. Oh! Our wife is bad, other one’s is better. Our mother is bad, other one’s better. You think this. You do not think that everyone is in the same situation. Be it Bill Gates or a beggar, everyone is unhappy. Everyone is under the same tension. There is a delay in some decision, if that happens, by thinking again and again, then the speed of moving towards God will increase. Now we spend an hour or half an hour on the spiritual side and the rest of the time on the world.

This world keeps dominating. We washed a little dirt with soap and then applied it ten times more. So the mind is one, what can that poor thing do? You purified it by worshipping it for a while, and then again immersed it in the worldly affairs of mother, father, son, wife, husband, that is where the problem arose. So that is why you will have to work hard continuously. The day you surrender completely, the work is done. Do it in one day, do it in one year, do it in one birth, do it in ten births, you will have to do it, without it the goal of peace and happiness will not be achieved. Hey. We don’t do it, we don’t get into this mess. If you don’t get into this mess, then get into the mess of 84 lakhs species. You will have to get into a mess!

~ Jagadguru Shri Kripalu Ji Maharaj

इसमें कोई लम्बी और छोटी की बात ही नहीं है। ये तो खाली हमारी व्याकुलता पर निर्भर है। वो तड़पन, मिलन की व्याकुलता की लिमिट एक दम बढ़ जाये, जल्दी से जल्दी हो जाये। अन्त:करण की शुद्धि ही तो करना हैं हमको और बाकी काम तो गुरु और भगवान्‌ करेंगे। वो तो हम करेंगे नहीं, हम से हो भी नहीं सकता। दिव्य वस्तु हम कहाँ से खरीदेंगे? हमारे पास जो सामान खरीदने वाला है, वो मायिक है। इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, सब गन्दे। तो इनको दे करके भगवान्‌ का दिव्य प्रेम, दिव्य दर्शन, ये प्राकृत आँख से तो हो नहीं सकता। खाली अन्त:करण की शुद्धि हम कर सकते हैं और उसके लिये केवल व्याकुलता बढ़ाना एक मात्र उपाय है। रोकर उनके मिलने की व्याकुलता बढ़ाना है। जैसे भोला बालक होता है, तुरन्त का पैदा हुआ, कुछ नहीं जानता, केवल रोकर पुकार दिया, अब जहाँ कहीं माँ होगी, आयेगी, अपना काम करेगी। उसको कुछ नहीं करना। कम्पलीट सरेण्डर का मतलब ये। तो ऐसे ही भगवत्‌ विषय में भी।

अब चूँकि हमने अनन्त जन्म में करने का अभ्यास किया है ‘मैं करता हूँ, मैं करता हूँ’, इसलिये मैं नहीं करता। सरेन्डर करता हूँ, इस अवस्था पर आने में समय लगेगा। अब जितना समय जो दे सके, अभ्यास से। अर्जुन से भगवान्‌ ने यही कहा –

अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गुह्मते। (गीता ६-३५)

अर्जुन! मन को संसार से हटाकर मुझमें लगा। तत्त्वज्ञान के द्वारा कि तू आत्मा है, संसार मायिक है। ये शरीर के लिये है। आत्मा के लिये भगवान्‌ है, सीधी-सीधी बात है। कान से देखने की चेष्टा मत करो। जान लो कि कान सुनने के लिये होता है। ऐसे ही संसार से सुख पाने की कामना मत करो, डिसीजन ले लो, पक्‍का। वो एबाउट टर्न हो जाओ। कमर कसकर डट जाये तब भगवान्‌ की ओर चल सकता है। हमारा निर्णय पक्का नहीं है अभी। ऐ! हमारी बीबी खराब है, उसकी अच्छी होगी। हमारी माँ खराब है वो अच्छी होगी। तुम ये सोचते हो । तुम ये नहीं सोचते कि सबका एक हाल है। वो चाहे बिल गेट्स हो, चाहे भिखारी हो, सब दुःखी हैं। सबको टेन्शन है एक-सा | कुछ डिसीजन में देरी है, वो हो जाये, बार-बार, बार-बार चिन्तन से तो फिर भगवान्‌ की ओर चलने में तेजी आ जाये। अब हम घण्टे आधा घण्टे तो समय देते हैं स्प्रचुअल साइड में और बाकी संसार में समय दे रहे हैं।

ये संसार हावी होता रहता है। थोड़ा-सा हमने गन्दगी धोया साबुन से और दस गुना लगा दिया फिर। तो मन तो एक है, वो बेचारा क्या करे? तुमने उसको थोड़ी देर उपासना करके शुद्ध किया, और माँ, बाप, बेटा, स्त्री, पति संसार के प्रपंच में फिर डुबो दिया, वहीं गड़बड़ हो गया । तो इसलिये लगातार परिश्रम करना होगा। जिस दिन ये पूरा-पूरा सरेन्डर कर देगा, बस हो गया काम । एक दिन में कर दे, एक साल में कर दे, एक जन्म में, दस जन्म में कर दे, करना पड़ेगा, उसके बिना सुख शान्ति का लक्ष्य नहीं हल होगा। ऐ। अजी हम नहीं करते, हम इस चक्कर में नहीं पड़ते । इस चक्कर में नहीं पड़ते तो चौरासी लाख के चक्कर में पड़ो। पड़ना तो पड़ेगा ही एक चक्कर में।

~ जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज

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Trust God Completely. परमेश्वर पर पूरा भरोसा करें।

God says that your worrying after relying on me is a disbelief in me, a disgrace on surrender, and this is due to your pride. Not having faith and belief in me after taking refuge in me is a distrust against me and worrying about your problems & faults and believing that you have the strength to remove them is your pride. Leave these.

