The more we immerse ourselves in the world, the more stress we feel. Only God can provide respite since we belong to Him! Being with God is something we are born to do.
जितना ज़्यादा हम खुद को दुनिया में डुबोते हैं, उतना ज़्यादा तनाव महसूस करते हैं। सिर्फ़ भगवान ही हमें राहत दे सकते हैं क्योंकि हम उनके हैं! भगवान को पाने के लिए ही हमारा जन्म हुआ है।
At a young age, the heart is soft. There is simplicity, truthfulness, sentimentality and closeness in love. Love is out of heart & soul, not out of need or greed. But as the dirt of the world settles in the mind, selfishness, cunningness, crookedness and harshness start coming in the heart. The feeling of love starts to change into comparison & ambition. With time, a person gets lost in wealth, position, prestige, success and failure.
When he wakes up, he finds that happiness lies in simplicity. But everyone in the world is imperfect, that is why they are unable love selflessly. This feeling of love which is now lost in us is for God, He has established it in our heart, when we increase our affinity with God, this love appears again, the heart becomes soft again and the soul is filled with happiness and peace forever.
कम आयु में हृदय कोमल होता है। प्रेम में सरलता, सच्चाई, भावुकता, प्रीति और आत्मीयता होती है। प्रेम हृदय और आत्मा से होता है, न कि आवश्यकता और लोभ से। लेकिन जैसे-जैसे संसार का मैल मन पर जमता है, मन में चालाकी, स्वार्थ, कुटिलता और कठोरता आने लगती है। प्रेम की भावना तुलना और महत्वाकांक्षा में बदलने लगती है। समय के साथ व्यक्ति धन, पद, प्रतिष्ठा, सफलता और असफलता में खो जाता है।
जब वह जागता है, तो पाता है कि सच्चा सुख सरलता में ही है। लेकिन संसार में सभी अपूर्ण हैं, इसीलिए वे निष्काम प्रेम नहीं कर पाते। यह प्रेम की भावना जो अब हममें खो गई है, वह ईश्वर के लिए है, उसने इसे हमारे हृदय में स्थापित किया है, जब हम ईश्वर से अपनी आत्मीयता बढ़ाते हैं, तो यह प्रेम पुनः प्रकट होता है, हृदय पुनः कोमल हो जाता है और आत्मा सदा के लिए सुख और शांति से भर जाती है।
God permits us to face many disappointments, sorrows, and misfortunes during this earthly life. It is because we stop trusting the world, which causes us so much harm. To comprehend that He is the sole source of all comfort, peace, and happiness.
भगवान हमें इस सांसारिक जीवन के दौरान कई निराशाओं, दुखों और दुर्भाग्य का सामना करने की अनुमति देते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि हम दुनिया पर भरोसा करना बंद कर दे, जो हमें इतना नुकसान पहुँचाती है। यह समझने के लिए कि वह ही सांतवाना, शांति और आनंद का एकमात्र स्रोत है।
The solution to our unrest is not drugs, alcohol or psychiatric treatment. It will not be cured by scientific pursuit, study of atheistic philosophy or some technical meditation practice.
The problem is that we have lost God as the center of our lives. Once we make our love for God the primary focus of our lives and allow His grace to work through us, no matter what we face in life, we will feel at peace and be happy in His love. All worries will disappear.
This is the purpose of the religious life–to put the God first. The worries of modern life are merely symptoms of our separation from God.
हमारी अशांति का समाधान दवा, शराब या मनोचिकित्सकीय उपचार नहीं है। यह वैज्ञानिक खोज, नास्तिक दर्शन के अध्यन या किसी तकनीकी ध्यान अभ्यास से ठीक नहीं होगा।
समस्या यह है कि हमने अपने जीवन के केंद्र के रूप में ईश्वर को खो दिया है। एक बार जब हम ईश्वर के प्रति अपने प्रेम को अपने जीवन का प्राथमिक केंद्र बना लेते हैं और उनकी कृपा को हमारे माध्यम से काम करने देते हैं, तो चाहे हम जीवन में किसी भी परिस्थिति का सामना करें, हम शांति अनुभव करेंगे और उनके प्रेम में प्रसन्न रहेंगे। सारी चिंताएं गायब हो जायगी।
धार्मिक जीवन का यही उद्देश्य है – ईश्वर को पहले स्थान पर रखना। आधुनिक जीवन की चिंताएँ ईश्वर से हमारे अलगाव के लक्षण मात्र हैं।
When you are situated in the self and connected to God, you stay calm & collected, in love & grace. When you lose touch with yourself and forgetful of God, you lose yourself in the situations of the world, restless & disoriented, empty & disconnected. Do you want peace or do you want drama? Do you want God or do you want the world? Choice is yours!
