Question/प्रश्न: Maharaj Ji! For attaining God, the Sadhana (spiritual practice} will be very long or can it be shortened? महाराज जी! भगवत्प्राप्ति के लिये साधना बहुत लम्बी होगी या इसे शॉर्ट भी किया जा सकता है?

Answer/उत्तर: There is no question of long or short in this. It depends only on our restlessness. That yearning, the restlessness of meeting should increase to the limit, it should happen as quickly as possible. We have to purify our inner self and the rest of the work will be done by the Guru and God. We will not do that, we cannot do it. From where will we buy the divine thing? The things that we have are material. Senses, mind, intellect, all are dirty. So by giving them away, the divine love of God, divine vision (darshan), this cannot happen with the natural eyes. We can only purify our inner self and for that, the only way is to increase restlessness. We have to increase the restlessness of meeting God by crying. Just like an innocent child, newly born, does not know anything, just cried and called out, now wherever the mother is, she will come and do her work. Child does not have to do anything. This is the meaning of complete surrender. Similarly in the matter of God.

Now since we have practised doing in infinite births, ‘I do, I do’, therefore I do not do. I surrender, it will take time to come to this state. Now whatever time you can give, by practising. This is what God said to Arjun:

Abhyasen tu kaunteya vairaagyena cha guhmate. (Gita 6-35)

Arjun! Remove your mind from the world and focus on me. Through the knowledge (Tattvajnan) that you are the divine soul, the world is material. This is for the body. God is for the soul, it is a simple matter. Do not try to see with the ears. Know that ears are for listening. Do not wish for happiness from the world, take a firm decision.Turn around. Only when you are determined firmly you can you move towards God. Our decision is not firm yet. Oh! Our wife is bad, other one’s is better. Our mother is bad, other one’s better. You think this. You do not think that everyone is in the same situation. Be it Bill Gates or a beggar, everyone is unhappy. Everyone is under the same tension. There is a delay in some decision, if that happens, by thinking again and again, then the speed of moving towards God will increase. Now we spend an hour or half an hour on the spiritual side and the rest of the time on the world.

This world keeps dominating. We washed a little dirt with soap and then applied it ten times more. So the mind is one, what can that poor thing do? You purified it by worshipping it for a while, and then again immersed it in the worldly affairs of mother, father, son, wife, husband, that is where the problem arose. So that is why you will have to work hard continuously. The day you surrender completely, the work is done. Do it in one day, do it in one year, do it in one birth, do it in ten births, you will have to do it, without it the goal of peace and happiness will not be achieved. Hey. We don’t do it, we don’t get into this mess. If you don’t get into this mess, then get into the mess of 84 lakhs species. You will have to get into a mess!

~ Jagadguru Shri Kripalu Ji Maharaj

इसमें कोई लम्बी और छोटी की बात ही नहीं है। ये तो खाली हमारी व्याकुलता पर निर्भर है। वो तड़पन, मिलन की व्याकुलता की लिमिट एक दम बढ़ जाये, जल्दी से जल्दी हो जाये। अन्त:करण की शुद्धि ही तो करना हैं हमको और बाकी काम तो गुरु और भगवान्‌ करेंगे। वो तो हम करेंगे नहीं, हम से हो भी नहीं सकता। दिव्य वस्तु हम कहाँ से खरीदेंगे? हमारे पास जो सामान खरीदने वाला है, वो मायिक है। इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, सब गन्दे। तो इनको दे करके भगवान्‌ का दिव्य प्रेम, दिव्य दर्शन, ये प्राकृत आँख से तो हो नहीं सकता। खाली अन्त:करण की शुद्धि हम कर सकते हैं और उसके लिये केवल व्याकुलता बढ़ाना एक मात्र उपाय है। रोकर उनके मिलने की व्याकुलता बढ़ाना है। जैसे भोला बालक होता है, तुरन्त का पैदा हुआ, कुछ नहीं जानता, केवल रोकर पुकार दिया, अब जहाँ कहीं माँ होगी, आयेगी, अपना काम करेगी। उसको कुछ नहीं करना। कम्पलीट सरेण्डर का मतलब ये। तो ऐसे ही भगवत्‌ विषय में भी।

अब चूँकि हमने अनन्त जन्म में करने का अभ्यास किया है ‘मैं करता हूँ, मैं करता हूँ’, इसलिये मैं नहीं करता। सरेन्डर करता हूँ, इस अवस्था पर आने में समय लगेगा। अब जितना समय जो दे सके, अभ्यास से। अर्जुन से भगवान्‌ ने यही कहा –

अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गुह्मते। (गीता ६-३५)

अर्जुन! मन को संसार से हटाकर मुझमें लगा। तत्त्वज्ञान के द्वारा कि तू आत्मा है, संसार मायिक है। ये शरीर के लिये है। आत्मा के लिये भगवान्‌ है, सीधी-सीधी बात है। कान से देखने की चेष्टा मत करो। जान लो कि कान सुनने के लिये होता है। ऐसे ही संसार से सुख पाने की कामना मत करो, डिसीजन ले लो, पक्‍का। वो एबाउट टर्न हो जाओ। कमर कसकर डट जाये तब भगवान्‌ की ओर चल सकता है। हमारा निर्णय पक्का नहीं है अभी। ऐ! हमारी बीबी खराब है, उसकी अच्छी होगी। हमारी माँ खराब है वो अच्छी होगी। तुम ये सोचते हो । तुम ये नहीं सोचते कि सबका एक हाल है। वो चाहे बिल गेट्स हो, चाहे भिखारी हो, सब दुःखी हैं। सबको टेन्शन है एक-सा | कुछ डिसीजन में देरी है, वो हो जाये, बार-बार, बार-बार चिन्तन से तो फिर भगवान्‌ की ओर चलने में तेजी आ जाये। अब हम घण्टे आधा घण्टे तो समय देते हैं स्प्रचुअल साइड में और बाकी संसार में समय दे रहे हैं।

ये संसार हावी होता रहता है। थोड़ा-सा हमने गन्दगी धोया साबुन से और दस गुना लगा दिया फिर। तो मन तो एक है, वो बेचारा क्या करे? तुमने उसको थोड़ी देर उपासना करके शुद्ध किया, और माँ, बाप, बेटा, स्त्री, पति संसार के प्रपंच में फिर डुबो दिया, वहीं गड़बड़ हो गया । तो इसलिये लगातार परिश्रम करना होगा। जिस दिन ये पूरा-पूरा सरेन्डर कर देगा, बस हो गया काम । एक दिन में कर दे, एक साल में कर दे, एक जन्म में, दस जन्म में कर दे, करना पड़ेगा, उसके बिना सुख शान्ति का लक्ष्य नहीं हल होगा। ऐ। अजी हम नहीं करते, हम इस चक्कर में नहीं पड़ते । इस चक्कर में नहीं पड़ते तो चौरासी लाख के चक्कर में पड़ो। पड़ना तो पड़ेगा ही एक चक्कर में।

~ जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज

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When the wealth of satisfaction comes, all wealth becomes like dust. जब आवत संतोष धन, सब धन धूरि समान।

One who is fond of his own will is always restless and dissatisfied. But one who is devoted to God is calm and contended, he finds everything acceptable and pleasant. He is blessed with all the good qualities.