भगवान कहते हैं कि मुझ पर भरोसा करके चिंता करना मुझ पर अविश्वास है, शरणागति पर कलंक है और यह तुम्हारे अभिमान के कारण है। मेरी शरण में आकर मुझ पर श्रद्धा और भरोसा न रखना मेरे प्रति अविश्वास है और अपनी समस्याओं और दोषों के बारे में चिंता करना और यह मानना ​​कि उन्हें दूर करने की शक्ति स्वयं में है, यह तुम्हारा अभिमान है। इन्हें छोड़ दो।

~ Saints Sayings संत वचन
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भगवान कैसे मिलते हैं? How is God realized?

जो सोचता है अभी बहुत साधना करनी है भगवान को पाने को, निसंदेह उसे अभी बहुत साधना करनी है। जो समझ गया है कि भगवान कोई साधना से नहीं मिलते, कोई बल से नहीं मिलते, बल्कि साधनहीन भाव से मिलते हैं, निर्बल को मिलते है, चाहए साधना कर-कर के हार के यह समझो या विवेक से समझो, फिर उस समझ में, उस पुकार में जो दीनता होगी, बस उनका ही सहारा होगा, फिर आँखों से आसु नहीं रुकेंगे, पल-पल उनसे मिलने की तड़पन होगी, हर पुकार भगवान को अपनी ओर खीचेगी और जब एक-एक पल युग के समान प्रतीत होगा, तब उनको आना ही पड़ेगा!

The one who thinks that he still has to do a lot of sadhana to attain God, undoubtedly he still has to do a lot of sadhana. And the one who has understood that God is not realized through any sadhana or any strength, He reveals Himself to the meek and surrendered souls, You can understand this after doing years of spiritual practice or you can understand it with wisdom, then in that understanding, there will be a submission, tears will flow nonstop, every moment there will be a great yearning to meet Him. Your every call will bring God near to you and when each moment seems like an eternity, then God will have to come!

WITHOUT REFUGE IN GOD, ALL EFFORTS ARE A WASTE. ईश्वर की शरण के बिना, सब प्रयत्न व्यर्थ हैं!

कृष्ण-कृपा बिनु जाय नहिँ, माया अति बलवान।
शरणागत पर हो कृपा, यह गीता को ज्ञान।।
~ जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
भक्ति शतक (दोहा 29)

यह माया शक्ति इतनी बलवती है कि शक्तिमान भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा के बिना नहीं जा सकती। और यह कृपा भी केवल शरणागत जीव पर ही होती है। यह सम्पूर्ण गीता का सारभूत ज्ञान है।

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते॥
~ श्रीमद्भगवद्गीता 7.14

प्रकति के तीन गुणों से युक्त मेरी दैवीय शक्ति माया से पार पाना अत्यंत कठिन है किन्तु जो मेरे शरणागत हो जाते हैं, वे इसे सरलता से पार कर जाते हैं।

सो दासी रघुबीर कै समुझें मिथ्या सोपि।
छूट न राम कृपा बिनु नाथ कहउँ पद रोपि॥
~ रामचरितमानस

कुछ लोगों का विचार है कि माया मिथ्या अर्थात अस्तित्त्वहीन है परन्तु माया वास्तव में एक शक्ति है जो भगवान की सेवा में लगी रहती है। वह श्री रामजी की कृपा के बिना छूटती नहीं। हे नाथ! यह मैं प्रतिज्ञा करके कहता हूँ॥

Jagadguru Shri Kripalu Ji Maharaj in Bhakti Shatak Doha 29 says –

Maya is an insurmountable power of God. One can not be released from its clutches without the grace of God. And this grace is only available to a surrendered soul. This is the essence of the entire Gita.

Lord Shri Krishna in Bhagavad Gita 7.14 says –

My divine power Maya, consisting of the three modes of nature, is very difficult to overcome. But those who surrender unto Me cross over it easily.

Shri Tulsi Das Ji in Ram-charita-manas
says –

Some people think that maya is mithya i.e. non-existent but maya is actually a power engaged in the service of the Lord. It does not leave without the grace of Shri Ramji. Hey Nath! I declare this.

Suffer everything for the love of God! ईश्वर प्रेम में सब कुछ सह जाओ!

When we are insulted, accused and laughed at, then we have to imbibe the qualities of patience, meekness and humility, to bear silently in the love of God. 