जब आत्मा में स्थिति होती है और परमात्मा की स्मृति होती है, तो आप शांत और संयमित रहते हैं, प्रेम और कृपा में रहते हैं। जब आप की स्व में स्थिति नहीं होती और ईश्वर की विस्मृति हो जाती है, तो आप संसार की परिस्थितियों में खुद को खो देते हैं, बेचैन और भ्रमित, अपूर्ण और अशांत। आप शांति चाहते हैं या नाटक? ईश्वर चाहते हैं या संसार? निर्णय आपका!
आजकल बहुधा दम्भियों ने यही मार्ग अपना लिया है कि गृहस्थियों को संसार चाहिये और वो संस्कारवश, प्रारब्धवश मिलता ही रहता है, इसी में हम भी सम्मिलित हो जायें और अपनी स्वार्थ सिद्धि एवं ख्याति प्राप्त कर लें। सोचिये तो कि वह महापुरुष किसलिए है, इसलिये कि उसने संसार को नश्वर समझ कर भगवान को प्राप्त कर लिया है, दिव्यानंद प्राप्त कर चुका है। यदि वह हमे संसार देता है तो वह महापुरुष है या राक्षस है? उसने तो अभी तक यही नहीं समझा है कि आनंद संसार में है या भगवान में। फिर वो महापुरुष कैसे? और महापुरुष क्या भगवान भी कर्मविधान के विपरीत किसी को संसार नहीं देते। ऐसे ही हम बेहोश हैं, उस इश्वर को भूले हुये है जिसमें परमानन्द है, फिर महापुरुष वेशधारी ने संसार देने का नाटक करके हमें और गुमराह कर दिया।
जरा सोचिये, जिस अभिमन्यु के मामा परात्पर पूर्णतम पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण एवं जिनके पिता अर्जुन महापुरुष थे एवं जिसकी शादी कराने वाले वेदव्यास स्वयं भगवान के अवतार थे, जब तीन-तीन महाशक्तियाँ मिलकर भी उस अभिमन्यु को नहीं बचा सकी तब हम दिन रात अपराध करते हुये, इश्वर से विमुख रहते हुये, स्त्री, पुत्रादि में आसक्त रहते हुये कैसे आशा रखते हैं कि कोई बाबा हमारे प्रारब्ध को काट देगा? हमारा यह दुर्भाग्य है कि हम लोग भारतीय शास्त्रों को नहीं पढ़ते अतएव इस प्रकार की महान त्रुटियाँ करते रहते हैं। प्रति वर्ष हमारे देश में ऐसा नाटक कहीं न कहीं विराट रूप में होता है और लाखों की भीड़ जमा हो जाती है, केवल इसलिये कि यह बाबा असंभव को संभव कर देता है। अगर ऐसा सामर्थ्य या अधिकार भगवान या किसी महापुरुष को होता तो अनादिकाल से अब तक अनंतानन्त बार भगवान एवं संतो के अवतीर्ण होने पर यह विश्व न बना रहता। जब वे संत लोग गाली एवं डंडा खाने को तैयार रहते हैं तब उन्हें यह कहने में क्या लगता है कि हे! समस्त विश्व के जीवों, तुम्हारा अभी ही तुरंत उद्धार हो जाये। बस, इतना कहने मात्र से काम बन जाये। भोले भाले लोगों को ठगने वाले ये दम्भी हमारे देश में निर्भयतापूर्वक विचरते हैं और आप लोग भी उनकी खोज में रहते हैं।
भगवान् ने शरीर के लिए संसार बनाया है, संसार के बिना शरीर नहीं चलेगा और शरीर में व्याप्त जीवात्मा के लिए परमात्मा है, जैसे भोजन आदि करने से शरीर चलता है, ऐसे ही स्वयं यानी जीव को पोषण यानी आनंद देने के लिए भगवान ही है।
#जगद्गुरु_श्री_कृपालु_जी_महाराज
God has created the world for the body, without the world the body will not function and for the soul present in the body, there is God, just as the body functions by eating food etc., similarly God is there to provide nourishment and happiness to the self i.e. the soul.
