ईश्वरी प्राप्ति के लिए कैसा बनना पड़ेगा?

तृणादपि सुनीखेन तरोरपि सहिष्णुना।
अमानिना मानदेन कीर्तनीय: सदा हरि: ॥

(शिक्षाष्टक-३)

अगर किसी को ईश्वर कृपा प्राप्त करना है, तो तृण से बढ़कर दीन भाव लाओ, तृण से बढ़कर दीन भाव। अरे सचमुच की बात है, क्या है तुम्हारे पास जो अहंकार करते हो । है क्या ? क्यों समझते हो, सोचते हो, फील करते हो कि हम भी कुछ हैं। अरे क्या हो तुम। और अगर यह शरीर छूट जायेगा तो उसके बाद फिर कुत्ता बनना पड़े, कि बिल्ली, कि गधा, कि पेड़, कि कीट पतंग, कहाँ जाओ तब तुमसे हम बात करें कि क्‍योंजी ऐ नीम के पेड़! तुम डी.लिट प्रोफेसर वही थे न, पिछले जन्म में? हमने कहा था ईश्वर की शरण में चलो दीनता लाओ। तो तुमने कहा था हम ऐसे अन्ध विश्वासी नहीं हैं “डी. लिट्” हैं। अब क्या हाल हैनीम के पेड़ बने हो। हाँ जी। वह गलती हो गई, उस समय पता नहीं क्या दिमाग खराब था। अहंकार में डूबे हुये थे। भगवान के आगे भी दीन नहीं बन सके। दीनता के बिना साधना नहीं हो सकती, कोई गुंजाइश नहीं।

एक वेंकटनाथ नाम के महापुरुष हुये हैं। बह वेंकटनाथ ईश्वर की ओर जब चलने लगे, बड़े आदमी थे। और जोरदार आगे बढ़े, तो तमाम विरोध हुआ। सभी महापुरुषों के प्रति होता है। तो उनके विरोधियों ने उनके आश्रम के गेट पर एक जूते की माला बनाकर टाँग दी कि यह नशे में तो चलते ही हैं इनके सिर में लगेगी तो हम लोग हँसेंगे। हा हा हा हा जूता सिर में लग रहा है तुम्हारे। वो अपना बाहर से भीतर नैच्यूरलिटी में जा रहे थे तो जूते की माला जो लटका रब्खा था मककारों ने, नास्तिकों ने, वह सिर में लगी, उन्होंने देखा और हँसने लगे। अब लोग दूर खड़े देख रहे थे जिन्होंने नाटक किया था कि यह गुस्से में आयेंगे फ़ील करेंगे फिर हम लोग हँसेंगे, फिर हमसे कुछ बोलेंगे फिर हम बोलेंगे अब वह उसको देखकर हँसने लगे और कहते हैं

कमविलम्बका: केचित्‌ केचित्‌ ज्ञानावलम्बका:।

कुछ लोग कर्म मार्ग का अवलम्ब लेते हैं, कुछ लोग ज्ञान मार्ग का अवलम्ब लेते हैं। और

वयं तु हरिदासानां पादरक्षावलम्बका: ।

और हम तो भगवान्‌ के जो दास हैं, वह उनका जो पाद रक्षा है जूता – सौभाग्य से हमको वह मिल गया। हमारा तो उसी से काम बन जायेगा हम क्‍यों कर्म, ज्ञान, भक्ति के चक्कर में पड़ें। अब वह विरोधी लोग देखें कि अरे! यह तो उलटा हो गया। हम तो समझ रहे थे कि गुस्सा करेगा फिर बात बढ़ेगी और फिर हम लोग भी अपना रौब दिखायेंगे, गाली गलौज होगी। अरे! यह तो देखकर हँस रहा है और कहता है

वयं तु हरिदासानां पादरक्षावलम्बका: |

यह दीनता है यह आदर्श है ईश्वर प्राप्ति की जिसको भूख हो ऐसे – बनना पड़ेगा।

तो सन्त उस्मान के ऊपर जो राख का टोकरा गिरा तो सन्त उस्मान ने ऊपर देखा और कहा हे भगवान्‌ तू बड़ा दयालु है तो उसके साथी ने कहा इसमें दया की क्या बात है तुम भगवान्‌ को शुक्रिया अदा कर रहे हो कि तू बड़ा दयालु है। हे खुदा तू बड़ा दयालु है क्या उसका करम है इसमें एक ने राख छोड़ दिया तुम्हारे ऊपर ये कौन सी दया है। तो सन्त उस्मान ने कहा कि मैं तो अंगारे चिनगारियाँ अंगारों से युक्त टोकरा छोड़ने लायक हूँ क्योंकि मैंने संसार से प्यार किया है उस सुप्रीम पॉवर से प्यार नहीं किया। मेरे ऊपर तो आग के अंगारों का टोकरा छोड़ना चाहिए था, यह तो राख ही छोड़ा है, इतनी दया है उसकी। बजाय क्रोध करने के वहाँ भी दीनता बनी रहे। इतना दीन बनना है और यहाँ तो हम लोगों का यह हाल है कि सही बात भी कोई कह दे, तो कया हाल हो जाता है। बाबाजी के भेष में रहने वालों का भी ये हाल हो जाता है। हम लोग तो गृहस्थी हैं आप लोग जानते ही हैं।

तो दीनता प्रमुख है। उसके बिना गाड़ी नहीं चलेगी। कोई गति नहीं है। यहाँ संकीर्तन में बैठकर जिन लोगों को आँसू नहीं आते हैं, अपने को दीन हीन अकिंचन नाचीज मानकर वे लोग फील करें, सोचें क्यों ऐसा हो रहा है? ये टाइम बीता जा रहा है। कब करोगे? अब क्‍या इससे बड़ा भी कोई सौभाग्य होगा कि मानव देह मिले, भारत में जन्म हो और फिर इस प्रकार आप लोग घर छोड़कर सत्संग में आवें और यह सब यहाँ आपको ऐट्मयफिआअर मिले और आप उसमें शरीक़ हों और फिर भी ऐन वक्‍त में जब साधना करने का समय हो, तो आप लापरवाही करें यह फील करना होगा। जितनी बार आप लगातार फील करेंगे उतने ही आप आगे को बढ़ेंगे। तो शरणागति में दीनता प्रमुख है किन्तु प्रेम करने का तरीका अभी नहीं बताया गया वो फिर बतायेंगे।

~ जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
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God works through people & situations! भगवान व्यक्तियों और परिस्थितियों के माध्यम से कार्य करते हैं!

Anyone who asks God for humility & grace should be aware of what they are asking for, that is to say, God sends someone to mistreat him or some difficulty to face. Adversity bring us closer to God.

जो कोई भी भगवान से दीनता और कृपा मांगता है, उसे पता होना चाहिए कि वे क्या मांग रहा है, यानी, भगवान किसी को उसके साथ दुर्व्यवहार करने या किसी कठिनाई का सामना करने के लिए भेजे। विपत्तियाँ हमें भगवान के करीब लाती हैं।

~ Saints Sayings
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Whose prayers does God not listen to? परमेश्वर किसकी प्राथना नहीं सुनते हैं?

If a person does not consider himself a sinner, then God does not listen to his prayers. A devotee asked the Saint, “Who is a sinner?” So the Saint said, “One who does not think of his own sins and thinks of the sins of his companions.”

यदि कोई मनुष्य अपने आप को पापी नहीं मानता, तो उसकी प्रार्थना परमेश्वर नहीं सुनते। एक साधक ने संत से प्रश्न किया, “पापी कौन है?” तो संत बोले, “जो कोई अपने पापों को नहीं सोचता और अपने साथियों के पापों पर विचार करता है।”

~ Saints Sayings
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Fast the body, Feed the soul. शरीर को उपवास, आत्मा को उपासना।

It is almost certain that almost all diseases of the body are caused by excess of food, but its effect on the mind & soul is even more destructive. Revive the body through fasting and the mind & soul through worship.

यह तो लगभग निश्चित है कि शरीर की लगभग सभी बीमारियों का कारण भोजन की अधिकता ही है, परंतु मन एवं आत्मा पर इसका प्रभाव और भी अधिक विनाशकारी होता है। शरीर को उपवास से और मन एवं आत्मा को उपासना से पुनर्जीवन दें।

~ Saints Sayings संत वचन
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How to save oneself? आत्मकल्याण कैसे हो?

Devotion to God is the food of the soul. Do not starve the soul, let the body remain hungry. Do not criticize anyone, forgive everyone, consider yourself worse than everyone in the world and you will be saved. Be as silent as possible.

भगवद् भक्ति आत्मा का अहार है। आत्मा को भूखा मत मारें, शरीर को भूखा रहने दे। किसी की आलोचना न करें, सभी को क्षमा करें, अपने को संसार के सभी लोगों से बदतर समझें तो आत्मकल्याण निश्चित है। जितना हो सके, अधिक चुप रहें।

~ Saints Sayings संत वचन
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Humility comes from humiliations! दीनता दुख से आती है!