Whether we are wronged or not, we have to think that I deserve this, so many people I have hurt in my ego and indulgence. God is sanctifying me, I have to bear the pain.

Also, only those who are unhappy, hurt others. We should learn to be merciful and pray for them. They are lost children of God, our brothers & sisters.

If we choose to question or reprimand the behavior, we should reciprocate intelligently and politely with love and compassion in our heart for their betterment, not for our own ego gratification or out of retaliation.

जब हमारा अपमान हो, आरोप लगे और हंसी हो, तब हमे धैर्य, नम्रता और दीनता के गुणों को धारण करना है, प्रभु प्रेम में चुपचाप सहना है।

चाहे हमारे साथ अन्याय हो या न्याय, हमे ये सोचना है कि मैं इसी लायक हूँ, अपने अहंकार और आसक्ति में मैंने कितनों को दुख दिया है, प्रभु मेरा सुधार कर रहे हैं, दुख को सह जाना है।

इसके अतरिक्त, जो अशांत हैं वहीं दूसरे को दुख देते हैं, उन पर दया करनी है, वह ईश्वर के भटके हुए बच्चे, हमारे भाई-बहन हैं।

यदि उनके व्यवहार के उत्तर में हम कुछ बुद्धि-संगत कहते हैं या उसकी भर्त्सना करते हैं, तो हमें वो ह्रदय में विनम्रता, प्रेम और दया के साथ उनके सुधार के लिए करना है, न कि अपने अहंकार की पुष्टि या प्रतिशोध में।

My Lord, I am all things unholy! हे प्रभु, मैं सर्वप्रकार अपवित्र हूँ!

However Big a sinner he may be, his welfare is certain if he is completely dependent on the grace of God!

कितना ही बड़ा पापी क्यों ना हो, उसका कल्याण निश्चित है अगर वो प्रभु कृपा पर पूर्णता आश्रित है!

पाप किय अनंत मैंने, ह्रदय कठोर खल कामी,
आया शरण हार के, कृपा करो अब स्वामी।

My Lord, I have committed endless sins, my heart is hardened due to treachery and indulgence. I am lonely and lost, seeking your shelter. May you have mercy on me!

Humble ourselves or life will do it for us. खुद झुक जाये नहीं तो जिंदगी झुका देगी।

Until we are tired, broken by our faults and sorrows, we do not understand our pitiable condition and do not feel humble before God. God love us immensely, His shelter is the only solution.

जब तक हम थक नहीं जाते, अपने दोषों और दुखों से टूट नहीं जाते, तब तक अपनी दयनीय स्थिति समझ में नहीं आती और ईश्वर के आगे दीनता नहीं आती। ईश्वर हमें बेहद प्रेम करता है, उसका आश्रय ही एक मात्र उपाय है।

इतना सरल है भगवान को जानना, पाना!

माता-पिता की आत्मीयता बालक से स्वाभाविक होती है। जब बालक कुछ समझ नहीं पाता या कर नहीं पाता तो उनसे कहता है, उनकी शरण हो जाता है। तब वात्सल्य भाव से वह समझा देते हैं, कर देते हैं। ऐसे ही भगवान को जानने पाने के लिए भोले बालक की तरह, सरलता-दीनता-अपनेपन के भाव से, उनको बस सच्चे ह्रदय से कहना है। वह मिल जाएंगे।

भगवान से सही-सही प्राथना कैसे करें, उनका नाम कैसे लें, भाव कैसे बने?

भगवान के “होकर”, उनको “अपना” मान कर, “निर्बल” होकर “आश्रित” होकर उनसे प्राथना करें,  उनको पुकारें, उनका नाम लें, उनका ध्यान करें, फिर भगवान मीठे लगने लगेंगे, रोम रोम में समाने लगेंगे, जब उनके बिना फिर रहा नहीं जाएगा, तब वो आ जाएंगे।

बिगड़ी जन्म अनेक की अभी सुधरे आज,
“होए” राम को नाम भजु, तुलसी तजु कुसमाज।

रोम रोम जब रग रग बोले तब कुछ स्वाद नाम को पावे।

हम भगवान के कैसे “हों”, उन्हें “अपना” कैसे माने, अपनें में “दीनता निर्बलता आश्रय” आदि गुण कैसे लाएं? यह सब श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ गुरु से “गहराई” से समझें, उनका संग करें, उनकी सेवा करें, फिर उनकी कृपा से ज्ञान होगा, चिंतन दृढ़ होगा, तब “भाव” बनेगा और गाड़ी चलेगी!