संसार के लोगों को एक बहुत बड़ी भ्रान्ति है। वो यह कि लोग हमारे अनुकूल हैं, हमसे प्रेम करते हैं। लेकिन मैं चैलेंज के साथ कह सकता हूँ की विश्व की एक भी स्त्री अपने पति के सुख के लिए उससे प्यार नहीं कर सकती, अपने सुख के लिए करती है। विश्व का कोई भी पति अपनी स्त्री के सुख के लिए प्यार नहीं कर सकता, अपने सुख के लिए करता है। भावार्थ यह की जब स्त्री पति ही एक दूसरे के लिए प्यार नहीं करते तो और लोग क्या करेंगे। सब एक दूसरे को धोखा दे रहे हैं, और ये नहीं समझते कि जैसे हम इसको धोखे में रखे हैं, ऐसे ही सामने वाला भी हमसे धोखा कर रहा है।
आप लोग कहेंगे की हमारी स्त्री तो हमसे बड़ा प्यार करती है। बस यही तो धोखा है आप लोगों को, जब तक जीव अपना वास्तविक आनंद प्राप्त न कर लेगा, यह असंभव है कि कोई किसी के सुख के लिए लिए कुछ करे। अरे! करना तो दूर सोच तक नहीं सकता, संसार का सब प्यार स्वार्थ आधारित है। स्वार्थ कम,प्यार कम, स्वार्थ अधिक प्यार अधिक, और स्वार्थ हानि ज्यादा हो तो गोली मार देता है बेटा माँ को, स्त्री पति को….! रोज़ पढ़ते हैं आप अखबारों में, न्यूज़ में सुनते हैं। सबका रोज का अनुभव है। अगर सबको एक दूसरे के अंत:करण की, मन की बातें पता चल जायें तो ये संसार आधे घंटे में लड़-कट के समाप्त हो जायें। इतना ज़्यादा जहर एक दूसरे के खिलाफ़ भरा पड़ा है……ये तो acting से इस संसार में सब कार्य चल रहा है….जो जितना बड़ा एक्टर…..जितनी बढ़िया एक्टिंग कर लेगा वो दूसरों को उतना ही ज़्यादा प्रिय लगेगा। लेकिन ध्यान रहे कि कोई एक क्षण के लिए भी किसी का सगा हो ही नहीं सकता। कोई किसी को अच्छा कह नहीं सकता। संसार स्वार्थ सिद्धि का रंगमंच है, यहाँ आनंद है ही नहीं तो मिलेगा कहाँ से।
कृष्ण-कृपा बिनु जाय नहिँ, माया अति बलवान। शरणागत पर हो कृपा, यह गीता को ज्ञान।। ~ जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज भक्ति शतक (दोहा 29)
यह माया शक्ति इतनी बलवती है कि शक्तिमान भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा के बिना नहीं जा सकती। और यह कृपा भी केवल शरणागत जीव पर ही होती है। यह सम्पूर्ण गीता का सारभूत ज्ञान है।
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते॥
~ श्रीमद्भगवद्गीता 7.14
प्रकति के तीन गुणों से युक्त मेरी दैवीय शक्ति माया से पार पाना अत्यंत कठिन है किन्तु जो मेरे शरणागत हो जाते हैं, वे इसे सरलता से पार कर जाते हैं।
सो दासी रघुबीर कै समुझें मिथ्या सोपि। छूट न राम कृपा बिनु नाथ कहउँ पद रोपि॥ ~ रामचरितमानस
कुछ लोगों का विचार है कि माया मिथ्या अर्थात अस्तित्त्वहीन है परन्तु माया वास्तव में एक शक्ति है जो भगवान की सेवा में लगी रहती है। वह श्री रामजी की कृपा के बिना छूटती नहीं। हे नाथ! यह मैं प्रतिज्ञा करके कहता हूँ॥
Jagadguru Shri Kripalu Ji Maharaj in Bhakti Shatak Doha 29 says –
Maya is an insurmountable power of God. One can not be released from its clutches without the grace of God. And this grace is only available to a surrendered soul. This is the essence of the entire Gita.
Lord Shri Krishna in Bhagavad Gita 7.14 says –
My divine power Maya, consisting of the three modes of nature, is very difficult to overcome. But those who surrender unto Me cross over it easily.
Shri Tulsi Das Ji in Ram-charita-manas
says –
Some people think that maya is mithya i.e. non-existent but maya is actually a power engaged in the service of the Lord. It does not leave without the grace of Shri Ramji. Hey Nath! I declare this.
An unchecked desire leads to indulgence. The Loss of self awareness, judgement and self control follows sure. The Anger, hopelessness and repentance are its inevitable consequences.
A miserable existence caught in cycles of Indulgence and repentance. Practice detachment from the world and attachment to God, this is the only solution.