We will not be able to know our darkness and humble ourselves before God unless we are broken by temptation and suffering.

हम तब तक अपनी कमज़ोरियों को नहीं जान पाएंगे और ईश्वर के सामने खुद को दीन हीन नहीं कर पाएंगे जब तक हम विकारों और दुःखों से टूट नहीं जाते।

~ Saint Saying संत वचन
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God is unjust! ईश्वर अन्यायी है!

Don’t make the mistake of stating that God is just. If He were just, you would be in hell. His injustice, which is mercy, love, and forgiveness, is the only thing you can rely on.

यह कहने की गलती मत करो कि ईश्वर न्यायकारी है। यदि वह न्यायकारी होता, तो आप नरक में होते। उसका अन्याय, जो दया, प्रेम और क्षमा है, एकमात्र ऐसी चीज़ है जिस पर आप भरोसा कर सकते हैं।

~ Saint Saying संत वचन

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Spiritual Practice is Necessary! साधना अनिवार्य है!

Seeing the intense spiritual practice (sadhna), God’s grace descends. When sadhna stops, grace also stops. If someone thinks that there is no God realization without grace, what’s the use of doing sadhna then keep sitting, it will never happen.

गहन साधना देखकर ईश्वर की कृपा होती है। जब साधना बंद हो जाती है तो कृपा भी बंद हो जाती है। यदि कोई यह सोचता है कि कृपा के बिना ईश्वर प्राप्ति नहीं होती तो साधना करने से क्या लाभ तो बैठे रहो, ऐसा कभी नहीं होगा।

~ Saints Sayings संत वचन

महापुरुष महात्म्य

भगवान को वेद के द्वारा जानो। यानी उन्हीं की वाणी से उनको जानो।

ना वेद विन्मनुते तं बृहन्तम्।
(शाठ्यायनी उपनिषद् – ४)

वेद उसकी वाणी है-

निःश्वसितमस्य वेदाः। (वेद)

जाकी सहज श्वॉस श्रुति चारी।

तो वेदों से पूछो। हाँ वेद महाराज ! बताओ। तो वेद ने कहा देखो भई मुझको पढ़ कर तुम नहीं समझ सकते-

वेदा ब्रह्मात्मविषयास्त्रिकांडविषया इमे।
(भाग. ११-२१-३५)

वेदव्यास ने भागवत में कहा कि ये ब्रह्म के समान है वेद। जैसे ब्रह्म है ऐसे वेद है। और ब्रह्म क्या है-

इन्द्रियेभ्यः परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान् परः।।

महत: परमव्यक्तमव्यक्तात् पुरुषः परः।
पुरुषान्न परं किञ्चित् सा काष्ठा सा परा गतिः।।
(कठोप. १-३-१०, ११)

यानी इन्द्रियों से परे इन्द्रियों के विषय, उससे परे मन, उससे परे बुद्धि, उससे परे भगवान्। बुद्धि से परे है-

इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः।।
(गीता ३-४२)

राम अतर्क्य बुद्धि मन बानी।

इन्द्रिय मन बुद्धि से परे है-

राम स्वरूप तुम्हार वचन अगोचर बुद्धि पर।
(रा. मा.)

वह बुद्धि से परे है। इसलिये वेद भी बुद्धि से परे है। अलौकिक वाणी है। इस का अर्थ अलौकिक पुरुष ही समझ सकता है। यानी महापुरुष और भगवान्। तो फिर? भगवान् तो मिलेंगे नहीं। किससे पूछें वेद का अर्थ? तो महापुरुषों से पूछो-

उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।।
(कठोप. १-३-१४)

वेद कह रहा है। उठो, जागो मनुष्यो! तुमको मानव-देह मिला है। और “प्राप्य वरान्” महापुरुष के पास जाओ प्रैक्टिकल मैन श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष के पास जिसने भगवान् का साक्षात्कार किया हो, ऐसे महापुरुष के पास जाओ। कान फूंकने वाले के पास नहीं। फिर उनसे समझो वेद का अर्थ। यानी वेद वेद्य भगवान् क्या है? महापुरुष के पास जाओ। ऐसे तत्त्वज्ञान नहीं होगा। और वह महापुरुष दो योग्यताओं से युक्त हो, ऐसा महापुरुष चाहिये।

परीक्ष्य लोकान् कर्मचितान् ब्राह्मणो निर्वेदमायान्नास्त्यकृतः कृतेन।
तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम्।।
(मुण्डको. १-२-१२)

श्रोत्रिय यानी थियोरिटिकल मैन, शास्त्र वेद का पूरा ज्ञान हो और दूसरे को करा सके। इतनी नॉलेज हो और फिर भगवान् को प्राप्त कर चुका हो। ये ब्रह्मनिष्ठ है। श्रोत्रिय भी हो, ब्रह्मनिष्ठ भी हो- ऐसे महापुरुष के पास जाओ फिर समझो वो क्या है ? भगवान् क्या है। ये वेद कह रहा है। अरे गीता तो पढ़ी होगी आपने-

तद्वद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया। उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः।।
(गीता ४-३४)

अर्थात् वो श्रोत्रिय भी हो और ब्रह्मनिष्ठ भी हो ऐसे गुरु के पास जाओ। फिर उनकी सेवा करो, फिर उनके शरणागत हो, फिर उनसे पूछो। “तद्विद्धि प्रणिपातेन” शरणागत हो और परिप्रश्नेन- जिज्ञासु भाव से प्रश्न करो और सेवया- सेवा करके उनको प्रसन्न करो। ये तीन शर्ते हैं। गीता कह रही है। भागवत से समझ लीजिए-

तस्माद् गुरुं प्रपद्येत जिज्ञासुः श्रेय उत्तमम्।
शाब्दे परे च निष्णातं, ब्रह्मण्युपशमाश्रयम्।।
(भा. ११-३-२१)

शाब्दे- ये थ्योरी में। परे ये प्रैक्टिकल भी हो। “निष्णातं ब्रह्मण्युपशमाश्रयम्।” अर्थात शाब्दिक ज्ञानी प्लस अनुभव ज्ञानी दोनों प्रकार का जिसको अनुभव प्राप्त हो ऐसे महापुरुष के पास जाओ। क्यों?

सो बिनु संत न काहू पाई।

बिना गुरु के किसी को भी वो भगवान् नहीं मिले न उनकी भक्ति मिली है। किसी को भी नहीं। वो ब्रह्मा हो, विष्णु हो, शंकर हो, इन्द्र हो, कुबेर हो। कोई हों-

गुरु बिनु होई कि ज्ञान।

ज्ञान नहीं हो सकता। अरे ये तो बड़ी-बड़ी बातें हैं। आप लोगों ने पढ़ा होगा ए.बी.सी.डी.? हाँ पढ़ा है। क ख ग घ? हाँ पढ़ा है। कैसे पढ़ा है? क्या पैदा होते ही आप पढ़ लिये, बोल लिये? नहीं जी वो टीचर आया था एक, उसने पढ़ाया था। क्या पढ़ाया था? उसने कहा देखो ऐसे लिखो ‘क’ हमने लिखा। उन्होंने कहा इसका नाम है ‘क’। क्यों? क्यों इसका नाम ‘क’ है। अरे पागल है ये लड़का। ये क्या पड़ेगा? ऐसे बोल रहा है। क्यों इसका नाम है ‘क’? अरे ! मैं जो कह रहा हूँ उसको याद करो। ऐसी शक्ल होती है क की। और ये नाम होता है इसका क। चुपचाप मान लो। अन्धे बन कर मान लो। और इंग्लिश भाषा वाले तो जानते ही है कितने साइलैन्ट होते हैं। चुपचाप मान लो बोलो मत। लिखो। ये शरणागत हैं आप उस टीचर के। अपनी बद्धि जरा भी नहीं लगाते। नहीं तो नम्बर समाप्त हो जाएंगे फेल हो जायेंगे आप अपनी बुद्धि लगायेंगे तो। बिना गुरु के आप क का ज्ञान नहीं कर सकते, उसके शरणागत होते हैं। डाक्टर के पास आप गये। डाक्टर साहब! हाँ हमारे सिर में बहुत दर्द होता है। और क्या होता है ? लो ये दवा लो। ये दो बूंद दवा एक चम्मच पानी में डालकर पी लेना। डॉक्टर साहब! इतने बड़े शरीर में दो बूंद दवा? आपका दिमाग तो ठीक है? अरे। ये पागल आदमी है। ये दवा नहीं करा सकता। निकालो बाहर इसको। अरे! मैं जो कहता हूँ चुपचाप मान लो। सरैण्डर करो। अपनी बुद्धि का प्रयोग न करो। तो गुरु के बिना महापुरुष के बिना तत्त्वज्ञान नहीं हो सकता। कोई हो-

गुरु बिनु भवनिधि तरे न कोई।
ज्यों बिरंचि शंकर सम होई।।

ब्रह्मा, शंकर कोई हो। अब ये बड़ी प्रॉब्लम आ गई कहाँ ढूँढ़, कैसे ढूँढे?