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया |
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिन: ||
श्रीमद् भगवद्गीता 4.34

श्री कृष्ण कह्ते हैं कि श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ तत्वदर्शी गुरु के पास जाकर सत्य को जानो। विनम्र होकर उनसे ज्ञान प्राप्त करने की जिज्ञासा प्रकट करते हुए ज्ञान प्राप्त करो और उनकी सेवा करो। ऐसा सिद्ध सन्त ही तुम्हें दिव्य ज्ञान प्रदान कर सकता है क्योंकि वह परम सत्य की अनुभूति कर चुका है।

गुरु सेवा बिन भक्ति ना होई, अनेक जतन करै जे कोई।

“रे मन रसिकन संत संग बिनु रंच न उपजै प्रेम”

दो बातन को भूल मत जो चाहत कल्याण, नारायण एक मौत को दूजो श्री भगवान।

कोई कभी भी मर सकता है, किसी क्षण मर सकता हैं, अब वो क्या करेगा ध्यान, क्या करेगा ज्ञान, क्या करेगा साधना और क्या करेगा अराधना?

समय नहीं हैं, सब बल त्याग कर भगवान को पुकारने का अवसर बस इसी क्षण है, अगला क्षण मिले ना मिले, अभी शरणागत हो सकता है जीव, तुरंत, अभी भगवान को पा सकता है, तुरंत, कुछ करने का भी अवसर नहीं है यह मन में बैठा कर फिलिंग करो, करुण क्रंदन करो, पुकारो भगवान को, जो भगवान कभी नहीं मिले, अभी मिल जाएंगे, वो बहुत दयालू हैं, हम अहंकार से भरे हैं इसलिए नहीं मिलते वो…

अनंत पाप हैं हमारे। हम अनंत जन्म में अनंत दुख पा चुके, पा रहें हैं और पाते रहेंगे। हमें समझना है कि हम कितने लाचार हैं, कल्याण कभी अपने बल से, साधना कर के नहीं होता, शरणागति की “मनों स्थिति” लाने से होता है, भगवान के आश्रय से होता है, जो कभी नहीं हुआ वो एक क्षण में होता है, कृपा से होता है।

मनुष्य जन्म अमूल्य है, जन्म-मरण चक्र से निकलने का दुर्लभ अवसर ना चुकें! हर पल भगवान को पुकारें, पता नहीं कब मृत्यु आ जाए, चौरासी लाख में फिर फंस जाएं, कौन सी योनि मिलें, फिर यह मौका मिले ना मिले..

भगवान कैसे मिलें? क्या भगवान हमें प्रेम करते हैं? हमेशा के लिय दुख कैसे जाए? क्या भगवान साकार हैं? क्या उनका लोक है? इस संसार का क्या स्वरूप है?

भगवान केवल रोने से मिलते हैं.. प्रेम से मिलते हैं.. भक्ति से मिलते हैं.. केवल आँसू ही एक माध्यम हैं उन्हें बताने के लिए हम उनके बिना कुछ भी नहीं.. हम असहाय हैं.. अनाथ हैं.. अपराधी हैँ.. अनंत पाप किए बैठे हैं..  उनको ना जाना ना माना.. उनके प्रेम का अनादर किया..

“मो सम कौन कुटिल खल कामी। जेहिं तनु दियौ ताहिं बिसरायौ, ऐसौ नमकहरामी॥” ( सूर सागर ~ संत सूरदास)

भगवान के लिय सच्चे आँसुओं में अनन्त बल है जो केवल निर्बल को प्राप्त है..आश्रित को प्राप्त है..प्रेमी को प्राप्त है.. व्याकुलता से भरा एक एक आँसू एटॉमिक बम है..

भगवान की कृपा के बिना ना मन शुद्ध होगा. ना ही दुख निवृत्ति होगी.. भगवद्ग प्राप्ति, परमानंद प्राप्ति, माया निवृत्ति की तो छोड़िए.. कोई लाख ध्यान कर ले ज्ञान कर ले.. बड़े बड़े ज्ञानी योगी हुए, हैं, होंगे.. हज़ारों वर्ष तपस्या की.. बड़ी बड़ी योगिक सिद्धियां मिल गई.. पर माया नहीं गई.. आत्मिक आनंद (मायीक सात्विक आनंद) को ही दिव्यानंद, परमानंद समझ लिया.. भगवान के शरणागत नहीं हुए.. भक्ति नहीं की.. फिर पतन हो गया… जीवन-मुक्त जड़भरत की यहि कहानी है .. फिर जब भक्ति की अगले जन्म में तो भगवान की कृपा से उद्धार हुआ.. इतिहास गवाह है.. शास्त्र प्रमाण हैं.. भरा पड़ा है… 

कलिजुग जोग न जग्य न ग्याना। एक अधार राम गुन गाना॥ सब भरोस तजि जो भज रामहि। प्रेम समेत गाव गुन ग्रामहि॥ (रामायण)

हम संसार में भोग के लिए नहीं आए.. अगर हमने भगवान को ना जाना तो बहुत बड़ी हानि हो जाएगी.. चौरासी लाख योनि में जाने की तैयारी है.. जहां महा दुख है.. यह परिवार, धन दौलत, मान सम्मान कुछ साथ नहीं जाएगा.. मनुष्य जन्म अनमोल है..