एक अनियंत्रित इच्छा भोग की ओर ले जाती है। आत्म शक्ति, निर्णय और आत्म नियंत्रण की हानि निश्चित रूप से होती है। क्रोध, निराशा और पश्चाताप इसके अनिवार्य परिणाम हैं।
भोग और पश्चाताप के चक्र में फंसा, एक दयनीय अस्तित्व. संसार से बचो और मन ईश्वर से जोड़े रहो, यह ही एक उपचार है ।
An intemperate desire depletes one’s self awareness and distorts mind’s attention, ability and peace. The discretion is lost with memory and intelligence leaving little confidence and control, a loss of self image.
The degradation follows sure with anger, guilt and selfishness, with its tricks of self justifications, leading to immoral and unjust behaviour. A significant spiritual loss.
When the act is over, the mind plays victim with series of repentance. It laments with self criticism, loathing and pity ready to be buried in guilt and shame.
The damage is done and despair sets forth leaving anxiety, worry and depression. A painful existence trying for relief but lost in repeated cycles indulgence and repentance, it cry out in its unbearable misery to the throne of compassion for help and rescue.
The answer comes with right acts of reason, resolution and responsibility. Desire is darkness and God is light. Practice detachment from the world and attachment to God, this is the only solution.
आसक्ति आत्म शक्ति को कम करती है, ध्यान, क्षमता और शांति को विकृत करती है। व्यक्ती विवेक, आत्मविश्वास और आत्मनियंत्रण खो देता है, जिससे आत्म छवि गिर जाती है।
क्रोध, हीनता और स्वार्थ के कारण हानि निश्चित होती है, व्यक्ती बचने के लिए अनैतिक और अन्यायपूर्ण व्यवहार कर जाता है। एक गम्भीर आध्यात्मिक नुकसान होता है। जब कृत्य समाप्त हो जाता है, तो मन पश्चाताप करता है। आत्म आलोचना, आत्म घृणा के साथ अपराधबोध और शर्म में डूब जाता है। बड़ी क्षति होती है और निराशा, चिंता और अवसाद से घिर जाता है। राहत के लिए व्याकुल, एक दर्दनाक अस्तित्व, भोग और पश्चाताप के चक्र में फंसा, मदद और बचाव के लिए करुणा सागर प्रभु से अपने असहनीय दुख में रोता है।
उत्तर सही सोच, संकल्प और जिम्मेदारी के साथ आता है। इच्छा अंधकार है और ईश्वर प्रकाश है। संसार से बचो और मन ईश्वर से जोड़े रहो, यह ही एक उपचार है ।
Pleasure is Pain, Indulgence is Ignorance, Lord is Love, Love is Light.
सुख दुख है, भोग अज्ञान है, प्रभु प्रेम हैं , प्रेम प्रकाश है।
Man seek pleasures to alleviate pain not knowing in his ignorance how one leads to another in endless cycles of indulgence and repentance.
When the knowledge dawns after repeated troubles and untold suffering, he understand how all attachments plagues ones peace of mind. That the mind is inherently dysfunctional in forgetfulness of God and it can find rest only when it turn towards him.
मनुष्य अपनी अज्ञानता में दुख को कम करने के लिए सुख की तलाश करता हैं और भोग और पश्चाताप के चक्र में फस जाता हैं। जब अनेक परेशानियों और अनकही पीड़ाओं के बाद उसे ज्ञान होता है, तो वे समझता हैं कि कैसे सभी कामनाएं मानसिक अशांति देती हैं। यह कि ईश्वर की विस्मृति में मन स्वाभाविक रूप से अशांत और अतृप्त रेहता है और केवल तभी आनंद पाता है जब वह ईश्वर के सन्मुख होता है।
Your body, mind and intellect changes but not you, the soul (I am), nor does God, the source of the soul. Only God is yours nothing else.
आपका शरीर, मन और बुद्धि बदल जाते है लेकिन आप, आत्मा (मैं हूँ) ,नहीं बदलता और न ही परमात्मा, आत्मा का स्रोत। केवल ईश्वर तुम्हारा है और कुछ नहीं।
World is always in change, so is the body, mind and intellect but the soul (I am) does not change. Nor does God, the source of the soul. You and God are eternal, ever present together in sacred silence, always together, here and now. Only God is yours nothing else.
संसार हमेशा परिवर्तन में है, वैसे ही आपका शरीर, मन और बुद्धि, लेकिन आप, आत्मा (मैं हूँ ), नहीं बदलता, न ही परमात्मा, आत्मा का स्रोत। आप और भगवान शाश्वत हैं, एक साथ हमेशा, असीम शांत स्वरूप, हमेशा एक साथ, यहाँ, यहीं और अभी। केवल ईश्वर तुम्हारा है और कुछ नहीं।