जिसे मन मर्जी पसंद है वह हमेशा अशांत और असंतुष्ट रहता है। लेकिन जो ईश्वर को समर्पित है, वह शांत और संतुष्ट रहता है, उसे सब कुछ स्वीकार्य और सुखद लगता है। उसमे सब सद्गुण आ जाते हैं।

~ Saints Sayings संत वचन
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कौन कहता है भगवान आते नहीं? Who says God does not come?

कितने ही सीधे-सादे और अनपढ़ लोग हुए हैं, जिन्होंने न पढ़ पाने के बावजूद भगवान से प्रेम किया और उन्हें पाया! और इस दुनिया के कितने ही विद्वान लोग शापित रह गए! तो यह पहले वाले ही थे जो वास्तव में बुद्धिमान थे, न कि बाद वाले। चतुराई चौपट करें, ज्ञानी गोते खाए, भोले भाले लोगों को नारायण मिल जाएं।

How many simple and illiterate people there have been who, in spite of being unable to read, loved God and found Him! And how many learned men of this world remain cursed! So it is the former who were truly wise, not the latter. Cleverness ruins, wise drowns and innocent people find God.

~ Saints Sayings संत वचन
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प्रारब्ध और पुरुषार्थ!

हम अज्ञानता वश धन-संपत्ति, भोग-कामना, मान-सम्मान आदि की लोलुपता और चिंता में अनवरत अनावश्यक श्रम और समय देकर अपना अमूल्य जीवन व्यर्थ कर देते हैं। जो प्रारब्ध से निर्धारित है वो अवश्य मिलेगा – जो हमने पूर्व जन्म में पुण्य किए हैं – दान, दया, त्याग, सेवा आदि से निर्धारित और कभी कभी इसी जन्म में किय विशेष पुण्य कर्मों पे आधारित, अगर कोई प्रबल प्रारब्ध बंधन न हो। संयोग से अधिक कुछ जो आ जाएगा वो चला जाएगा।

प्राप्तव्यमर्थं लभते मनुष्यो देवोऽपि तं लङ्घयितुं न शक्तः।
तस्मान्न शोचामि न विस्मयो मे यदस्मदीयं न हि तत्परेषाम् ॥
~ पंचतंत्र मित्रसमप्राप्ति 112

अर्थ: मनुष्य को जो प्राप्त होना होता है, उसका उल्लंघन करने में देवता भी समर्थ नहीं हैं इसलिए मुझे न आश्चर्य है और न शोक क्योंकि जो मेरा है वह किसी दूसरे का नहीं है।

प्रारब्ध से परिस्थिति वश जो दुख आता है वो सीमित होता है। हम ज्यादातर दुख अपनी अज्ञानता, आसक्ति और मूर्खता वश पाते हैं, अपने और संसार के सही सही स्वरूप का ज्ञान ना होने के कारण।

सुनहु भरत भावी प्रबल बिलखि कहेउ मुनिनाथ।
हानि लाभु जीवनु मरनु जसु अपजसु बिधि हाथ॥
~ रामचरितमानस

आयुः कर्मं च वितं च विद्यानिधन मेवI
पंञ्चैतान्यायं सृज्यन्ते गर्भस्थस्यैव देहिनःII
~ नीतिसार

अर्थ (धन-सम्पत्ति) और भोग (कामनाओं की पूर्ति) में प्रारब्ध की प्राथमिकता है और धर्म (कर्तव्य-कर्म, सही-गलत ) और मोक्ष ( मुक्ति और भगवद्गप्राप्ति) में पुरूषार्थ की। इसलिए अनावश्यक अनवरत श्रम ना करके धार्मिक जीवन के साथ भगवद् प्रवृत्त चिंतन में समय देना चाहिए।

प्रारब्ध पहले रचा पीछे रचा शरीर,
तुलसी चिन्ता क्यों करे भज ले श्री रघुवीर।
~ तुलसी दोहावली

मुरदे को हरि देत है, कपड़ा लकड़ी आग।
जीवित नर चिन्ता करे, उनका बड़ा अभाग।।
~ संत कबीर दास जी

घर नहीं ग्रहस्थी नहीं, नहीं रुपैयो रोक।
खाने बैठे रामदास, आन मिलै सब थोक।।
~  संत वाणी

समुद्र-मथने लेभे हरिः, लक्ष्मीं हरो विषम्।
भाग्यं फलति सर्वत्र ,न च विद्या न पौरुषम्॥
~ नीतिविवेक

अगर हम कर्म रहस्य समझ ले तो चिंता मुक्त हो जाए, सुख में हर्षित ना हो और दुख में शोकित ना हों, नए कर्म बंधन में ना फंसे, समता के साथ अपना कर्तव्य पालन करते हुए प्रभु प्रेम में मगन रहें।

जीव का परम चरम लक्ष्य भगवान को पाना है ना कि संसार में समय गवाना है। जिस आनंद की हमारी चाह है वह जड़ नश्वर संसार में नहीं अपितु भगवान में है क्योंकि भगवान ही असली आनंद हैं!

आनन्दो ब्रह्मेति व्यजानात्।
~ तैत्तिरीय उपनिषद – भृगु वल्ली – 3-6-1

भगवान ने प्रारब्ध हमे चिंता से मुक्त करने के लिय बनाया है और पुरुषार्थ अपना कर्तव्य कर्म करते हुए उन्हें पाने के लिए।

~ राधाकृष्ण दास

भगवान सर्वव्यापक हैं

आपको बताया गया कि भगवान जड़ चेतन सर्वत्र व्यापक हैं और जीवात्मा खाली एक शरीर में व्यापक है। सृष्टि स्रजन, संरक्षण के लिये भगवान् परमाणु परमाणु में व्याप्त हैं। भगवान हर एक जीवात्मा के अंतः करण में भी रहते हैं, परमात्मा स्वरूप में, उसके सब कर्मों का हिसाब करता हैं, फल देते हैं।

हरि ब्यापक सर्बत्र समाना।
प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना॥
~ रामायण

भगवान् संसार की रचना करते हैं, उसका पालन करते हैं और अंत में उसका प्रलय कर देते हैं अर्थात् यह सम्पूर्ण संसार ईश्वर से प्रकट हुआ है, भगवान द्वारा इसका पालन किया जाता है और अंत में फिर यह सम्पूर्ण संसार ईश्वर में समा जाता है। संसार का नियामक भगवान है। इस संसार के प्रत्येक परमाणु में भगवान व्याप्त है, अतः भगवान सर्वव्यापक है। सृष्टि का पालन एवं उसकी रक्षा करने के लिये भगवान् संसार के प्रत्येक परमाणु में व्याप्त होते हैं।

कुछ लोग कहते हैं कि घड़ी अपने आप चलती है ऐसे ही सृष्टि भी अपने आप है, किन्तु उन्हें सोचना चाहिये कि घड़ी पूर्व में नहीं चलती थी जब किसी ने उसे बनाया तब चलने लगी एवं पश्चात् भी नहीं चलेगी अर्थात् नष्ट हो जायगी, तब फिर बनानी पड़ेगी। इसके अतिरिक्त यह भी विचारणीय है कि घड़ी बनाने वाले ने घड़ी तो बनायी है किन्तु उस घड़ी के लौह परमाणुओं की क्रिया को घड़ीसाज नहीं जानता अर्थात् उस पर कन्ट्रोल नहीं कर सकता। उसे कन्ट्रोल करने वाला ईश्वर है। अतएव भगवान को सर्वव्यापक होना पड़ता है अन्यथा वे परमाणु ठीक रूप से काम नहीं कर सकते।