“अवसर चुकीं फिरी चौरासी कर मींजत पछतात.. अरे मन अवसर बीतो जात”.. (प्रेम रस मदिरा ~ जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज)

भगवान हमसे अनंत प्रेम करते हैं, हम अनन्त काल से अंधकार में हैं, पर हमेशा रहें ऐसा जरूरी नहीं, हम भगवान को भूले हुए हैं, पर वो हमे नहीं भूले, वो हमे उनका सब कुछ देना चाहते हैं दिव्य-दिव्य, इस दुखमय मायीक संसार से निकालना चाहते हैं.. क्या नहीं करते भगवान हमारे लिए, निराकार रूप से सर्वव्यापक हैं, यह संसार बनाया, शरीर बनाया, हमारे हृदय में.. आत्मा में बैठें हैं, हमारे सारे कर्म नोट करते हैं, अच्छे बुरे कर्मों का फल देते हैं, सब व्यवस्था रखतें हैं, परमाणु परमाणु में बैठकर.. संसार का ऐसा स्वरूप बनाया कि हम दुख पाने पर जागें और सोचें कि क्या हम शरीर हैं? क्या इस संसार में सच्चा सुख है? हमारा दुख कैसे जाए? .. असली में हम कौन हैं, हमारा कौन हैं? आदि ..पर हम इतने संसार आसक्त हो गए कि लाख दुख पाने पर भी वहीं नाक रगड़तें हैं.. आनंद की भूख इतनी प्रबल है कि दुख पाने पर भी अनित्य, क्षणिक सुख में बार बार गिरते हैं..

भगवान असली में हैं, वो साकार हैं और निराकार भी, उनका शरीर दिव्य है, सच्चिदानंद विग्रह है, मैटीरियल नहीं.. तर्क से भी सर्वशक्तिमान भगवान क्या साकार नहीं हो सकते? साकार ही नहीं वो “नित्य” साकार हैं और निराकार का आधार हैं..

द्वे वाव ब्रह्मणो रूपे मूर्तं चैव अमूर्तं च । (बृहदारण्यकोपनिषत् २-३-१)

अर्थात्‌ साकार एवं निराकार भगवान के दो स्वरूप होते हैं।

चिदानन्दमय देह तुम्हारी, विगत विकार जान अधिकारी। (रामायण )

आपका देह दिव्यातिदिव्य है, चिन्मय-अविनाशी है, जिसके दर्शन दिव्य दृष्टि मिलने पर होते हैं।

उनके दिव्य लोक हैं उनका सब कुछ दिव्य है.. उनको प्राप्त करने पर जीव को भी दिव्य देह मिलती है (दिव्य भाव देह) और उनका लोक भी दिव्य है अपितु स्वयं बन गए हैं..

साकार भगवान के प्रेमानंद की एक बूंद पर अनंत ब्रह्मानंद (निराकार भगवान का आनंद) न्यौछावर हैं.. इतना बड़ा और रसमय हैं भगवान के साकार स्वरूप का आनंद.. इसलिए भगवान ने साकार संसार बनाया हैं (जो दिव्य लोक का विकृत प्रतिबिंब है) कि हम इस रहस्य को जाने.. यहा अपूर्णता है वहां पूर्णता है.. यहां का आनंद मायीक है, अनित्य है, क्षणिक है, दुख मिश्रित है.. भगवद्ग प्रेमानंद दिव्य है, अनंत है, नित्य है, प्रति पल वर्धमान है, नवीन है.. यह वेद सम्मत सिद्धांत है.. वेदों के मन्त्रों में इसके प्रमाण हैं.. 

भगवान ही हमारे सर्वस्व हैं ..यह संसार माया का बना है.. दुखालय है.. हम परमानंद चाहते हैं जो भगवान स्वयम हैं.. वो आनंद सिंधु हैं.. हम आनंद के अंश हैं भगवान के अंश हैं ..

रसो वै सः। रसं ह्येवायं लब्ध्वा आनन्दी भवति। ( तैत्तिरीयोपनिषत् २-७-२ )

भगवान रस स्वरूप हैं, सच्चिदानंद विग्रह हैं। जब हम इस रस को, इस आनंद को प्राप्त कर लेते हैं तो स्वयं आनन्दमय हो जाते हैं. ।

चिन्मात्रं श्रीहरेरंशं सूक्ष्ममक्षरमव्ययम् ।  कृष्णाधीनमिति प्राहुर्जीवं ज्ञानगुणाश्रयम् ॥ ( वेद )

ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन:। ( गीता 15-7 )

ईश्वर अंश जीव अविनाशी चेतन अमल सहज सुख राशी। ( रामायण )

हम ईश्वर के अनादि अंश है.. शास्त्र प्रमाण हैं.. ‘मैं’ शरीर, इन्द्रिय, मन आदि नहीं है । अतएव हमारा असली सुख ईश्वरीय है।