गुरु का ज्ञान होना कोई साधारण बात तो नहीं है। जैसे कोई एम.ए.का टीचर हो, सर्टिफिकेट वगैरह न दिखावे और कहे मैं एम.ए. हूँ। तुमको कौन सा क्लास पढ़ना है? हाई स्कूल। बैठो मैं पढ़ा दूँ। तो वो एम.ए. वाला ही पढ़ा सकता है हाई स्कूल, इन्टर, बी.ए., एम. ए., ए.बी.सी.डी. न जानने वाला एम.ए. कैसे पढ़ायेगा? असम्भव। तो वो गुरु जिसके शरणागत होकर हम जानना चाहते हैं ब्रह्म को, भगवान् को, पाना चाहते हैं वो सैन्ट परसैन्ट महापुरुष हो। पर हम नहीं जान सकते, हम नहीं तौल सकते, हम नहीं नाप सकते। जैसे भगवान् बुद्धि से परे हैं ऐसे ही महापुरुष भी बुद्धि से परे हैं क्योंकि दोनों एक हैं-

तस्मिंस्तज्जने भेदाभावात्।
(ना. भ. सू. ४१)

नारद जी ने अपने भक्ति-सूत्र में लिखा कि भगवान् और महापुरुष में भेद नहीं होता। वैसे तो महापुरुष को भगवान् से बड़ा माना गया है। लेकिन बड़ा वड़ा कुछ नहीं है वो। जितनी पावर भगवान् के पास है नित्य सत्ता, सर्वज्ञता, अनन्त आनन्द, वो महापुरुष के पास भी है। इसलिये बराबर है। इसीलिये वेद कहता है-

यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ।
तस्यैते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः।।
(श्वेता. ६-२३)

ऐ मनुष्यो! जैसी भक्ति भगवान् के प्रति हो वैसी ही भक्ति सैन्ट परसैन्ट गुरु के प्रति हो।

तो फिर हम जानें कैसे? गुरु को, महापुरुष को । पहिचानें कैसे? और बिना पहिचाने कहीं गलत पाखण्डी महापुरुष क शरण में चले गये तो फिर तो फिर तो-

अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः।
(मुण्डको. १-२-८)

जैसे अन्धे का हाथ अन्धा पकड़ करके चले तो गर्त में गिरेगा। यही हो रहा है अनादिकाल से। देखिये बहुत सावधानी से समझिये। ज्ञान में दो रीज़न बताया तुलसीदास जी ने-

गुरु बिनु होइ कि ज्ञान, ज्ञान कि होई विराग बिनु।

गुरु के बिना ज्ञान नहीं हो सकता प्लस वैराग्य के बिना ज्ञान नहीं हो सकता। क्यों? मान लो आपको सही गुरु मिल गया। हाँ आप शरणागत नहीं हैं। अपनी बुद्धि को गुरु की बुद्धि से जोड़ा नहीं, अपनी बुद्धि प्राइवेट रख रहे हो। अपनी बुद्धि लगा रहे हो बीच बीच में, सैन्ट परसैन्ट सरैण्डर नहीं किया। तो क्या करेगा गुरु?

मूरख हृदय न चेत यदि गुरु मिलहिं विरञ्चि सम।

ब्रह्मा भी गुरु मिले तो उस व्यक्ति का कल्याण नहीं हो सकता जो शरणागत नहीं है, सैन्ट परसैन्ट। बिजली घर में आप चले जायें और सब तारों का हाल न जानें और एक तार जो नंगा है उसको पकड़ लें तो जीरो बटे सौ हो जायेंगे। सैन्ट परसैन्ट शरणागति करनी पड़ेगी। थोड़ी मोड़ी नहीं। तो फिर हम कैसे पहिचानें? और बिना पहिचाने हमारा काम बनेगा नहीं और पहिचानने का मतलब, मानना हृदय से- उसको श्रद्धा कहते हैं- श्रद्धा। सबसे पहली चीज़ श्रद्धा है। उसके बाद महापुरुष का मिलन, उसके बाद सत्संग। सत् माने महापुरुष, संग माने मन का सरैण्डर, मन, बुद्धि उसको दे दिया। अब वह जैसा कहेगा वैसा ही करेंगे।

कितना बड़ा पापी था वाल्मीकि, कि राम नहीं कह सका। क्यों जी मरा कहा? हाँ। तो क्यों मरा में भी तो वही म और र दो अक्षर हैं। अगर कोई ‘म’ और रा कह सकता है तो राम क्यों नहीं कह सकता? सोचा, सोचा कभी आप लोगों ने बुद्धि से? ये कैसे पॉसिबिल है? या तो गूँगा हो या तो ‘म’ बोल ही न सके। ‘रा’ बोल ही न सके। मरा मरा मरा तो खूब बोल रहा है और राम राम क्यों नहीं बोल सकता? इतने अधिक उसके पाप थे कि राम नहीं बोल सका। (ध्यान दो।) लेकिन गुरु की शरणागति कितनी थी? आप सोच नहीं सकते। मरा मरा कहते रहना जब तक हम लौट कर न आवें। चुप। आप लोगों से कोई गुरु ऐसा कहे, ‘आप कब लौट कर आयेंगे?’ तुरन्त क्वेश्चन करेंगे। आप कहते हैं जब तक लौट कर न आवे तो कब लौट कर आयेंगे आप बताइये तो हमको। हम ऐसे ही पागल की तरह मरा मरा करते रहें? बाल्मीकि ने कुछ नहीं पूछा। कम्पलीट सरैण्डर। और अपना साधना करता रहा। गुरु हैल्प करते रहे। और महापुरुष बन कर निकला बल्मीक से- ये शरणागति है। हम लोग संसार के छल कपट वाले एटमॉसफियर में छल कपट से ऐसे भर गये हैं, हमारी बुद्धि में वह भर गया है कि भगवान् आवें तो, महापुरुष मिलें तो, ऐसा है कि हम भी तो कुछ समझते हैं। अरे! तुम अपने आप को तो समझ नहीं सके । महापुरुष और भगवान् को क्या समझोगे?

आप किसी से पूछो- आपका परिचय? जी मैं इलाहाबाद का कलैक्टर हूँ। मैं उपाधि नहीं पूछ रहा हूँ, मैं आपको पूछ रहा हूँ। जी जी मेरा नाम नन्दकिशोर है। नाम? अरे नाम नहीं, आपको पूछ रहा हूँ। अरे ! मैं मनुष्य हूँ। मनुष्य? ये तो आपकी बॉडी है, शरीर है। मैं आपको पूछ रहा हूँ। क्या अजीब आदमी है। और क्या हैं आप? आप अपने आप को नहीं जानते तो आपको पागलखाने में रहना चाहिये। बाहर कैसे हैं? जो अपने को न पहिचाने उसको लोग पागलखाने में रख देते हैं। बन्द कर देते हैं, तुम अपने आप को नहीं जानते और बहुत कुछ जानने का दावा करते हो, महापुरुषों को पहिचान लेते हैं हम। अरे महापुरुषों को केवल भगवान् और महापुरुष पहिचान सकता है-

भगवद रसिक रसिक की बातें रसिक बिना कोउ समुझि सकै न।

कृष्ण प्रेम जार चित्ते करे उदय। तार वाक्य क्रिया मुद्रा विज्ञे न बुझय।।

गौरांग महाप्रभु कहते हैं कि जिसके हृदय में श्री कृष्ण प्रेम प्रकट हो जाय, महापुरुष हो जाय जो, उसके वाक्य, उसकी क्रिया, उसके एक्शन कोई नहीं समझ सकता। विज्ञे न बुझय।

अन्तर्वाणीभिरप्यस्य मुद्रा सुश्रु सुदुर्गम।

जो भीतर से ज्ञान का भण्डार भरे हैं वह भी नहीं जान सकते रसिकों को। तुम क्या जानोगे?