यहाँ पर एक प्रश्न यह भी उत्पन्न होता है कि यदि भगवान् सर्वव्यापक है तो फिर उसका हमें अनुभव क्यों नहीं होता। रसगुल्ला खाते हैं, चीनी खाते हैं तो हमें उसकी मिठास का अनुभव होता है फिर प्रत्येक परमाणु में व्याप्त आनन्दमय भगवान् के आनन्द का हमें अनुभव क्यों नहीं होता? दूध पीने में दूध का अनुभव होता है, विष खाने में विष का अनुभव होता है, उसी प्रकार भगवान् का भी अनुभव हमें होना चाहिये। आप लोगों का दावा है कि अनुभव में आने वाली वस्तु ही आप मान सकते हैं। अनुभव प्रमाण ही आपको मान्य है। किन्तु अनुभव प्रमाण सबसे निर्बल प्रमाण है। पीलिया रोग के रोगी को सर्वत्र पीला ही पीला दीखता है किन्तु उसका अनुभव भ्रामक है। साँप के काटे हुए व्यक्ति को नीम मीठा लगता है। इसी प्रकार भव-रोग से ग्रस्त जीव को किसी भी वस्तु का अनुभव भ्रामक ही होता है। एक चींटी चीनी के पहाड़ पर चक्कर काटकर लौटी और उससे पूछा गया तो उसने अनुभव यह बताया कि यह पर्वत नमकीन था। बड़ा आश्चर्य हुआ किन्तु जब जाँच हुई तो पता चला कि चींटी के मुख में नमक की डली रखी हुई थी। अस्तु, सर्वत्र शक्कर के ढेर पर भ्रमण करते हुए भी उसे अपने मुख में रखे हुए नमक का ही स्वाद अनुभव में आया। उसी प्रकार जिस इन्द्रिय, मन, बुद्धि से हम संसार को ग्रहण करते हैं वे सब प्राकृत, मायिक, त्रिगुणात्मक एवं सदोष हैं और भगवान् प्रकृत्यतीत, दिव्य, गुणातीत एवं दोषरहित है, फिर हम इनसे उसके ठीक स्वरूप को किस प्रकार से पहचान सकते हैं? जब तक ये दिव्य न हो जायें, इनका अनुभव सही कदापि नहीं हो सकता।

हम लोग छोटी सी चीज को पाने के लिये पहले सोचते हैं, फिर प्लानिंग किया, फिर प्रैक्टिस किया, फिर भी वो काम पूरा हो न हो, डाउट है। लेकिन भगवान् के एरिया में ये बात नहीं। भगवान् ने सोचा कि ये संसार बन गया और उन्होंने ऐसी शक्ति हमको दी है अपने आपसे मिलने के लिये कि बच्चों! तुम भी सोचो, हम मिल जायेंगे। ऐं सोचने से मिल जाओगे? हाँ।

   मामनुस्मरतश्र्चित्तं मय्येव प्रविलीयते।
          ( भाग.११-१४-२७ )

केवल सोचो मन से कि वो मेरे हैं, वो मेरे हैं, वो मेरे हैं, वो मेरे अन्दर में हैं, सर्वव्यापक भी हैं, वे गोलोक में भी हैं। ये फेथ(Faith), विश्वास, इसका रिवीजन(Revision)। इसी का नाम साधना। बस सोचो।

भगवान् की इतनी बड़ी कृपा है कि वे कहते हैं कि मैं सर्वव्यापक हूँ, तू इसको मानता नहीं है, मैं गोलोक में रहता हूँ, वहां तुम आ नहीं सकते, मैं तुम्हारे अंतःकरण में तुम्हारे साथ बैठा हूँ इसका तुम्हे ज्ञान नहीं है, इसलिए लो, ‘ मैं ‘ अपने नाम में अपने आप को बैठा देता हूँ। ” अपने नाम में ‘मैं’ मूर्तिमान बैठा हुआ हूँ।”

जिस दिन यह बात तुम्हारे मन में बैठ जाएगी, तुम्हें यह दृढ विश्वास हो जाएगा कि भगवान् और भगवान् का नाम एक है। दोनों में एक जैसी शक्तियाँ हैं, एक से गुण हैं, उस दिन फिर एक नाम भी जब लोगे, एक बार भी ‘राधे’ कहोगे तो कहा नहीं जायेगा, वाणी रुक जाएगी, मन डूब जायेगा, कंठ गद्गद हो जायेगा, फिर भगवत्प्राप्ति में क्या देर होगी। उसी क्षण गुरुकृपा एवं भगवत्प्राप्ति हो जाएगी। मेरे केवल इसी वचन पर विश्वास कर लो, स्वर्ण अक्षरों में लिख लो।

~ जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज

एक रुपय कमाना कठिन है, भगवान को पाना सरल है!

क्या बालक के गुण देखकर माँ दूध पिलाती है?
कम लायक बेटे को खाना नहीं देतीं, पानी नहीं देती?
एक रुपय कमाना कठिन है, भगवान को पाना सरल है!

बिगड़ी जन्म अनेक की अभी सुधरे आज,
होए राम को नाम भजु, तुलसी तजु कुसमाज।

भगवान कैसे मिलते हैं? How is God realized?

जो सोचता है अभी बहुत साधना करनी है भगवान को पाने को, निसंदेह उसे अभी बहुत साधना करनी है। जो समझ गया है कि भगवान कोई साधना से नहीं मिलते, कोई बल से नहीं मिलते, बल्कि साधनहीन भाव से मिलते हैं, निर्बल को मिलते है, चाहए साधना कर-कर के हार के यह समझो या विवेक से समझो, फिर उस समझ में, उस पुकार में जो दीनता होगी, बस उनका ही सहारा होगा, फिर आँखों से आसु नहीं रुकेंगे, पल-पल उनसे मिलने की तड़पन होगी, हर पुकार भगवान को अपनी ओर खीचेगी और जब एक-एक पल युग के समान प्रतीत होगा, तब उनको आना ही पड़ेगा!

The one who thinks that he still has to do a lot of sadhana to attain God, undoubtedly he still has to do a lot of sadhana. And the one who has understood that God is not realized through any sadhana or any strength, He reveals Himself to the meek and surrendered souls, You can understand this after doing years of spiritual practice or you can understand it with wisdom, then in that understanding, there will be a submission, tears will flow nonstop, every moment there will be a great yearning to meet Him. Your every call will bring God near to you and when each moment seems like an eternity, then God will have to come!

When is God realized? भगवान कब मिलते हैं?

Only the one who is longing to meet God and wants to meet Him NOW, realizes God! The one who thinks that God can be realized but it will take time, for him it will take a long time.

जो भगवान के लिए व्याकुल है और अभी उनसे मिलना चाहता है, उसे ही भगवान मिलते हैं! जो सोचता है कि भगवान मिलेंगे पर समय लगेगा, उसे अभी बहुत समय लगेगा।

Who realizes God? भगवान किसको मिलते हैं?

The one who believes that he will definitely realize God, he definitely realizes God, and the one who doubts about realizing God, he does not realize God. All that is needed is the unwavering faith in the unfathomable Grace of God!

जो यह मानता है कि उसे ईश्वर अवश्य मिलेंगे, उसे ईश्वर अवश्य मिलते हैं, और जो उनके मिलने में शंका करता है उसे वह नहीं मिलते। बस आवश्यकता है ईश्वर की अद्भुत कृपा पर अटूट विश्वास की!