इस अंधकार रूपी संसार  में वस्तु, व्यक्ति, मान सम्मान की चाह बनाकर भटकते भटकते हमें अनंत जन्म बीत गए.. किस योनि में नहीं गए? .. कौन सा दुख नहीं पाया? .. संसार के सुख दुख मिश्रित हैं..सब स्वार्थ से जुड़े हैं, अपूर्ण हैं, स्वार्थ खत्म, प्यार खत्म.. हमारा असली स्वार्थ.. दिव्य स्वार्थ.. पूर्णतम पुरुषोत्तम भगवान से है..उनको किसी से कुछ नहीं चाहिए.. वो अनंत हैं.. उनका सब कुछ अनन्त है..दिव्य है.. वो केवल देना देना जानते हैं.. वो हमारे अपने से भी अपने हैं.. आत्मा की आत्मा हैं.. सबका श्रोत हैं.. वात्सल्य सागर हैं, कृपा सिंधु हैं, दीन बन्धु हैं, पतित पावन हैं, निर्बल के बल हैं!

सच्चे आंसुओ को वो सह नहीं पाते.. पिघल जाते हैं.. वो हमसे कोई साधना की अपेक्षा नहीं रखते.. बस हम उनको अपना मानकर पुकारें, अपनी दयनीय स्थिति को जानकर, अपने को पतित मानकर, निर्बल होकर.. जैसे एक तुरंत का पैदा हुआ बच्चा रो देता है.. वो तो माँ को भी नहीं जानता.. पहचानता.. फिर माँ उसका सब कुछ करती है.. और हमारी असली माँ सर्वज्ञ है, वो हमे एक टक देखती रहती है पर हम उसे भूले हुए हैं.. बस हमारे पुकारने भर की देर है.. ।

हमारी दुर्दशा असहनीय है, जन्म मरण का दुख.. बीमारी का दुख.. बुढ़ापे का दुख.. शरीर रखने का दुख.. संसार में संघर्ष का दुख.. घोर मानसिक दुखों से हम घिरे हैं.. काम की जलन, क्रोध की जलन, गलतियों की जलन.. अनंत जन्मों की तो छोड़िए, इसी जन्म में ही हमने कितने दुख पाएं, जिसने कुछ भी संघर्ष किया है उसने अपनी कमियों को जाना है, हम कितने असहाय हैं, अपूर्ण है.. देखा जाए तो हम कुछ भी नहीं.. एक पल के जीवन का भरोसा नहीं..कब क्या आपदा आ जाए.. कब मृत्यु आ जाये.. पर हमारा अहंकार इतना बड़ा है कि हम अपनी स्थिति पर विचार ही नहीं करते.. हमें करने का बल है.. कर कर के अनन्त जन्म बीत गए.. क्या मिला? और कर्म बंधन में फंसते गए!

यह संसार बड़ी युक्ति से बनाया गया है.. जिससे हम यह जाने की ये हमारा नहीं हैं.. यहा कुछ हमारा नहीं है.. कोई हमारा नहीं है.. हमारा असली घर भगवान का लोक है..हमारे असली ज़न भगवान के ज़न हैं.. हमारे सारे नाते भगवान से हैं.. वो अनन्त जन्मों से हमारी राह देख रहे हैं कि हम कब यह जाने, कब यह माने और उनको पुकारें.. बस फिर देरी नहीं.. भगवान को पाने के लिय सच्चे आँसुओं से बढ़कर कोई साधन नहीं.. अपनेपन के आंसू, दीनता के आँसू कह्ते हैं कि आपके बिना “मैं” कुछ भी नहीं.. और प्रेम का असली स्वरूप भी यही है.. प्रेमी बिना प्रेमास्पद के कुछ भी नहीं.. भगवान हमसे अनंत प्रेम करते हैं, यह संसार चला रहे हैं हमारे लिए सृष्टि की कभी हम जागे, कभी हम जाने, उनको अपना माने, और अपना कल्याण करें.. पर हम भी इतने ढीठ हैं कि अन्त जन्म हो गए.. अपनी बुद्धि का बल.. अपनी शक्ति का बल का मिथ्या अभिमान लेकर चौरासी लाख योनियों में जुते चप्पल खा रहें हैं.. सर कटा सकते हैं लेकिन सर झुका सकते नहीं.. प्रेम में हारकर ही जीत है.. भगवान अपने को कुछ नहीं मानते.. भक्त के आगे हारने को तैयार रहते हैं.. पर अभिमान उनको स्वीकार नहीं क्यों कि वो हमें यह समझाना चाहते हैं कि हम अपने से कुछ नहीं पर प्रेम में.. दूसरे के साथ सब कुछ हैं.. यहि प्रेम है, शरणागति है, आश्रय है, दीनता है और बिना आसुओं के यह परिपक्व नहीं होता।