देखो! तुम अपने आप को पहले समझो। तुम क्या करते हो संसार में? अन्दर गड़बड़ बाहर ठीक। अन्दर से आप नहीं चाहते ये आदमी आवे हमारे घर में रात को १२ बजे, हमारी नींद खराब करे। लेकिन जैसे ही वह आदमी आता है हैलो! श्रीवास्तव जी! अरे! अरे! भई तुमको तो हम कब से परख रहे हैं। ये क्या है? धोखा। ४२०, छल कपट। और ऊपर से बड़े सुन्दर शब्द। बड़ा मीठा स्वर। ये आप लोग करते हैं न? हाँ करते हैं। इसी को उल्टा करते हैं संत लोग। अन्दर बिल्कुल ठीक और बाहर उल्टा। अन्दर मायातीत, और बाहर माया का कार्य करते हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह, भयंकर करोड़ों मर्डर १, २, ४ मर्डर नहीं। ये हनुमान जी महापुरुषों के दादा। ये अर्जुन जी महापुरुषों के दादा। क्यों जी हम किसी को गाली देते हैं तो पहले गुस्सा आता है। पहले गुस्सा आएगा मन में तब तो गाली निकलेगी। और झापड़ लगाते हैं और गुस्सा आता है। और मर्डर कर देने में तो गुस्से में पागल हो जायेंगे तभी तो मर्डर करेंगे। और हजारों मर्डर किया है अर्जुन ने। हनुमान जी ने लंका ही जला दिया। लेकिन महापुरुष है। उनका कहीं द्वैत भाव है ही नहीं। वो तो सर्वत्र श्रीकृष्ण को देख रहे हैं अर्जुन जी-

तस्मात् सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युद्धय च।
(गीता ८-७)

निरन्तर मेरा स्मरण करना अर्जुन। सर्वेषु कालेषु। एक बटे सौ सैकेण्ड को भी मन मुझसे पृथक् न हो।

त्रिभुवनविभव हेतवेऽप्य कुण्ठस्मृतिरजितात्म सुरादिभिर्विमृग्यात्।
न चलति भगवत्पदारविन्दाल्लवनिमिषार्धमपि यः स वैष्णवाग्र्यः।।
(भागवत ११-२-५३)

एक सैकेण्ड को भी भगवान् से मन न हटे वो महापुरुष है। तो निरन्तर भगवान् में मन है अर्जुन का “सर्वेषु कालेषु” और युद्ध कर रहा है। मर्डर हो रहा है।

उमा जे राम चरन रत विगत काम मद क्रोध।
निज प्रभुमय देखहिं जगत का सन करहिं विरोध।

क्रोध-माया का विकार है। माया तो समाप्त हो गई हनुमान जी की। भगवान् के वो तो पार्षद हैं कभी उनके ऊपर माया नहीं आई थी। लेकिन ये सर्वत्र सीता राम को देखते हुये भी इतने मर्डर किये, ब्राह्मणों के, रावण के खानदान के। भगवान् ने अपनी डायरी में लिखा ही नहीं। क्यों? भगवान् कहते हैं- कर्म उसे कहते हैं जिसमें मन का अटैचमैन्ट हो। राग हो, द्वेष हो। ये दो में एक हो। या तो राग हो या तो द्वेष हो। उसका मन तो मेरे पास था। इसलिये मारने में शत्रुओं के प्रति न राग था, न द्वेष था। इसलिये वह कर्म नहीं है। वह जीरो में गुणा करो एक करोड़ से तो भी जीरो आयेगा।

अरे! देखो, अब होली आई है, कितने मजाक होते हैं होली पर और कितनी डिग्रियाँ मिलती हैं बड़े-बड़े काबिलों को- मूर्ख शिरोमणि वगैरह, वगैरह। और सब विभोर हो के हँसते रहते हैं। क्योंकि मंशा खराब नहीं है। अन्दर गड़बड़ नहीं है। इसलिये सब हँस देते हैं। ससुराल में कितनी गालियाँ (दूल्हे को) पहले मिला करती थीं बाकायदा ढोल बजा के और वो बैठ के धीरे-धीरे खा रहा है, चटनी चाट रहा और गाओ। क्योंकि दुर्भावना नहीं है। अन्दर भी ठीक बाहर भी ठीक। तो महापुरुषों का जो अन्दर गड़बड़ नहीं है और बाहर गड़बड़ दीखता है तो हम लोग तो बाहर वाले को देखकर ही निर्णय करते हैं। हमारी आदत है। अभ्यास है। अन्तर्यामी तो नहीं हैं हम लोग, अन्दर घुस कर देखें। ये हनुमान महापुरुष है कि नहीं है। ये अर्जुन महापुरुष है कि नहीं है। तो महापुरुषों को पहचानना ये असम्भव है जैसे भगवान् को जानना असम्भव है।

मां तु वेद न कश्चन।। (गीता ७-२६)

न च तस्यास्ति वेत्ता तमाहुरग्र्यं पुरुषं महान्तम्।।
(श्वेता. ३-१९)

वेद में भगवान् स्वयं कहते हैं- मुझे कोई नहीं जान सकता। और वही महापुरुष भगवान् एक ही शक्ति से युक्त हैं उसका नाम है योगमाया। वह “कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्तुं समर्थ” है। जो चाहे करे, जो चाहे न करे, जो चाहे उल्टा कर दे। ये योगमाया की शक्ति है। भगवान् की भगवत्ता भुला देती है। और तो क्या कहा जाए। भगवान् भूल जाता है-

प्रभु तरुतर कपि डार पर।

भगवान् भूल गये कि मैं स्वामी हूँ और ये बन्दर वन्दर जितने हैं ये हमारे नौकर हैं, दास हैं। वे ऊपर बैठे हैं पेड़ पर। भगवान् नीचे बैठे हैं। अब भगवान् को यह पता हो कि मैं भगवान् हूँ तभी तो डांटें उनको। और महापुरुषों को भी भुला दिया योगमाया ने कि मैं महापुरुष हूँ। हनुमान जी भी बैठे हैं डाल के ऊपर । उनको भी नहीं दिमाग में आ रहा है। जो “ज्ञानिनां अग्रगण्यम्” हैं। तो महापुरुषों को पहचानना समझना, असम्भव है। तो फिर क्या करें? क्या इलाज है? बस रोकर भगवान् से प्रार्थना करें कि हमको किसी महापुरुष से मिला दीजिए-

बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता।

जब द्रवइ दीन दयाल राघव। साधु संगति पाइये।

जब भगवान् कृपा करेंगे तो वो किसी महापुरुष को किसी बहाने मिला देंगे। लेकिन महापुरुष के मिलने पर भी शर्त वही है कि श्रद्धा हो आपकी पूर्ण।

गुरु वेदान्त वाक्येषु दृढ़ो विश्वासः श्रद्धा। (शंकराचार्य)

श्रृद्धा की परिभाषा है कि गुरु और वेद शास्त्र के ऊपर पूर्ण विश्वास उनकी आज्ञा का पालन हो सैन्ट परसेंट।

श्रद्धा शब्द कहे विश्वास सुदृढ़ निश्चय।
(गौरांग महाप्रभु)

गौरांग महाप्रभु भी उसकी यही परिभाषा कर रहे हैं और यह पूर्ण विश्वास कब होगा? जब वैराग्य होगा- माने संसार में सुख नहीं है- यह डिसीजन सैन्ट परसैन्ट हो जाए तब फिर उनमें ही सुख है। दो ही चीज तो हैं, दो ही दिशा तो हैं, एक भगवान्, एक माया- एक तरफ तो जाएगा और तीसरा तो जीव ही है। वह दो तरफ में एक तरफ तो जाएगा-

द्विविधो भूत सर्गोऽयं दैव आसुर एव च।
विष्णु भक्ति परो दैव आसुरस्तद्विपर्ययः।।
(अग्नि पु.)

एक भगवान् का एरिया, एक माया का एरिया और जाने वाला जीव का मन। आप लोग कभी कभी ये भी बोल देते हैं कि हमारा तो मन न भगवान् में लगता है न संसार में लगता है। कहाँ है? पैंडिंग में है? उसको लॉक कर दिया है कहीं? बकवास करते हो। अगर भगवान् में नहीं है तो संसार में है, है, है। पक्का प्रमाण। दो ही क्षेत्र तो हैं।

~ जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज

चमत्कार

‘चमत्कार’……….. ये शब्द प्राय: प्रत्येक संत महात्मा के साथ जुड़ा होता ही है बस शर्त ये है की वो असली संत होना चाहिए।

संत महात्माओ की इस अनचाही खासियत के कारण बहुत से पाखंडी लोग भी स्वयं संत महात्मा जैसा वेश धारण करके लोगो को बेवकूफ बनाते हैं और कामयाब भी हो जाते हैं, क्योकि हमारे देश में वास्तविक संत महात्माओ की बहुत गौरवशाली विरासत है इस कारण लोगो की संत वेश भूषा वाले लोगों में बहुत श्रद्धा होती है, लोग आसानी से असली संतो के प्रति श्रद्धा भाव से युक्त होने के कारण नकली संतो (पाखंडियो) द्वारा ठग लिए जाते हैं।