प्रेम की पुकार

जैसे हमें कोई प्रेम से पुकारे तो हम उसकी ओर खिच जाते हैं.. वैसे ही हमारी पुकार भगवान को पुलकित करती है। अगर हमारी पुकार में अधीरता और दीनता भी भरी हो तो उनको आना ही पड़ता है!

सरल सुभाव न मन कुटिलाई,
भजत कृपा करिहहिं रघुराई॥

भगवान कैसे मिलते हैं?

हज़ारों साधनाए करते रहो, साधन कर कर के अनन्त जन्म बिता दो, लेकिन भगवान नहीं मिलेंगे, भगवान तो शरणागति से मिलते हैं – साधनहीन भाव से मिलते हैं, साधन बल को भुला दो!

“साधनहीन दीन अपनावत” है वो!

“नाथ सकल साधन से हीना”, भीतर से यह भावाना बनानी होगी, करेक्ट, सेंट पर्सेन्ट!

सुनी री मैंने निरबल के बल राम। जब लगि गज बल अपनी बरत्यो, नेक सर्यो नहिं काम। निरबल है बल राम पुकार यो आये आधे नाम

राधे राधे गाओ रे, हरि गुण गाओ रे, आयेंगे भाजे मोहन, रो के बुलाओ रे।

#Jagadguru_Shri_Kripaluji_Maharaj. #Divine_Saint_Shri_Ghanshyam_Dasji

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प्रत्येक व्यक्ति भक्ति का अधिकारी है! Everyone is entitled to Devotion!

पुरुष नपुंसक नारि नर जीव चराचर कोइ।
सर्व भाव भज कपट तजि मोहि परम प्रिय सोइ॥
~ रामायण

प्रत्येक जीव, जो छल कपट त्याग कर, निष्कपट भाव से भगवान् की भक्ति करता है वह जीव भगवान् को परम प्रिय होता है।

Every living being, who does devotion to God sincerely, leaving deceit, that living being is very dear to God.

मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्।।
~ भगवद्गीता 9.32

वे सब जो मेरी शरण ग्रहण करते हैं भले ही वे जिस कुल, लिंग, जाति के हों और जो समाज से तिरस्कृत ही क्यों न हों, वे भगवद्ग प्रेम के परम लक्ष्य को प्राप्त करते हैं।

All those who take refuge in Me, irrespective of their clan, gender, caste and even if they are despised by the society, attain the ultimate goal of Divine Love.

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः॥
~ श्रीमद्भगवद्गीता 9.30

यदि महापापी भी मेरी अनन्य भक्ति के साथ मेरी उपासना में लीन रहते हैं तब उन्हें साधु मानना चाहिए क्योंकि वे अपने संकल्प में दृढ़ रहते हैं।

क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्त: प्रणश्यति॥
~ श्रीमद्भगवद्गीता 9.31

वे शीघ्र धार्मात्मा बन जाते हैं और चिरस्थायी शांति पाते हैं। हे कुन्ती पुत्र! निडर हो कर यह घोषणा कर दो कि मेरे भक्त का कभी पतन नहीं होता।

If even the greatest of sinners remain engrossed in worshiping Me with undivided devotion, then they should be considered sages because they remain firm in their resolution.

भगतिवंत अति नीचउ प्रानी।
मोहि प्रानप्रिय असि मम बानी॥
~ रामचरितमानस

जन अवगुन प्रभु मान न काऊ,
दीन बंधु अति मृदुल सुभाऊ।
~ रामचरितमानस

उलटा नाम जपत जग जाना।
बाल्मीकि भए ब्रह्म समाना।।
~ रामचरितमानस

जिसके इतने पाप हैं जो भगवान का नाम भी न ले पा रहा हो, अगर वो भगवान पर आश्रित है, तो उसका भी कल्याण निश्चित है!

The one who has so many sins that he is not able to even take the name of God, if he is dependent on God, then his welfare is also certain.

Suffer everything for the love of God! ईश्वर प्रेम में सब कुछ सह जाओ!

When we are insulted, accused and laughed at, then we have to imbibe the qualities of patience, meekness and humility, to bear silently in the love of God. 

Whether we are wronged or not, we have to think that I deserve this, so many people I have hurt in my ego and indulgence. God is sanctifying me, I have to bear the pain.

Also, only those who are unhappy, hurt others. We should learn to be merciful and pray for them. They are lost children of God, our brothers & sisters.

If we choose to question or reprimand the behavior, we should reciprocate intelligently and politely with love and compassion in our heart for their betterment, not for our own ego gratification or out of retaliation.

जब हमारा अपमान हो, आरोप लगे और हंसी हो, तब हमे धैर्य, नम्रता और दीनता के गुणों को धारण करना है, प्रभु प्रेम में चुपचाप सहना है।

चाहे हमारे साथ अन्याय हो या न्याय, हमे ये सोचना है कि मैं इसी लायक हूँ, अपने अहंकार और आसक्ति में मैंने कितनों को दुख दिया है, प्रभु मेरा सुधार कर रहे हैं, दुख को सह जाना है।

इसके अतरिक्त, जो अशांत हैं वहीं दूसरे को दुख देते हैं, उन पर दया करनी है, वह ईश्वर के भटके हुए बच्चे, हमारे भाई-बहन हैं।

यदि उनके व्यवहार के उत्तर में हम कुछ बुद्धि-संगत कहते हैं या उसकी भर्त्सना करते हैं, तो हमें वो ह्रदय में विनम्रता, प्रेम और दया के साथ उनके सुधार के लिए करना है, न कि अपने अहंकार की पुष्टि या प्रतिशोध में।

Importance of Bhakti!

The scriptures declare that only through “Bhakti” one can realize God, there is no other Way!

न साधयति मां योगो न साङ्ख्यं धर्म उद्धव।
न स्वाध्यायस्तपस्त्यागो यथा भक्तिर्ममोर्जिता॥
~ श्रीमद्भागवद्  11.14.20

Shri Krishna says I cannot be realized by Yoga, Sāṅkhya Knowledge, Pious Work, Vedic Study, Austerity or Renunciation. I am known only by Unalloyed Devotion (भक्तिर्ममोर्जिता).

अथात आनन्ददुघं पदाम्बुजं
हंसा: श्रयेरन्नरविन्दलोचन।
सुखं नु विश्वेश्वर योगकर्मभि-
स्त्वन्माययामी विहता न मानिन:॥
~ श्रीमद्भागवद्  11.29.3

Uddhav is saying to Lord Krishna, “Therefore O lotus-eyed Lord of the universe, in the end even elevated souls like हंस, परमहंस (स्वरूप में स्थित योगी, ज्ञानी आदि) happily takes shelter (being unable to overcome maya) of your lotus feet, which are the source of all divine bliss. But those who are proud of the achievements of their yoga and work, they do not take shelter of you and are defeated by your illusionary power maya.

भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वत:।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्॥
~  श्रीमद्भगवद्गीता 18.55

Only by loving devotion to Me does one come to know who I am in Truth. Then, having come to know Me, My devotee enters into full consciousness of Me.

पुरुष: स पर: पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया।
यस्यान्त:स्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम्॥
~  श्रीमद्भगवद्गीता 8.22

The Supreme Divine Personality is greater than all that exists. Although He is all-pervading and all living beings are situated in Him, yet He can be known only through Devotion.

भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन।
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप॥
~  श्रीमद्भगवद्गीता 11.54

O Arjun, by unalloyed devotion alone can I be known as I am, standing before you. Thereby, on receiving My divine vision, O scorcher of foes, one can know Me and see Me and enter into union with Me.