तो फिर कैसे रोयें? आँसू कैसे आयें?  हम जब यह समझें कि बिना प्रभु कृपा के हम माया से, इस अंधकार से कभी नहीं उबर सकते.. हमारे अनन्त पाप हैं अनन्त जन्मों के.. हम अपने में सीमित हैं अगर हम अनंत काल तक भी साधना करें तब भी अशुद्ध ही रहेंगे.. केवल जो अनंत है, नित्य शुद्ध तत्त्व है.. परम पवित्र है.. वो ही अपनी कृपा से हमे उबार सकता है और कोई रास्ता नहीं। यह आँसू ही एक माध्यम हैं उन्हें बताने के लिए हम उनके भरोसे हैं जैसे एक बालक माँ के भरोसे होता है..अहम ही अहंकार है.. जहाँ अहम वहां अपनापन कहाँ? प्रेम में अपना बल रखना दाग है.. प्रेम ही प्रेरणा है.. प्रेम ही बल है.. उनका ही सहारा हो वही प्रेम है .. उनके प्रेम पर हमें पूर्ण विश्वास हो .. किरण सूर्य से प्रथक कुछ भी नहीं, अंधकार में खोई एक लाचार बेचार अस्तित्व है.. सूर्य का संबन्ध ज्ञान, उसका प्रेम, उसका आश्रय अंधकार मिटा सकता है और जो अपना है उससे मदद मांगने में क्या शर्म.. ये तो हमारा हक है.. वास्तविकता तो यह है कि भगवान का जब हम आश्रय नहीं लेना चाहते तो भगवान सोचते हैं यह मुझे अपना नहीं मानता मैं सर्व शक्तिमान हूँ.. मेरे इशारे मात से इसका अंधकार मीट जाएगा.. मुझे पा लेगा मेरा सब कुछ इसका हो जाएगा.. अनन्त कोट ब्रह्मांडो के राजा का बेटा भिखारियों की तरह जी रा है.. और उनकी शक्ति माया से हम पार नहीं पा सकते.. इस माया में भगवान के बराबर शक्ति है.. भगवान का आश्रय लिय बिना, उनसे अपनेपन के बिना, उनकी भक्ति के बिना त्रिकाल में किसी योगी, ज्ञानी, तपस्वी का कल्याण असंभव है, वही भक्ति से भक्त सहज ही भगवान को पा लेता है..

शुद्धयति हि नान्तरात्मा कृष्णपदाम्भोज भक्तिमृते।
(प्रबोध सुधाकर ~ आदि जगद्गुरु शंकराचार्य)

“भगवान श्रीकृष्ण के चरण कमलों की भक्ति में लीन हुए बिना मन शुद्ध नहीं होगा”

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया। मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते॥ ( भगवद्गीता 7-14॥)

प्रकति के तीन गुणों (सात्विक, राजस, तमस) से युक्त मेरी दैवीय शक्ति माया से पार पाना अत्यंत कठिन है किन्तु जो मेरे शरणागत हो जाते हैं, वे इसे सरलता से पार कर जाते हैं।

यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्व, यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै । तं ह देवमात्मबुद्धिप्रकाशं, मुमुक्षुर्वै शरणमहं प्रपद्ये ॥ ( यजुर्वेद श्वेताश्वतरोपनिषत् ६-१८ )

जो सृष्टि के पूर्व ‘सृष्टिकर्ता ब्रह्मा’ का विधान करता है तथा जो वेदों को उन्हें (ब्रह्मा को) प्रदान करता है, वो भगवान (देव) जो ‘आत्मा’ तथा ‘बुद्धि’ प्रकाशित कर रहा है, मैं कल्याण की कामना से उसकी शरण को जाता हूँ।

सो दासी रघुबीर कै समुझें मिथ्या सोपि। छूट न राम कृपा बिनु नाथ कहउँ पद रोपि ॥ (रामायण 71 ख)

वह माया श्री रघुवीर की शक्ति है, उसको मिथ्या ना समझो, उसमे भगवान के बराबर बल है, वह श्री रामजी की कृपा के बिना छूटती नहीं। हे नाथ! यह मैं प्रतिज्ञा करके कहता हूँ॥

हम असहाय हैं.. अनंत जन्मों से माया के आधीन होने के कारण हम अनंत पाप कर के बैठे हैं.. हर तरह का पाप हमने किया है.. अनन्त मर्डर किए हैं.. हमें याद नहीं.. हम अनन्त काल तक भी अगर साधना करे तब भी मन शुद्ध नहीं कर सकते.. और कल युग के जीव क्या साधना करेंगे.. जब मन ही बस में नहीं तो क्या ध्यान क्या ज्ञान.. वैसे भी भगवान कोई साधन से नहीं मिलते.. शरणागति से मिलते हैं.. शरणागत होना मतलब अपने बल का कोई आसरा ना हो केबल प्रभु की कृपा का आसरा हो तब बिना किए ही कृपा होती है.. जो साधना सेवा उन्हें करानी है.. भगवान अपनी कृपा से करा लेते हैं हमारा मन शुद्ध कराने के लिए और फिर भगवद्ग दर्शन, प्रेम सब मिल जाता है.. जब तक जीव कर कर के हार नहीं जाता है.. तब तक उसका अहम नहीं टूटता..तब तक वो शरणागत नहीं होता..