जबकि सच्चाई ये है की असली संत कभी ना तो स्वयं “प्रत्यक्ष” चमत्कार दिखाता है और ना ऐसी किसी कोशिश का समर्थन करता है। क्योकि ऐसा करना कुदरत के नियमो में दखल देना होता है, और संत जो भगवान् का प्रतिनिधि होता है वो ऐसा कदापि नहीं करता। कोई भी वास्तविक संत कभी भी भगवान् के बनाये नियमो का उल्लंघन नहीं करता। परन्तु फिर भी कभी कभी वास्तविक संत महात्माओ द्वारा भी चमत्कार करने के उदाहरण देखने सुनने में आते है।

कृपामयी संत कभी कभी किसी की श्रद्धा बढ़ाने या किसी की भक्ति करने में बाधक बन रहे किसी प्रारब्ध को काटने के लिए चमत्कार कर दिया करते हैं ऐसा वे सिर्फ अपवादस्वरूप और जीवो को भगवान् की भक्ति करने के लिए प्रेरित करने के लिए करते है और ऐसा भी सिर्फ सगुण साकार के उपासक संतो में देखने में आता है, निर्गुण निराकार के भक्त संतो में ऐसे उदाहरण बहुत कम देखने सुनने को मिलते है। चमत्कार करके और स्वयं की मान बड़ाई करवाना, ये कभी किसी किसी वास्तविक संत महात्मा का लक्षण नहीं हो सकता।

संतों के चमत्कार भगवान में श्रद्धा बढ़ाने वाले होते हैं, लोग और अधिकाधिक भगवान की भक्ति करें इसलिए। भगवान् से अपने लिए कुछ माँगना छोड़कर सिर्फ उनका प्रेम चाहते हैं संत।

संत सिद्धियों का प्रदर्शन नहीं करते। मात्र सांसारिक जड़ वस्तुओ में प्लस माइनस करने, उनमे हलचल मचाने से अलग और कुछ नहीं है, कोई हाथ में मनचाहे फूल की खुशबु पैदा कर दे, कोई पानी पर चलने लग जाए , इस सब से क्या होगा? क्या आत्मा का इससे कोई भला होता है? उसके लिए तो आपको भगवान से ही सम्बन्ध जोड़ना पड़ेगा, उनकी भक्ति करनी पड़ेगी, उनको अपना मानना पड़ेगा, दूसरा कोई विकल्प नहीं है, कोई ऐसा संत जो बिना किसी को साधना करवाये ही भगवत् प्राप्ति करवा दे? है क्या किसी के पास ऐसी सिद्धि? अगर संसारी जड़ पदार्थो में ऊंचा नीचा करना ही सिद्धि है तो वो खुद क्यों बाबाजी बना हुआ है? उसने क्यों नहीं संसार भोगा? खुद संसार को त्याग कर ‘बाबाजी’ क्यों बन गया। इसलिए भगवान की निष्काम भक्ति करने से ही काम बनेगा।

अधिकारी जीवों को संतों के अनेकानेक अनुभव हैं, लेकिन संतों की स्पष्ट आज्ञा होती है की यदि किसी को भगवान् के पथ पर आगे बढ़ते हुए कोई अनुभव हो तो उसे अपने तक सीमित रखना चाहिए, जिसका उद्देश्य “लोकरंजन” का है वो कदापि भगवान् के निकट नहीं पहुच सकता। अपने अनुभवो को अपने तक रखने से और इसे भगवान् की कृपा मानकर बार बार इसका चिंतन करने से भगवान् में आपकी श्रद्धा दृढ़ होती है और आप और तेजी और विश्वास से भगवान् की तरफ बढ़ते हैं।

सबकी श्रद्धा बढ़े, भगवद्ग विश्वास बढ़े, सबका कल्याण हो, इसलिए श्रद्धावान को बताने का अपवाद है।
राधे राधे 🙏

The Peace Within

You are not who you think you are like a dreamer in a dream thinks himself to be someone who he is not. Nothing you think about you is you! The body changes over time, thoughts come and go, emotions arise and fade, but the feeling of ‘I am’ remains the same. Being a body is just a persistent thought. You don’t experience the body in deep sleep but you are still there, thats how you know when you wake up that you “slept without knowing anything” (this also comes under knowing).

We need to differentiate between the ‘I’ identified with mind as an Ego, the false self of likes & dislikes and the ‘I’ as a pure self, the ‘I am’. When the mind is thinking, there is a sense of self (I) which gets invested into it. This creates a delusion that you are the thinker. The Ego (the false self) is the thinker, the voice in the head is not you, it is the sound of thought processing. You are the one behind it, who is aware of it, the pure self ‘I am’ devoid of all thoughts. You are the feeling realization of ‘I am’.

When you say or think ‘I’, most of the time it’s not you, it’s the egoic false self who is speaking. The way mind hijack you is by pretending that you are the thinker, you have to separate yourself from your mind. Instead of being used by your mind, you need to learn how to efficiently use it. Be the awareness behind your thoughts and emotions, watch them, be always conscious of what’s going on in your head and the mind will loose its power over you. When you watch your thoughts, be also aware not only of the thoughts but also of yourself (I-am) as the witness of the thoughts. This way the thoughts are unable to trick you into identifying with themselves leading to compulsive thinking. It’s akin to watching your thoughts like raindrops.

As the understanding sinks in that you are different from what is yours, that “you” are not “your” body, “you” are not “your” mind which is just a bundle of thoughts & emotions, you start to become indifferent towards pains & pleasures of the world, this way you stop energizing your mind by self identification and your mind gets to calm down. In that stillness & silence you experience yourself as formless consciousness, the peace within.

~ radha krishna das
www.RKYog.org

Who are you?

You are not the body but the formless soul which is self aware, the ‘I am’, the still silent “conscious presence” behind your thoughts & emotions, the awareness behind the voice in your head. If you are the body, how would you know you have one? If you are the mind, the thinker, how are you aware of your thinking? If you are the voice in your head, how you are aware of it? If you only had thoughts & emotions in your head, how would you know you have them? “You” is different from “yours”. You are a pure conscious divine being, “awareness” disguised as a person.

~ radha krishna das

Do you want peace or you want drama? आप शांति चाहते हैं या नाटक?

When you are situated in the self and connected to God, you stay calm & collected, in love & grace. When you lose touch with yourself and forgetful of God, you lose yourself in the situations of the world, restless & disoriented, empty & disconnected. Do you want peace or do you want drama? Do you want God or do you want the world? Choice is yours!

जब आत्मा में स्थिति होती है और परमात्मा की स्मृति होती है, तो आप शांत और संयमित रहते हैं, प्रेम और कृपा में रहते हैं। जब आप की स्व में स्थिति नहीं होती और ईश्वर की विस्मृति हो जाती है, तो आप संसार की परिस्थितियों में खुद को खो देते हैं, बेचैन और भ्रमित, अपूर्ण और अशांत। आप शांति चाहते हैं या नाटक? ईश्वर चाहते हैं या संसार? निर्णय आपका!

~ राधाकृष्ण दास

The plight of man

The plight of man in the material world: Once a man was chased by an elephant in a forest. Seeing no respite, he climbed a tree but he slipped, was about to fall before he could hold on to a branch. He looked up and found that the elephant is waiting to devour him and two rats, one black and one white, were slowly nibbling the branch he was hanging on to. He understood that very soon the branch would fall to the ground.

As the man looked down, he discovered that there were many snakes. Suddenly a drop of honey fell on his face. He pulled his tongue out and licked it. There was a honeycomb between the two branches he was holding. Due to disturbance caused by his holding and shaking the branch, bees were out to bite him. But at the same time honey was also oozing from the comb.

Forgetting the obvious (elephant, snakes, rats, and bees), he just adjusted his tongue to get drops of honey straight on his tongue. Now, he was happy indeed forgetting his precarious situation.

This analogy from the Mahabharata perfectly fits a common man. The man represents the common man or ourself. We are stuck in this precarious situation of this material world (samsara). Death (elephant) is chasing us continuously; it will not leave us without devouring. The black and white rats represent night and day respectively. They are slowly reducing our age. The hissing snakes represents the big obstacles in life. Honey-bees represent the day to day problems we face in our life. The sweet honey represents the pleasures’ of this world in its myriad forms.

If only we accept the lending hand of Krishna, we can save ourselves a lot of trouble but we are too attached to the drops of dripping honey.

The plight of man in this world is a wonder indeed!

प्रारब्ध और पुरुषार्थ!