Every where it is repeated again & again that Only by loving Devotion can any one know God.

श्री रामचरितमानस Says

रामहि केवल प्रेम प्यारा, जान लेऊ जो जानन हारा।

Lord Shri Ram is only realized by Love. Reveal this truth to all those who really want to know.

Guru Nanak Dev Ji Says

हरि सम जग महान वस्तु नहीं, प्रेम पंथ सौ पंथ, सद्गुरु सम सज्जन नहीं, गीता सम नहीं ग्रंथ।

All different paths are difficult and take you only that far, it is only Bhakti which takes you all the way to God. It is simple and easy, God like a mother, herself nurse and nourish the devotee and take him in her lap. All one has to do is to have unflinching faith in God and surrender to him in love. His grace does the rest.

Bhagavad Gita Says

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिन:॥
~ श्रीमद्भगवद्गीता 4.34

Learn the Truth by approaching a spiritual master. Inquire from him with reverence and render service unto him. Such an enlightened Saint can impart knowledge unto you because he has seen the Truth.

In Bhakti, it is most essential that we take shelter of a Guru who is well versed in the Scriptures (श्रोत्रिय) and God-Realized (ब्रह्मनिष्ठ), serve him, understand the correct principles and subtleties of Bhakti from him, and do practice under his guidance. Then welfare is certain, there is no doubt about it!

Jagadguru Shri Kripalu Ji Maharaj Says

मन मनमोहन भजन कर, सजन स्नेही मान।
बिनुहिन बुलाय अहै, जग विराग अरु ज्ञान॥

Love wants Nothing but to give Everything.. जो तुम तोड़ो पिया, मैं नाही तोडू रे।

Meera Ji’s bhajan तुम भये तरुवर, मैं भयी पंखिया*.. beautifully illustrate how both soul and God are one in love as the existence is one ( ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्मम्’ – “सब ब्रह्म ही है”  छान्दोग्य उपनिषद ३/१४/१- सामवेद ), yet both have their own distinct eternal personalities ( ‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।’. . “किसी नित्य सत्ता का अभाव नहीं हो सकता.. जो आज है, वो कल भी था और कल भी रहेगा।” भगवद्गीता 2.16). One exist for the pleasure of other and this giving of happiness to Other is True Love.

One can love God in moods (भाव) of one’s master, friend, child, beloved..like हनुमान जी, श्रीदामा/सुदामा (गोप, ग्वाल-बाल), नंद/यशोदा, राधा जी/गोपी respectively .. the later contain all the preceding moods and leads to highest devotional divine bliss.. ( मन तेरो साचों यार ब्रजराज कुमार, तेरो सोई स्वामी, सोई सखा, सूत, भरतार ~ प्रेम रस मदिरा).

The beauty and influence of Divine Love (आह्लादिनी शक्ति) is such that it makes even God forgets his authoritative position in reality (so much so that He does not remember that ‘he’ is God any more) and He seeks to love you and be loved like nobody.

A True Beloved (प्रेमास्पद) is one who doesn’t want anything from you and only want your happiness, one who is all complete and selfless, only God qualifies on that criteria. *When one starts to love him, one also starts to become like him, selfless, complete and divine, wanting only others happiness (निष्काम प्रेम).

* जो तुम तोड़ो पिया, मैं नाही तोडू रे।
तोरी प्रीत तोड़ी कृष्णा, कौन संग जोडू॥

तुम भये तरुवर, मैं भयी पंखिया।
तुम भये सरोवर, मैं भयी मछिया॥

तुम भये गिरिवर, मैं भयी चारा।
तुम भये चंदा मैं भयी चकोरा॥

तुम भये मोती प्रभु जी, हम भये धागा।
तुम भये सोना, हम भये सुहागा॥

बाई मीरा के प्रभु बृज के बासी।
तुम मेरे ठाकुर, मई तेरी दासी॥

भगवान कैसे मिलें? क्या भगवान हमें प्रेम करते हैं? हमेशा के लिय दुख कैसे जाए? क्या भगवान साकार हैं? क्या उनका लोक है? इस संसार का क्या स्वरूप है?

भगवान केवल रोने से मिलते हैं.. प्रेम से मिलते हैं.. भक्ति से मिलते हैं.. केवल आँसू ही एक माध्यम हैं उन्हें बताने के लिए हम उनके बिना कुछ भी नहीं.. हम असहाय हैं.. अनाथ हैं.. अपराधी हैँ.. अनंत पाप किए बैठे हैं..  उनको ना जाना ना माना.. उनके प्रेम का अनादर किया..

“मो सम कौन कुटिल खल कामी। जेहिं तनु दियौ ताहिं बिसरायौ, ऐसौ नमकहरामी॥” ( सूर सागर ~ संत सूरदास)

भगवान के लिय सच्चे आँसुओं में अनन्त बल है जो केवल निर्बल को प्राप्त है..आश्रित को प्राप्त है..प्रेमी को प्राप्त है.. व्याकुलता से भरा एक एक आँसू एटॉमिक बम है..

भगवान की कृपा के बिना ना मन शुद्ध होगा. ना ही दुख निवृत्ति होगी.. भगवद्ग प्राप्ति, परमानंद प्राप्ति, माया निवृत्ति की तो छोड़िए.. कोई लाख ध्यान कर ले ज्ञान कर ले.. बड़े बड़े ज्ञानी योगी हुए, हैं, होंगे.. हज़ारों वर्ष तपस्या की.. बड़ी बड़ी योगिक सिद्धियां मिल गई.. पर माया नहीं गई.. आत्मिक आनंद (मायीक सात्विक आनंद) को ही दिव्यानंद, परमानंद समझ लिया.. भगवान के शरणागत नहीं हुए.. भक्ति नहीं की.. फिर पतन हो गया… जीवन-मुक्त जड़भरत की यहि कहानी है .. फिर जब भक्ति की अगले जन्म में तो भगवान की कृपा से उद्धार हुआ.. इतिहास गवाह है.. शास्त्र प्रमाण हैं.. भरा पड़ा है… 

कलिजुग जोग न जग्य न ग्याना। एक अधार राम गुन गाना॥ सब भरोस तजि जो भज रामहि। प्रेम समेत गाव गुन ग्रामहि॥ (रामायण)

हम संसार में भोग के लिए नहीं आए.. अगर हमने भगवान को ना जाना तो बहुत बड़ी हानि हो जाएगी.. चौरासी लाख योनि में जाने की तैयारी है.. जहां महा दुख है.. यह परिवार, धन दौलत, मान सम्मान कुछ साथ नहीं जाएगा.. मनुष्य जन्म अनमोल है..

“अवसर चुकीं फिरी चौरासी कर मींजत पछतात.. अरे मन अवसर बीतो जात”.. (प्रेम रस मदिरा ~ जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज)

भगवान हमसे अनंत प्रेम करते हैं, हम अनन्त काल से अंधकार में हैं, पर हमेशा रहें ऐसा जरूरी नहीं, हम भगवान को भूले हुए हैं, पर वो हमे नहीं भूले, वो हमे उनका सब कुछ देना चाहते हैं दिव्य-दिव्य, इस दुखमय मायीक संसार से निकालना चाहते हैं.. क्या नहीं करते भगवान हमारे लिए, निराकार रूप से सर्वव्यापक हैं, यह संसार बनाया, शरीर बनाया, हमारे हृदय में.. आत्मा में बैठें हैं, हमारे सारे कर्म नोट करते हैं, अच्छे बुरे कर्मों का फल देते हैं, सब व्यवस्था रखतें हैं, परमाणु परमाणु में बैठकर.. संसार का ऐसा स्वरूप बनाया कि हम दुख पाने पर जागें और सोचें कि क्या हम शरीर हैं? क्या इस संसार में सच्चा सुख है? हमारा दुख कैसे जाए? .. असली में हम कौन हैं, हमारा कौन हैं? आदि ..पर हम इतने संसार आसक्त हो गए कि लाख दुख पाने पर भी वहीं नाक रगड़तें हैं.. आनंद की भूख इतनी प्रबल है कि दुख पाने पर भी अनित्य, क्षणिक सुख में बार बार गिरते हैं..