जब संसार आसक्त पत्थर दिल इंसान का हृदय भी आँसू देखकर भारी हो जाता है.. पिघल जाता है तो क्या करुणा वरुणालय अनन्त माताओं का वात्सल्य लिए हमारे प्रभु अपने आप को रोक पाएंगे? .. हरगिज नहीं.. हमारे बस रोने की देर हैं..रोने की आदत डाल लो.. जिद्द कर लो रोने की.. लाखँ आँसू बहाने की.. कि जब तो वो नहीं आयेंगे हम रोते जाएंगे.. प्राणों में और आंसुओं में होड़ लग जाएं.. अभी नहीं तो कभी नहिं.. बस अब बहुत हो चुका अब यह जीवन बिना जीवन धन को पाए व्यर्थ है.. मैं अधम, पापी, अहंकारी पापात्मा बेशर्मी में जिए जाँ रहा
हूँ! पाप पे पाप किए जाँ रहा हुं.. जिस पल भी हम भगवान के अलावा कुछ भी सोचते हैं तो राग द्वेष के अलावा क्या सोचेंगे.. क्या करेंगे.. कर्म बंधन में फंसते जाएंगे.. केवल ईश्वर प्रेम ही एक उपाय है.. जिसे आसुओं का सहारा है उसको भगवान अवश्य मिलेंगे, यही वेदों का सार है।

बिन रोये किन पाईया प्रेम पीयारो मीत..

मन कैसे शांत हो? क्या परमानन्द पाना कठिन है? भगवान जल्दी कैसे मिलें?

सबसे सुगम, सरल और सर्वोत्तम साधन – भगवद्ग ज्ञान, प्रेम और शरणागति।

संसार का सुख मायीक है, जड़, नश्वर, क्षणिक, घटमान, दुख मिश्रित एवं अशांति का मूल है। परम सुख परमात्मिक है, दिव्य, शास्वत, प्रति क्षण वर्धमान, नित्य नवीन एवं अनंत है।

संसार का सुख पाना कठिन है, अगर कोई अरबपति बनना चाहे, प्रधानमन्त्री बनना चाहे, हर कोई नहीं कर पाता और पा भी ले तो रख नहीं पाता परंतु परम सुख पाना सरल है, हर कोई पा सकता है और सदा के लिय।

कैसे? जैसे हम जब बीमार होते हैं, बुखार में, दुख में होते हैं तो स्वाभाविक रूप से अपनी माँ को याद करते हैं, अनायास ही मुख से माँ की पुकार होती है, माँ के प्यार की, दुलार की चाह होती है।

वैसे ही जब हम अपनी असली माँ को सच्चे हृदय से “शरणागत” होके पुकारते हैं तो भगवान की कृपा हमें अपने आचल में भर लेती है, अशांत चित में शांति, मन में निर्भयता, निर्लिप्तता और निशोकता आ जाती है, बिना किय ज्ञान, वैराग्य और प्रेम प्रस्फुटित होने लगाता है, मन आनंद में डूबने लगता है।

असली आनंद पाने के लिए केवल चाह चाहिये, प्रबल चाह, भगवान चाह से मिलते हैं, भाव से मिलते हैं, बिना किए मिलते हैं, निर्बल को मिलते हैं, शरणागत को मिलते हैं, प्रेम से मिलते हैं, और प्रेम करना सब कोई जानता है।

किरन का संबंध सूर्य से है, संसार और शरीर के मोह रूपी अंधकार से नहीं। हम पुकारे कि “हे प्रभु, हम आपके हैं पर करने पर भी आपसे प्रेम नहीं होता, ध्यान नहीं होता, मन अज्ञान से भरा है, अशांत हैं, अनंत जन्मों की बिगड़ी मेरे बनाय नहीं बनेगी, अब बस आपका ही सहारा है!

केवल संसार में ड्यूटी करके भगवान की कृपा चाहने से सबकुछ मिल जाता है। इससे सरल कुछ नहीं, केवल भगवान की कृपा पर विश्वास हो, उनसे अपनापन हो, ना हो तो उनसे प्राथना करें, आप केवल उनके हो यह समझ बैठ जाएगी। तब अनन्त जन्मों की बिगड़ी कुछ समय में बन जाएगी।

और अगर हम सोचे यह बहुत कठिन है तो हमको अपना बल है, सर्व समर्थ भगवान को हम अपना नहीं मानते, हम को लगता है करने से कृपा मिलती है, तो फिर जब हम कर कर के थक जाएगें, मर मर के मर जाएगें, तब कभी किसी जन्म में निर्बल होके भगवान को पुकारेंगे।

तो हम अभी क्यों ना पुकारें, उन्हें अपना मान के? बच्चा माँ की गोदी के लिए सदा अधिकारी है, माँ उसके गुण अवगुण नहीं देखती, बस उसे माँ की प्रबल चाह हो तो भगवान तुरंत गोदी में उठा लेंगे, अपना सब कुछ दे देंगे।

बिगरी जन्म अनेक की अबहीं सुधरे आज। होहि राम कौ नाम भजु तुलसी तजि कुसमाज ।। (तुलसीदास, दोहावली २२)