हम अज्ञानता वश धन-संपत्ति, भोग-कामना, मान-सम्मान आदि की लोलुपता और चिंता में अनवरत अनावश्यक श्रम और समय देकर अपना अमूल्य जीवन व्यर्थ कर देते हैं। जो प्रारब्ध से निर्धारित है वो अवश्य मिलेगा – जो हमने पूर्व जन्म में पुण्य किए हैं – दान, दया, त्याग, सेवा आदि से निर्धारित और कभी कभी इसी जन्म में किय विशेष पुण्य कर्मों पे आधारित, अगर कोई प्रबल प्रारब्ध बंधन न हो। संयोग से अधिक कुछ जो आ जाएगा वो चला जाएगा।

प्राप्तव्यमर्थं लभते मनुष्यो देवोऽपि तं लङ्घयितुं न शक्तः।
तस्मान्न शोचामि न विस्मयो मे यदस्मदीयं न हि तत्परेषाम् ॥
~ पंचतंत्र मित्रसमप्राप्ति 112

अर्थ: मनुष्य को जो प्राप्त होना होता है, उसका उल्लंघन करने में देवता भी समर्थ नहीं हैं इसलिए मुझे न आश्चर्य है और न शोक क्योंकि जो मेरा है वह किसी दूसरे का नहीं है।

प्रारब्ध से परिस्थिति वश जो दुख आता है वो सीमित होता है। हम ज्यादातर दुख अपनी अज्ञानता, आसक्ति और मूर्खता वश पाते हैं, अपने और संसार के सही सही स्वरूप का ज्ञान ना होने के कारण।

सुनहु भरत भावी प्रबल बिलखि कहेउ मुनिनाथ।
हानि लाभु जीवनु मरनु जसु अपजसु बिधि हाथ॥
~ रामचरितमानस

आयुः कर्मं च वितं च विद्यानिधन मेवI
पंञ्चैतान्यायं सृज्यन्ते गर्भस्थस्यैव देहिनःII
~ नीतिसार

अर्थ (धन-सम्पत्ति) और भोग (कामनाओं की पूर्ति) में प्रारब्ध की प्राथमिकता है और धर्म (कर्तव्य-कर्म, सही-गलत ) और मोक्ष ( मुक्ति और भगवद्गप्राप्ति) में पुरूषार्थ की। इसलिए अनावश्यक अनवरत श्रम ना करके धार्मिक जीवन के साथ भगवद् प्रवृत्त चिंतन में समय देना चाहिए।

प्रारब्ध पहले रचा पीछे रचा शरीर,
तुलसी चिन्ता क्यों करे भज ले श्री रघुवीर।
~ तुलसी दोहावली

मुरदे को हरि देत है, कपड़ा लकड़ी आग।
जीवित नर चिन्ता करे, उनका बड़ा अभाग।।
~ संत कबीर दास जी

घर नहीं ग्रहस्थी नहीं, नहीं रुपैयो रोक।
खाने बैठे रामदास, आन मिलै सब थोक।।
~  संत वाणी

समुद्र-मथने लेभे हरिः, लक्ष्मीं हरो विषम्।
भाग्यं फलति सर्वत्र ,न च विद्या न पौरुषम्॥
~ नीतिविवेक

अगर हम कर्म रहस्य समझ ले तो चिंता मुक्त हो जाए, सुख में हर्षित ना हो और दुख में शोकित ना हों, नए कर्म बंधन में ना फंसे, समता के साथ अपना कर्तव्य पालन करते हुए प्रभु प्रेम में मगन रहें।

जीव का परम चरम लक्ष्य भगवान को पाना है ना कि संसार में समय गवाना है। जिस आनंद की हमारी चाह है वह जड़ नश्वर संसार में नहीं अपितु भगवान में है क्योंकि भगवान ही असली आनंद हैं!

आनन्दो ब्रह्मेति व्यजानात्।
~ तैत्तिरीय उपनिषद – भृगु वल्ली – 3-6-1

भगवान ने प्रारब्ध हमे चिंता से मुक्त करने के लिय बनाया है और पुरुषार्थ अपना कर्तव्य कर्म करते हुए उन्हें पाने के लिए।

~ राधाकृष्ण दास

A Spiritual Awakening

Some 15 years back, 18th September 2009, I was on an official trip to Detroit, Michigan (USA). It was around midnight and I was unable to sleep. My hotel (Extended stay America) was across the road, opposite to the Fairlane Mall in Dearborn. I came out to take a stroll in the parking lot. I was feeling a deep emptiness about life, a meaninglessness which comes with the competitive strife and self seeking. I wondered if anyone really cared for anyone. I thought & felt very deeply about it and promised to myself, of being there for others selflessly.

It was soon afterwards when I went back to bed that I felt a spark like something inside my head, it felt very blissful and I slept like never before.

When I woke up everything around me seemed to be new and fresh like I have never seen before as if I have been in darkness all my life. The dew drops, the grass, the trees, the sky all seemed to be full of bliss and life. I felt a deep oneness and love in my being with everything and everyone.

I experienced a profound sense of compassion, I visited hospitals to give flowers to the sick, wondering how beautiful the world would be if we can all love and care for others without reward or credit. It was an indescribable feeling of joy and happiness which motivated me on a journey from a self centered life to a life centered in God. A journey of growth and understanding that the selfless love is the Heart of God and He cares the most for his lost children to be found. His grace flows to those who selflessly works to give hope & help to others and bring them back to Him.

May we all seek the unfathomable love of God and help others to do so. 🙏

~ radha krishna das

भगवान सर्वव्यापक हैं

आपको बताया गया कि भगवान जड़ चेतन सर्वत्र व्यापक हैं और जीवात्मा खाली एक शरीर में व्यापक है। सृष्टि स्रजन, संरक्षण के लिये भगवान् परमाणु परमाणु में व्याप्त हैं। भगवान हर एक जीवात्मा के अंतः करण में भी रहते हैं, परमात्मा स्वरूप में, उसके सब कर्मों का हिसाब करता हैं, फल देते हैं।

हरि ब्यापक सर्बत्र समाना।
प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना॥
~ रामायण

भगवान् संसार की रचना करते हैं, उसका पालन करते हैं और अंत में उसका प्रलय कर देते हैं अर्थात् यह सम्पूर्ण संसार ईश्वर से प्रकट हुआ है, भगवान द्वारा इसका पालन किया जाता है और अंत में फिर यह सम्पूर्ण संसार ईश्वर में समा जाता है। संसार का नियामक भगवान है। इस संसार के प्रत्येक परमाणु में भगवान व्याप्त है, अतः भगवान सर्वव्यापक है। सृष्टि का पालन एवं उसकी रक्षा करने के लिये भगवान् संसार के प्रत्येक परमाणु में व्याप्त होते हैं।

कुछ लोग कहते हैं कि घड़ी अपने आप चलती है ऐसे ही सृष्टि भी अपने आप है, किन्तु उन्हें सोचना चाहिये कि घड़ी पूर्व में नहीं चलती थी जब किसी ने उसे बनाया तब चलने लगी एवं पश्चात् भी नहीं चलेगी अर्थात् नष्ट हो जायगी, तब फिर बनानी पड़ेगी। इसके अतिरिक्त यह भी विचारणीय है कि घड़ी बनाने वाले ने घड़ी तो बनायी है किन्तु उस घड़ी के लौह परमाणुओं की क्रिया को घड़ीसाज नहीं जानता अर्थात् उस पर कन्ट्रोल नहीं कर सकता। उसे कन्ट्रोल करने वाला ईश्वर है। अतएव भगवान को सर्वव्यापक होना पड़ता है अन्यथा वे परमाणु ठीक रूप से काम नहीं कर सकते।

यहाँ पर एक प्रश्न यह भी उत्पन्न होता है कि यदि भगवान् सर्वव्यापक है तो फिर उसका हमें अनुभव क्यों नहीं होता। रसगुल्ला खाते हैं, चीनी खाते हैं तो हमें उसकी मिठास का अनुभव होता है फिर प्रत्येक परमाणु में व्याप्त आनन्दमय भगवान् के आनन्द का हमें अनुभव क्यों नहीं होता? दूध पीने में दूध का अनुभव होता है, विष खाने में विष का अनुभव होता है, उसी प्रकार भगवान् का भी अनुभव हमें होना चाहिये। आप लोगों का दावा है कि अनुभव में आने वाली वस्तु ही आप मान सकते हैं। अनुभव प्रमाण ही आपको मान्य है। किन्तु अनुभव प्रमाण सबसे निर्बल प्रमाण है। पीलिया रोग के रोगी को सर्वत्र पीला ही पीला दीखता है किन्तु उसका अनुभव भ्रामक है। साँप के काटे हुए व्यक्ति को नीम मीठा लगता है। इसी प्रकार भव-रोग से ग्रस्त जीव को किसी भी वस्तु का अनुभव भ्रामक ही होता है। एक चींटी चीनी के पहाड़ पर चक्कर काटकर लौटी और उससे पूछा गया तो उसने अनुभव यह बताया कि यह पर्वत नमकीन था। बड़ा आश्चर्य हुआ किन्तु जब जाँच हुई तो पता चला कि चींटी के मुख में नमक की डली रखी हुई थी। अस्तु, सर्वत्र शक्कर के ढेर पर भ्रमण करते हुए भी उसे अपने मुख में रखे हुए नमक का ही स्वाद अनुभव में आया। उसी प्रकार जिस इन्द्रिय, मन, बुद्धि से हम संसार को ग्रहण करते हैं वे सब प्राकृत, मायिक, त्रिगुणात्मक एवं सदोष हैं और भगवान् प्रकृत्यतीत, दिव्य, गुणातीत एवं दोषरहित है, फिर हम इनसे उसके ठीक स्वरूप को किस प्रकार से पहचान सकते हैं? जब तक ये दिव्य न हो जायें, इनका अनुभव सही कदापि नहीं हो सकता।