भगवान असली में हैं, वो साकार हैं और निराकार भी, उनका शरीर दिव्य है, सच्चिदानंद विग्रह है, मैटीरियल नहीं.. तर्क से भी सर्वशक्तिमान भगवान क्या साकार नहीं हो सकते? साकार ही नहीं वो “नित्य” साकार हैं और निराकार का आधार हैं..

द्वे वाव ब्रह्मणो रूपे मूर्तं चैव अमूर्तं च । (बृहदारण्यकोपनिषत् २-३-१)

अर्थात्‌ साकार एवं निराकार भगवान के दो स्वरूप होते हैं।

चिदानन्दमय देह तुम्हारी, विगत विकार जान अधिकारी। (रामायण )

आपका देह दिव्यातिदिव्य है, चिन्मय-अविनाशी है, जिसके दर्शन दिव्य दृष्टि मिलने पर होते हैं।

उनके दिव्य लोक हैं उनका सब कुछ दिव्य है.. उनको प्राप्त करने पर जीव को भी दिव्य देह मिलती है (दिव्य भाव देह) और उनका लोक भी दिव्य है अपितु स्वयं बन गए हैं..

साकार भगवान के प्रेमानंद की एक बूंद पर अनंत ब्रह्मानंद (निराकार भगवान का आनंद) न्यौछावर हैं.. इतना बड़ा और रसमय हैं भगवान के साकार स्वरूप का आनंद.. इसलिए भगवान ने साकार संसार बनाया हैं (जो दिव्य लोक का विकृत प्रतिबिंब है) कि हम इस रहस्य को जाने.. यहा अपूर्णता है वहां पूर्णता है.. यहां का आनंद मायीक है, अनित्य है, क्षणिक है, दुख मिश्रित है.. भगवद्ग प्रेमानंद दिव्य है, अनंत है, नित्य है, प्रति पल वर्धमान है, नवीन है.. यह वेद सम्मत सिद्धांत है.. वेदों के मन्त्रों में इसके प्रमाण हैं.. 

भगवान ही हमारे सर्वस्व हैं ..यह संसार माया का बना है.. दुखालय है.. हम परमानंद चाहते हैं जो भगवान स्वयम हैं.. वो आनंद सिंधु हैं.. हम आनंद के अंश हैं भगवान के अंश हैं ..

रसो वै सः। रसं ह्येवायं लब्ध्वा आनन्दी भवति। ( तैत्तिरीयोपनिषत् २-७-२ )

भगवान रस स्वरूप हैं, सच्चिदानंद विग्रह हैं। जब हम इस रस को, इस आनंद को प्राप्त कर लेते हैं तो स्वयं आनन्दमय हो जाते हैं. ।

चिन्मात्रं श्रीहरेरंशं सूक्ष्ममक्षरमव्ययम् ।  कृष्णाधीनमिति प्राहुर्जीवं ज्ञानगुणाश्रयम् ॥ ( वेद )

ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन:। ( गीता 15-7 )

ईश्वर अंश जीव अविनाशी चेतन अमल सहज सुख राशी। ( रामायण )

हम ईश्वर के अनादि अंश है.. शास्त्र प्रमाण हैं.. ‘मैं’ शरीर, इन्द्रिय, मन आदि नहीं है । अतएव हमारा असली सुख ईश्वरीय है।

इस अंधकार रूपी संसार  में वस्तु, व्यक्ति, मान सम्मान की चाह बनाकर भटकते भटकते हमें अनंत जन्म बीत गए.. किस योनि में नहीं गए? .. कौन सा दुख नहीं पाया? .. संसार के सुख दुख मिश्रित हैं..सब स्वार्थ से जुड़े हैं, अपूर्ण हैं, स्वार्थ खत्म, प्यार खत्म.. हमारा असली स्वार्थ.. दिव्य स्वार्थ.. पूर्णतम पुरुषोत्तम भगवान से है..उनको किसी से कुछ नहीं चाहिए.. वो अनंत हैं.. उनका सब कुछ अनन्त है..दिव्य है.. वो केवल देना देना जानते हैं.. वो हमारे अपने से भी अपने हैं.. आत्मा की आत्मा हैं.. सबका श्रोत हैं.. वात्सल्य सागर हैं, कृपा सिंधु हैं, दीन बन्धु हैं, पतित पावन हैं, निर्बल के बल हैं!

सच्चे आंसुओ को वो सह नहीं पाते.. पिघल जाते हैं.. वो हमसे कोई साधना की अपेक्षा नहीं रखते.. बस हम उनको अपना मानकर पुकारें, अपनी दयनीय स्थिति को जानकर, अपने को पतित मानकर, निर्बल होकर.. जैसे एक तुरंत का पैदा हुआ बच्चा रो देता है.. वो तो माँ को भी नहीं जानता.. पहचानता.. फिर माँ उसका सब कुछ करती है.. और हमारी असली माँ सर्वज्ञ है, वो हमे एक टक देखती रहती है पर हम उसे भूले हुए हैं.. बस हमारे पुकारने भर की देर है.. ।

हमारी दुर्दशा असहनीय है, जन्म मरण का दुख.. बीमारी का दुख.. बुढ़ापे का दुख.. शरीर रखने का दुख.. संसार में संघर्ष का दुख.. घोर मानसिक दुखों से हम घिरे हैं.. काम की जलन, क्रोध की जलन, गलतियों की जलन.. अनंत जन्मों की तो छोड़िए, इसी जन्म में ही हमने कितने दुख पाएं, जिसने कुछ भी संघर्ष किया है उसने अपनी कमियों को जाना है, हम कितने असहाय हैं, अपूर्ण है.. देखा जाए तो हम कुछ भी नहीं.. एक पल के जीवन का भरोसा नहीं..कब क्या आपदा आ जाए.. कब मृत्यु आ जाये.. पर हमारा अहंकार इतना बड़ा है कि हम अपनी स्थिति पर विचार ही नहीं करते.. हमें करने का बल है.. कर कर के अनन्त जन्म बीत गए.. क्या मिला? और कर्म बंधन में फंसते गए!