हम लोग छोटी सी चीज को पाने के लिये पहले सोचते हैं, फिर प्लानिंग किया, फिर प्रैक्टिस किया, फिर भी वो काम पूरा हो न हो, डाउट है। लेकिन भगवान् के एरिया में ये बात नहीं। भगवान् ने सोचा कि ये संसार बन गया और उन्होंने ऐसी शक्ति हमको दी है अपने आपसे मिलने के लिये कि बच्चों! तुम भी सोचो, हम मिल जायेंगे। ऐं सोचने से मिल जाओगे? हाँ।

   मामनुस्मरतश्र्चित्तं मय्येव प्रविलीयते।
          ( भाग.११-१४-२७ )

केवल सोचो मन से कि वो मेरे हैं, वो मेरे हैं, वो मेरे हैं, वो मेरे अन्दर में हैं, सर्वव्यापक भी हैं, वे गोलोक में भी हैं। ये फेथ(Faith), विश्वास, इसका रिवीजन(Revision)। इसी का नाम साधना। बस सोचो।

भगवान् की इतनी बड़ी कृपा है कि वे कहते हैं कि मैं सर्वव्यापक हूँ, तू इसको मानता नहीं है, मैं गोलोक में रहता हूँ, वहां तुम आ नहीं सकते, मैं तुम्हारे अंतःकरण में तुम्हारे साथ बैठा हूँ इसका तुम्हे ज्ञान नहीं है, इसलिए लो, ‘ मैं ‘ अपने नाम में अपने आप को बैठा देता हूँ। ” अपने नाम में ‘मैं’ मूर्तिमान बैठा हुआ हूँ।”

जिस दिन यह बात तुम्हारे मन में बैठ जाएगी, तुम्हें यह दृढ विश्वास हो जाएगा कि भगवान् और भगवान् का नाम एक है। दोनों में एक जैसी शक्तियाँ हैं, एक से गुण हैं, उस दिन फिर एक नाम भी जब लोगे, एक बार भी ‘राधे’ कहोगे तो कहा नहीं जायेगा, वाणी रुक जाएगी, मन डूब जायेगा, कंठ गद्गद हो जायेगा, फिर भगवत्प्राप्ति में क्या देर होगी। उसी क्षण गुरुकृपा एवं भगवत्प्राप्ति हो जाएगी। मेरे केवल इसी वचन पर विश्वास कर लो, स्वर्ण अक्षरों में लिख लो।

~ जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज

सर्वान्तर्यामी और अन्तर्यामी दोनों के बीच में क्या अंतर होता है ?

अन्तर्यामी जो होता है वो हर एक महापुरुष होता है। जिसने भगवत्प्राप्ति की हो वो सब अन्तर्यामी हो जाते हैं और सर्वान्तर्यामी केवल भगवान् है। वो इसलिये कि सभी जीवों के अंतः करण में वह एक – एक रूप से रहता है। ऐसा नहीं कि अलग गोलोक में बैठकर सर्वान्तर्यामी है, ऐसा नहीं। हर एक जीव के अंतः करण में एक भगवान् का रूप सदा रहता है। स्वर्ग जाय, नरक जाय, मृत्यु लोक में जाय चाहे जहाँ रहे वो साथ रहता है हमेशा और वो सबके आइडियाज, पुराने जन्मों के कार्य का हिसाब सब करता है। धन्धा उसका यही है। वो सर्वान्तर्यामी है और सर्वव्यापक है और महापुरुष अन्तर्यामी है जिसके मन की बात जब जानना चाहे जान सकता है। लेकिन सदा नहीं जानता रहता। यह काम भगवान् का है क्योंकि वो कर्म फल देना है उनको, तो उनको हमेशा जानना पड़ेगा।

भगवान् सर्वव्यापक हैं और आत्मा शरीर व्यापक। ये जीवात्मा खाली एक शरीर में है और भगवान् जड़ चेतन सर्वत्र व्यापक है।

~ जगद्गुरू श्री कृपालु जी महाराज

राम कौन हैं?

राम तत्व पर विचार करना है। राम कौन हैं? पहले वेदों में चलिये। राम शब्द का अर्थ स्वयं वेद कर रहा है।

रमंते योगिनोनन्ते नित्यानंद चिदात्मनि।
इति राम पदेनाऽसौ परब्रह्मभिधीयते॥
[राम तापनी.]

जिसमें योगी लोग आत्माराम पूर्णकाम परमनिष्काम परमहंस लोग रमण करते हैं, वे परब्रह्म श्री राम हैं। फिर वेद कहता है।

भद्रो भद्रया सचमान आगात्। स्वसारं जारो अभ्येति पश्चात् सुप्रेकेतैर्द्युभिरग्निर्वितिष्ठन् रुशद्भिर्वर्णैरभिराम- मस्थात्। अर्वाची सुभगे भवसीते। वंदामहे त्वा यथानः सुभगा-ससि यथानः सुफलाससि।
[ऋग्वेद]

ऋग्वेद कह रहा है। फिर वेद कहता है।

यो ह वै श्री राम चन्द्रः स भगवान्।
[ राम तापनी.]

ये जो अयोध्या के श्री राम चन्द्र हैं ये भगवान् हैं। भगवान्। ये भगवान् क्या होता है।

ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यश: श्रियः।
ज्ञानवैराग्य योश्चैव षण्णां भग इतीरणा॥

अनंत मात्रा के षडैश्वर्य जिसमें हों उसको भगवान् कहते हैं। उस भगवान् के तीन स्वरूप होते हैं। भगवान् तीन नहीं होते। भगवान् का अभिन्न तीन स्वरूप।

वदंति तत्तत्वविदस्तत्त्वं यज्ज्ञानमद्वयम्।
ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते॥
[भागवत्]

वेदव्यास कह रहे हैं कि भगवान् का एक रूप होता है परमात्मा, एक रूप होता है ब्रह्म। ये तीन रूप होते हैं, जिसमें ब्रह्म सबसे नीचे है। निराकार, निर्गुण निर्विशेष ब्रह्म। जिसके उपासक ज्ञानी लोग होते हैं। उस ब्रह्म में शक्तियाँ तो सब हैं, लेकिन प्रकट नहीं होती। सत्ता मात्र है वो। शंकराचार्य आदि ने उसका डिटेल में निरूपण किया है कि-

उदासीन स्तब्धः सततमगुणः संग रहितः।

वो उदासीन है ब्रह्म, कुछ नहीं करता।

अदृष्टमव्यवहार्यमग्राह्यमलक्षणमचिन्त्यमव्यपदेश्यमेकात्म प्रत्यय सारं।

ब्रह्म है। सब जगह ‘आ’ लगा दो। अदृष्ट है वह दिखायी नहीं पड़ता, सुनाई नहीं पड़ता, सूंघने में नहीं आता, रस लेने में नहीं आता, स्पर्श करने में नहीं आता, सोचने में नहीं आता, निश्चय करने में नहीं आता, ऐसा ब्रह्म बेकार है। बिचारा, हमारे किस काम का। इसके आगे दूसरा स्वरूप है परमात्मा का। इसमें आकार है और ‘भग’ का सब ऐश्वर्य है। शक्तियां भी प्रकट होती हैं, लेकिन पूरी-पूरी नहीं। और तीसरा है भगवान् शब्द, जिसके ये दोनों रूप हैं वह भगवान्। सगुण साकार भगवान् राम कृष्ण। इनमें सम्पूर्ण शक्तियों का प्राकट्य होता है, विकास होता है। ये सर्वदृष्टा, सर्वनियन्ता, सर्वसाक्षी, सर्वसुहृत, सर्वेश्वर, सर्वशक्तिमान हैं। अनंत गुण हैं। भले ही कोई पृथ्वी के रज कणों को गिन ले किन्तु राघवेन्द्र सरकार के गुणों को नहीं गिन सकता, अनंत।

यो वा अनंतस्य गुणानन्तान्।
[भागवत्]

अगर कोई कहे मैं गिन लूंगा, तो उसका ढीला है, आगरा भेज दो। नहीं गिन सकता। भगवान् राम की कोई चीज सीमित नहीं। उनके नाम अनंत, रूप अनंत, गुण अनंत, लीला अनंत, धाम अनंत, जन अनंत, गुण अनंत, सब अनंत-अनंत मात्रा का है, और ऐसा अनंत कि अनंत माइनस अनंत बराबर अनंत।

पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।

पूर्ण से पूर्ण निकालो फिर भी पूर्ण बचे, ऐसे पूर्णतम पुरुषोत्तम ब्रह्म राम हैं। तो वेद कहता है- स भगवान्। फिर कहता है वेद-

रामत्वं परमात्मासि सच्चिदानंद विग्रहः।

हे राम तुम परमात्मा हो। यानी भगवान् जो है वो परमात्मा भी है, ब्रह्म भी है। उसी के दोनों रूप हैं। जैसे-

चयस्त्विषामित्यवधारितं पुरा, ततः शरीरीतिविभा विताकृतिम्।
विभुर्विभक्तावयवं पुमानिति- क्रमादमुन्नारद इत्यबोधि सः॥

जब नारद जी भगवान् श्री कृष्ण के सामने आ रहे थे बैकुंठ से, तो पहले जनता ने देखा कोई लाइट आ रही है नीचे को, प्रकाश पुंज, और समीप में आये तो लोगों ने देखा कि इसमें कोई शक्ल भी मनुष्य की प्रकाश के साथ- साथ, और जब नीचे पृथ्वी के पास आ गये, अरे ये तो नारद जी हैं, अच्छा अच्छा-अच्छा। ऐसे ही ब्रह्म का स्वरूप लाइट का, परमात्मा का स्वरूप बीच वाला और भगवान् जो नारद पृथ्वी पर आ गये वो। जिसमें सब कुछ प्रत्यक्ष है, जैसे हम आपके सामने बैठे हैं। ऐसे हमारे राम कृष्ण हमारे सामने बैठते हैं, बोलते हैं, सब इन्द्रियों से हम उनको ग्रहण करते हैं। जैसे संसार को ग्रहण कर रहे हैं, इस प्रकार। तो वेद कहता है।

राम त्वं परमात्मासि सच्चिदानंद विग्रहः।

और एक वैलक्षण्य है भगवान् राम के शरीर में, कि वो स्वयं सच्चिदानन्द ब्रह्म हैं, और उनका शरीर भी वही है सच्चिदानन्द ब्रह्म। देखिये हम लोगों के एक तो शरीर है, एक हम हैं आत्मा ऐसे ही देवताओं का भी है, सबका ऐसे ही है अनंत कोटि ब्रह्माण्ड में। एक देह एक देही। लेकिन भगवान् राम का देह और देही दोनों एक हैं।

देह देहि भिदा चैवनेश्वरे विद्यते क्वचित्॥

ये भगवान् में नहीं होता। वो सच्चिदानन्द ब्रह्म शरीर और
आनंदमात्र करपाद मुखोदरादि:।

सब आनंद ब्रह्म आनंद ब्रह्म। और कुछ है ही नहीं, ये देखने का है शरीर। हाथ, पैर सब दिखायी पड़ेंगे आपको लेकिन वो हाड़ माँस नहीं। वो प्राकृत नहीं। वो सच्चिदानंद विग्रह है। शरीर ही सच्चिदानंद है, और शरीरी भी सच्चिदानंद है। ऐसा उनका शरीर है इसलिये।

चिदानंद मय देह तुम्हारी विगत विकार जानि अधिकारी।
ब्रह्म सच्चिदानंद घन रघुनायक जहँ भूप।
सोइ सच्चिदानंद घन रामा।

देखिये एक शब्द जोड़ रहे हैं इसमें ‘घन’ ये क्या बलाय है। सच्चिदानंद हो गया पर्याप्त है। ‘घन’ और जोड़ दिया। देखिये ये जो निराकार ब्रह्म है इसका नाम है सत्, चित्, आनंद। सत् से परे चित्, चित् से परे आनंद। तो चाहे सच्चिदानंद कहो, चाहे चिदानंद कहो और चाहे खाली आनंद कहो। वेद में कहा गया।

आनंदो ब्रह्मेति व्यजानात्। आनंदाद्धयेव खल्विमानि भूतानि जायन्ते। आनन्देन जातानि जीवंति। आनन्दं प्रयन्त्यभिसंविशंति।

आनंद ही ब्रह्म है। ब्रह्म में आनंद है ऐसा नहीं। आनंद ही ब्रह्म है।

आनंद एवाधस्तात् आनंद उपरिष्टात् आनंद: पुरस्तात् आनंदः पश्चात् आनंद उत्तरतः आनंद दक्षिणत: आनंद एवेद्ं सर्वं।

जिसके ऊपर आनंद, नीचे आनंद, दक्षिण आनंद, उत्तर आनंद, पूर्व आनंद, पश्चिम आनंद, अन्दर आनंद, बाहर आनंद, आनंद ही आनंद लबालब भरा है वह आनंद। ब्रह्म उसी का नाम, उसी का नाम राम। आनंद निराकार ब्रह्म, और निराकार ब्रह्म का भी सार तत्व, वो आनंद घन है अथवा आनंद कन्द है। ये दो शब्द का प्रयोग हुआ है शास्त्रों में राम कृष्ण के लिये। आनंद कंद या आनंद घन। तुलसीदास जी घन का प्रयोग कर रहे हैं। हमारे राम आनंद ही नही हैं। आनंद घन हैं। आनंद का भी सारभूत तत्व निकाल कर वो शरीर बना है।

राम एव परं तत्वम्।
[राम रहस्योपनिषदत्]

तो वेदों में सर्वत्र राम तत्व का निरूपण किया गया है। राम शब्द का अर्थ भी हुआ है। मैंने एक बताया आपको।

रमंते योगिनोनन्ते।

दूसरा अर्थ भी है।

रा शब्दो विश्व वचनो मश्चापीश्वर वाचकः।
विश्वानामीश्वरो यो हि तेन रामः प्रकीर्तितः।।

‘रा’ माने संसार, विश्व और ‘म’ माने ईश्वर। शासन करने वाला। सम्पूर्ण विश्व का शासन करने वाला, वो राम। और कोई शासन नहीं करता, सब उनसे शास्य हैं। सब उनसे नियम्य हैं। वो नियामक है, शासक है। तीन काम करते हैं राम। ब्रह्मा जी ने कहा वाल्मीकि रामायण में।

कर्ता सर्वस्य लोकस्य।

अनंत कोटि ब्रह्माण्ड को राम प्रकट करते हैं। प्रकट करते हैं? हाँ। और कोई नहीं कर सकता? न। तो किसी महापुरुष को ये शक्ति भगवान् ने नहीं दी, और सब दे दिया, सत्य, ज्ञान, आनंद।

अपहृत पाप्मा विजरो विमृत्युर्विशोकोऽविजिघत्सोऽपिपासः सत्यकामः सत्यसंकल्पः।

ये आठ गुण हैं । वेद के अनुसार ये सब दे देते हैं भक्त को, लेकिन सृष्टि करने की बात अपने हाथ में रखते हैं।

जगद् व्यापार वर्जम्।

वेदान्त का सूत्र कहता है। सृष्टि का कार्य भगवान् स्वयं करते हैं। इसलिए जो ब्रह्म की परिभाषा किया वेद ने, तो लिखा-

यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते। येन जातानि जीवंति यत्प्रयन्त्यभिसंविशंति। तद्विजिज्ञासस्व।

जिससे संसार उत्पन्न हो जिससे रक्षित हो, जिसमें लय हो। ये तीन काम जो कोई करे उसका नाम ब्रह्म राम। ये काम और कोई नहीं करता। महापुरुष लोग, दिव्यानंद, दिव्य प्रेम सब कुछ उनके पास है, लेकिन सृष्टि का काम भगवान स्वयं करते हैं।

भोग मात्र साम्य लिंगाच्च
[ ब्र. सू.]

ब्रह्मानन्द, प्रेमानंद, परमानंद, दिव्यानंद, अनिर्वचनीयानंद अपरिमेयानंद, अपौरुषेयानंद जो भगवान सम्बन्धी है वो देते हैं सब भक्तों को शरणागत को। सृष्टि का कार्य नहीं देते। इसलिये ब्रह्मा ने कहा-

कर्ता सर्वस्य लोकस्य।
अन्ते मध्ये तथा चाऽदौ।

इस संसार के प्रारम्भ में जो था, मध्य में जो है अन्त में जो रहेगा वो राम ब्रह्म, ये और कोई नहीं।

~ जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज

एक रुपय कमाना कठिन है, भगवान को पाना सरल है!

क्या बालक के गुण देखकर माँ दूध पिलाती है?
कम लायक बेटे को खाना नहीं देतीं, पानी नहीं देती?
एक रुपय कमाना कठिन है, भगवान को पाना सरल है!

बिगड़ी जन्म अनेक की अभी सुधरे आज,
होए राम को नाम भजु, तुलसी तजु कुसमाज।