यह संसार बड़ी युक्ति से बनाया गया है.. जिससे हम यह जाने की ये हमारा नहीं हैं.. यहा कुछ हमारा नहीं है.. कोई हमारा नहीं है.. हमारा असली घर भगवान का लोक है..हमारे असली ज़न भगवान के ज़न हैं.. हमारे सारे नाते भगवान से हैं.. वो अनन्त जन्मों से हमारी राह देख रहे हैं कि हम कब यह जाने, कब यह माने और उनको पुकारें.. बस फिर देरी नहीं.. भगवान को पाने के लिय सच्चे आँसुओं से बढ़कर कोई साधन नहीं.. अपनेपन के आंसू, दीनता के आँसू कह्ते हैं कि आपके बिना “मैं” कुछ भी नहीं.. और प्रेम का असली स्वरूप भी यही है.. प्रेमी बिना प्रेमास्पद के कुछ भी नहीं.. भगवान हमसे अनंत प्रेम करते हैं, यह संसार चला रहे हैं हमारे लिए सृष्टि की कभी हम जागे, कभी हम जाने, उनको अपना माने, और अपना कल्याण करें.. पर हम भी इतने ढीठ हैं कि अन्त जन्म हो गए.. अपनी बुद्धि का बल.. अपनी शक्ति का बल का मिथ्या अभिमान लेकर चौरासी लाख योनियों में जुते चप्पल खा रहें हैं.. सर कटा सकते हैं लेकिन सर झुका सकते नहीं.. प्रेम में हारकर ही जीत है.. भगवान अपने को कुछ नहीं मानते.. भक्त के आगे हारने को तैयार रहते हैं.. पर अभिमान उनको स्वीकार नहीं क्यों कि वो हमें यह समझाना चाहते हैं कि हम अपने से कुछ नहीं पर प्रेम में.. दूसरे के साथ सब कुछ हैं.. यहि प्रेम है, शरणागति है, आश्रय है, दीनता है और बिना आसुओं के यह परिपक्व नहीं होता।

तो फिर कैसे रोयें? आँसू कैसे आयें?  हम जब यह समझें कि बिना प्रभु कृपा के हम माया से, इस अंधकार से कभी नहीं उबर सकते.. हमारे अनन्त पाप हैं अनन्त जन्मों के.. हम अपने में सीमित हैं अगर हम अनंत काल तक भी साधना करें तब भी अशुद्ध ही रहेंगे.. केवल जो अनंत है, नित्य शुद्ध तत्त्व है.. परम पवित्र है.. वो ही अपनी कृपा से हमे उबार सकता है और कोई रास्ता नहीं। यह आँसू ही एक माध्यम हैं उन्हें बताने के लिए हम उनके भरोसे हैं जैसे एक बालक माँ के भरोसे होता है..अहम ही अहंकार है.. जहाँ अहम वहां अपनापन कहाँ? प्रेम में अपना बल रखना दाग है.. प्रेम ही प्रेरणा है.. प्रेम ही बल है.. उनका ही सहारा हो वही प्रेम है .. उनके प्रेम पर हमें पूर्ण विश्वास हो .. किरण सूर्य से प्रथक कुछ भी नहीं, अंधकार में खोई एक लाचार बेचार अस्तित्व है.. सूर्य का संबन्ध ज्ञान, उसका प्रेम, उसका आश्रय अंधकार मिटा सकता है और जो अपना है उससे मदद मांगने में क्या शर्म.. ये तो हमारा हक है.. वास्तविकता तो यह है कि भगवान का जब हम आश्रय नहीं लेना चाहते तो भगवान सोचते हैं यह मुझे अपना नहीं मानता मैं सर्व शक्तिमान हूँ.. मेरे इशारे मात से इसका अंधकार मीट जाएगा.. मुझे पा लेगा मेरा सब कुछ इसका हो जाएगा.. अनन्त कोट ब्रह्मांडो के राजा का बेटा भिखारियों की तरह जी रा है.. और उनकी शक्ति माया से हम पार नहीं पा सकते.. इस माया में भगवान के बराबर शक्ति है.. भगवान का आश्रय लिय बिना, उनसे अपनेपन के बिना, उनकी भक्ति के बिना त्रिकाल में किसी योगी, ज्ञानी, तपस्वी का कल्याण असंभव है, वही भक्ति से भक्त सहज ही भगवान को पा लेता है..

शुद्धयति हि नान्तरात्मा कृष्णपदाम्भोज भक्तिमृते।
(प्रबोध सुधाकर ~ आदि जगद्गुरु शंकराचार्य)

“भगवान श्रीकृष्ण के चरण कमलों की भक्ति में लीन हुए बिना मन शुद्ध नहीं होगा”

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया। मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते॥ ( भगवद्गीता 7-14॥)

प्रकति के तीन गुणों (सात्विक, राजस, तमस) से युक्त मेरी दैवीय शक्ति माया से पार पाना अत्यंत कठिन है किन्तु जो मेरे शरणागत हो जाते हैं, वे इसे सरलता से पार कर जाते हैं।

यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्व, यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै । तं ह देवमात्मबुद्धिप्रकाशं, मुमुक्षुर्वै शरणमहं प्रपद्ये ॥ ( यजुर्वेद श्वेताश्वतरोपनिषत् ६-१८ )

जो सृष्टि के पूर्व ‘सृष्टिकर्ता ब्रह्मा’ का विधान करता है तथा जो वेदों को उन्हें (ब्रह्मा को) प्रदान करता है, वो भगवान (देव) जो ‘आत्मा’ तथा ‘बुद्धि’ प्रकाशित कर रहा है, मैं कल्याण की कामना से उसकी शरण को जाता हूँ।

सो दासी रघुबीर कै समुझें मिथ्या सोपि। छूट न राम कृपा बिनु नाथ कहउँ पद रोपि ॥ (रामायण 71 ख)

वह माया श्री रघुवीर की शक्ति है, उसको मिथ्या ना समझो, उसमे भगवान के बराबर बल है, वह श्री रामजी की कृपा के बिना छूटती नहीं। हे नाथ! यह मैं प्रतिज्ञा करके कहता हूँ॥

हम असहाय हैं.. अनंत जन्मों से माया के आधीन होने के कारण हम अनंत पाप कर के बैठे हैं.. हर तरह का पाप हमने किया है.. अनन्त मर्डर किए हैं.. हमें याद नहीं.. हम अनन्त काल तक भी अगर साधना करे तब भी मन शुद्ध नहीं कर सकते.. और कल युग के जीव क्या साधना करेंगे.. जब मन ही बस में नहीं तो क्या ध्यान क्या ज्ञान.. वैसे भी भगवान कोई साधन से नहीं मिलते.. शरणागति से मिलते हैं.. शरणागत होना मतलब अपने बल का कोई आसरा ना हो केबल प्रभु की कृपा का आसरा हो तब बिना किए ही कृपा होती है.. जो साधना सेवा उन्हें करानी है.. भगवान अपनी कृपा से करा लेते हैं हमारा मन शुद्ध कराने के लिए और फिर भगवद्ग दर्शन, प्रेम सब मिल जाता है.. जब तक जीव कर कर के हार नहीं जाता है.. तब तक उसका अहम नहीं टूटता..तब तक वो शरणागत नहीं होता..

जब संसार आसक्त पत्थर दिल इंसान का हृदय भी आँसू देखकर भारी हो जाता है.. पिघल जाता है तो क्या करुणा वरुणालय अनन्त माताओं का वात्सल्य लिए हमारे प्रभु अपने आप को रोक पाएंगे? .. हरगिज नहीं.. हमारे बस रोने की देर हैं..रोने की आदत डाल लो.. जिद्द कर लो रोने की.. लाखँ आँसू बहाने की.. कि जब तो वो नहीं आयेंगे हम रोते जाएंगे.. प्राणों में और आंसुओं में होड़ लग जाएं.. अभी नहीं तो कभी नहिं.. बस अब बहुत हो चुका अब यह जीवन बिना जीवन धन को पाए व्यर्थ है.. मैं अधम, पापी, अहंकारी पापात्मा बेशर्मी में जिए जाँ रहा
हूँ! पाप पे पाप किए जाँ रहा हुं.. जिस पल भी हम भगवान के अलावा कुछ भी सोचते हैं तो राग द्वेष के अलावा क्या सोचेंगे.. क्या करेंगे.. कर्म बंधन में फंसते जाएंगे.. केवल ईश्वर प्रेम ही एक उपाय है.. जिसे आसुओं का सहारा है उसको भगवान अवश्य मिलेंगे, यही वेदों का सार है।

बिन रोये किन पाईया प्रेम पीयारो मीत..

मन कैसे शांत हो? क्या परमानन्द पाना कठिन है? भगवान जल्दी कैसे मिलें?

सबसे सुगम, सरल और सर्वोत्तम साधन – भगवद्ग ज्ञान, प्रेम और शरणागति।

संसार का सुख मायीक है, जड़, नश्वर, क्षणिक, घटमान, दुख मिश्रित एवं अशांति का मूल है। परम सुख परमात्मिक है, दिव्य, शास्वत, प्रति क्षण वर्धमान, नित्य नवीन एवं अनंत है।

संसार का सुख पाना कठिन है, अगर कोई अरबपति बनना चाहे, प्रधानमन्त्री बनना चाहे, हर कोई नहीं कर पाता और पा भी ले तो रख नहीं पाता परंतु परम सुख पाना सरल है, हर कोई पा सकता है और सदा के लिय।

कैसे? जैसे हम जब बीमार होते हैं, बुखार में, दुख में होते हैं तो स्वाभाविक रूप से अपनी माँ को याद करते हैं, अनायास ही मुख से माँ की पुकार होती है, माँ के प्यार की, दुलार की चाह होती है।

वैसे ही जब हम अपनी असली माँ को सच्चे हृदय से “शरणागत” होके पुकारते हैं तो भगवान की कृपा हमें अपने आचल में भर लेती है, अशांत चित में शांति, मन में निर्भयता, निर्लिप्तता और निशोकता आ जाती है, बिना किय ज्ञान, वैराग्य और प्रेम प्रस्फुटित होने लगाता है, मन आनंद में डूबने लगता है।

असली आनंद पाने के लिए केवल चाह चाहिये, प्रबल चाह, भगवान चाह से मिलते हैं, भाव से मिलते हैं, बिना किए मिलते हैं, निर्बल को मिलते हैं, शरणागत को मिलते हैं, प्रेम से मिलते हैं, और प्रेम करना सब कोई जानता है।

किरन का संबंध सूर्य से है, संसार और शरीर के मोह रूपी अंधकार से नहीं। हम पुकारे कि “हे प्रभु, हम आपके हैं पर करने पर भी आपसे प्रेम नहीं होता, ध्यान नहीं होता, मन अज्ञान से भरा है, अशांत हैं, अनंत जन्मों की बिगड़ी मेरे बनाय नहीं बनेगी, अब बस आपका ही सहारा है!

केवल संसार में ड्यूटी करके भगवान की कृपा चाहने से सबकुछ मिल जाता है। इससे सरल कुछ नहीं, केवल भगवान की कृपा पर विश्वास हो, उनसे अपनापन हो, ना हो तो उनसे प्राथना करें, आप केवल उनके हो यह समझ बैठ जाएगी। तब अनन्त जन्मों की बिगड़ी कुछ समय में बन जाएगी।

और अगर हम सोचे यह बहुत कठिन है तो हमको अपना बल है, सर्व समर्थ भगवान को हम अपना नहीं मानते, हम को लगता है करने से कृपा मिलती है, तो फिर जब हम कर कर के थक जाएगें, मर मर के मर जाएगें, तब कभी किसी जन्म में निर्बल होके भगवान को पुकारेंगे।

तो हम अभी क्यों ना पुकारें, उन्हें अपना मान के? बच्चा माँ की गोदी के लिए सदा अधिकारी है, माँ उसके गुण अवगुण नहीं देखती, बस उसे माँ की प्रबल चाह हो तो भगवान तुरंत गोदी में उठा लेंगे, अपना सब कुछ दे देंगे।

बिगरी जन्म अनेक की अबहीं सुधरे आज। होहि राम कौ नाम भजु तुलसी तजि कुसमाज ।। (तुलसीदास, दोहावली २२)

Be in love to love others.

Be in Love to love others, Happy to give happiness. Love for God is the secret of Life.

प्रेम मगन रहो प्रेम करने के लिए, आनंदित रहो आनंद देने के लिए। परमात्मा के प्रति प्रेम जीवन का रहस्य है।

Love is the secret of secrets – All joy and beauty, power and perfection, order and intelligence, wonder and mystery, all which is good and great is it’s expression.

Love is answer to all the questions. All reasons are completed in love. It’s the cause of causes, the cause less and eternal. It’s your very being.

Love is your beloved happiness. Love is when you don’t want to be big but small, seeks service and not attention.

Love brings all virtue to it’s holder – peace and patience, joy and happiness, care and compassion, goodness and gentleness are it’s offspring.

Love is the greatest force in the universe, it makes you to know the unknowable, God – the source of all existence, knowledge and bliss .

प्रेम रहस्यों का रहस्य है – सभी आनंद और सौंदर्य, शक्ति और पूर्णता, व्यवस्था और बुद्धिमत्ता, आश्चर्य और रहस्य, यह सब जो अच्छा और महान है वह प्रेम की अभिव्यक्ति है।

प्रेम सभी प्रश्नों का उत्तर है। प्रेम में सभी कारण पूर्ण होते हैं। प्रेम कारणों का कारण है, अकारण और शाश्वत है। यह आपका मूल अस्तित्व है।

प्रेम आपके प्रिय का सुख है। प्रेम मे आप बड़े नहीं बल्कि छोटे होना चाहते हैं, सेवा करना चाहते हैं, अपनी बड़ाई नहीं।

प्रेम सभी सद्गुणों क धारक है – शांति और धैर्य, आनंद और खुशी, दया और करुणा, अच्छाई और सौम्यता, यह सब उसकी संतान हैं।

ब्रह्मांड में प्रेम सबसे बड़ी शक्ति है, यह आपको ना जान सकने वाले परमात्मा की प्राप्ति कराता है, वह परमात्मा जो की समस्त सत, चित और आनंद का स्रोत है।

Pleasure is Pain, Indulgence is Ignorance.

Indulgence, Repentance, God, Grace.
भोग, पश्चाताप, कृष्ण, कृपा।

Pleasure is Pain, Indulgence is Ignorance, Lord is Love, Love is Light.
सुख दुख है, भोग अज्ञान है, प्रभु प्रेम हैं , प्रेम प्रकाश है।

Man seek pleasures to alleviate pain not knowing in his ignorance how one leads to another in endless cycles of indulgence and repentance.

When the knowledge dawns after repeated troubles and untold suffering, he understand how all attachments plagues ones peace of mind. That the mind is inherently dysfunctional in forgetfulness of God and it can find rest only when it turn towards him.

मनुष्य अपनी अज्ञानता में दुख को कम करने के लिए सुख की तलाश करता हैं और भोग और पश्चाताप के चक्र में फस जाता हैं। जब अनेक परेशानियों और अनकही पीड़ाओं के बाद उसे ज्ञान होता है, तो वे समझता हैं कि कैसे सभी कामनाएं मानसिक अशांति देती हैं। यह कि ईश्वर की विस्मृति में मन स्वाभाविक रूप से अशांत और अतृप्त रेहता है और केवल तभी आनंद पाता है जब वह ईश्वर के सन्मुख होता है।